PGDCA (First Semester)
Examination, July/August 2021
PC PACKAGES (Word, Excel, PowerPoint) (7618)
इकाई I (Unit I)
Question 1:(a) HIBERNATE शब्द की व्याख्या कीजिये।
Explain the term HIBERNATE
Answer: How to logoff, hibernate, shutdown etc
Question 1:(b) विंडोज ऑपरेटिंग सिस्टम का कार्य बताइए।
Explain the function of Windows operating system
Answer: Overview of Windows Operating System
Question 2:(a) विंडोज में निष्पादन योग्य फाइलों की व्याख्या कीजिये।
Explain executable files in Windows.
Answer:
Question 2:(b) एप्लीकेशन साॅफ्टवेयर क्या है ?
What is Application Software ?
Answer:एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर (Application Software)
इकाई II (Unit II)
Question 3:(a) विंडोज एक्सपी में निम्नलिखित को बताइये:
- वर्ड प्रोसेसिंग
- WPS ऑफिस
Explain the following in Windows XP
- Word Processing
- WPS Office
Answer: Word-processing
Question 3:(b) दस्तावेजों में आकृतियों और स्मार्ट कला से आपका क्या अभिप्राय है ?
What do you mean by shapes and smart art in documents ?
Answer:
- Working with Shapes
- Smart Art in documents
Question 4:(a) वर्ड डाॅक्यूमेंट में हेडर और फुटर का उद्दयेश क्या है ?
What is the purpose of Header and Footer in word document ?
Answer: Header and Footer
Question 4:(b) Word document में तालिका बनाने के चरणों को लिखिये।
Write the steps of creating table in word document.
Answer: Creating a simple table, Creating a table using the table menu
इकाई III (Unit III)
Question 5:(a) दस्तावेजों में फुटनोट और एंडनोट का उद्दयेश क्या है ?
What is the purpose of footnote and endnote in documents ?
Answer: Using footnote and endnote in documents
Question 5:(b) वर्ड दस्तावेजों में वाॅटरमार्क डालने के चरण लिखिए |
Write steps of inserting watermark in word document.
Answer: Watermarks
Question 6:(a) दस्तावेजों में स्क्रीनशॉट लेने के चरणों को लिखिये।
Write the steps of taking screenshot in documents.
Answer: Taking and inserting Screen shots in Documents
Question 6:(b)एमएस वर्ड में मेल मर्ज की अवधारणा को परिभाषित कीजिये।
Define the concept of Mail Merge in MS Word.
Answer: Mail Merge in MS Word
इकाई IV (Unit IV)
Question 7:(a) एमएस एक्सेल स्प्रेडशीट की बुनियादी विशेषताओ को परिभाषित कीजिये|
Define the basic features of MS Excel spreadsheet.
Answer: MS Excel Spreadsheet Basics & features
Question 7:(b) नई वर्कशीट बनाने के चरण लिखिये।
Write the steps of creating a new worksheet.
Answer: Creating a new worksheet
Question 8:(a) सेल डेटा को साॅर्ट करने से आपका क्या मतलब है ?
What do you mean by sorting cell data ?
Answer: sorting cell data
Question 8:(b) MS Excel में विभिन्न प्रकार के प्रारूपण को परिभाषित कीजिये।
Define various types of formatting in MS Excel.
Answer: Cell Formatting
इकाई V (Unit V)
Question 9:(a) नई प्रस्तुति स्लाइड बनाने के चरण लिखिये।
Write the steps of creating new presentation slide
Answer: Creating a New Presentation
Question 9:(b) पावरपाॅइंट में शब्द स्लाइड मास्टर को परिभाषित कीजिये।
Define the term slide master in PowerPoint
Answer: Slide Master
Question 10:(a) आउटलुक एक्सप्रेस की विशेषताओ को परिभाषित कीजिये।
Define the features of outlook express
Answer: Features and uses of Outlook
Question 10:(b) आउटलुक में ईमेल बनाने के चरणों को लिखिये।
Write the steps of creating email in outlook.
Answer: How to set up an Internet email account in Outlook 2013
कला (आर्ट) शब्द इतना व्यापक है कि विभिन्न विद्वानों की परिभाषाएँ केवल एक विशेष पक्ष को छूकर रह जाती हैं। कला का अर्थ अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है, यद्यपि इसकी हजारों परिभाषाएँ की गयी हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार कला उन सारी क्रियाओं को कहते हैं जिनमें कौशल अपेक्षित हो। यूरोपीय शास्त्रियों ने भी कला में कौशल को महत्त्वपूर्ण माना है।
कला एक प्रकार का कृत्रिम निर्माण है जिसमे शारीरिक और मानसिक कौशलों का प्रयोग होता है।
मैथिली शरण गुप्त के शब्दों में,
अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही तो कला है -- (साकेत, पंचम सर्ग)दूसरे शब्दों में -: मन के अंतःकरण की सुन्दर प्रस्तुति ही कला है।
कला शब्द का प्रयोग शायद सबसे पहले भरत के "नाट्यशास्त्र" में ही मिलता है। पीछे वात्स्यायन और उशनस् ने क्रमश: अपने ग्रंथ "कामसूत्र" और "शुक्रनीति" में इसका वर्णन किया।
"कामसूत्र", "शुक्रनीति", जैन ग्रंथ "प्रबंधकोश", "कलाविलास", "ललितविस्तर" इत्यादि सभी भारतीय ग्रंथों में कला का वर्णन प्राप्त होता है। अधिकतर ग्रंथों में कलाओं की संख्या 64 मानी गयी है। "प्रबंधकोश" इत्यादि में 72 कलाओं की सूची मिलती है। "ललितविस्तर" में 86 कलाओं के नाम गिनाये गये हैं। प्रसिद्ध कश्मीरी पंडित क्षेमेंद्र ने अपने ग्रंथ "कलाविलास" में सबसे अधिक संख्या में कलाओं का वर्णन किया है। उसमें 64 जनोपयोगी, 32 धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, सम्बन्धी, 32 मात्सर्य-शील-प्रभावमान सम्बन्धी, 64 स्वच्छकारिता सम्बन्धी, 64 वेश्याओं सम्बन्धी, 10 भेषज, 16 कायस्थ तथा 100 सार कलाओं की चर्चा है। सबसे अधिक प्रामाणिक सूची "कामसूत्र" की है।
यूरोपीय साहित्य में भी कला शब्द का प्रयोग शारीरिक या मानसिक कौशल के लिए ही अधिकतर हुआ है। वहाँ प्रकृति से कला का कार्य भिन्न माना गया है। कला का अर्थ है रचना करना अर्थात् वह कृत्रिम है। प्राकृतिक सृष्टि और कला दोनों भिन्न वस्तुएँ हैं। कला उस कार्य में है जो मनुष्य करता है। कला और विज्ञान में भी अंतर माना जाता है। विज्ञान में ज्ञान का प्राधान्य है, कला में कौशल का। कौशलपूर्ण मानवीय कार्य को कला की संज्ञा दी जाती है। कौशलविहीन या बेढब ढंग से किये गये कार्यों को कला में स्थान नहीं दिया जाता।
अंकोरवाट मंदिर की वास्तुकला
कलाओं के वर्गीकरण में मतैक्य होना सम्भव नहीं है। वर्तमान समय में कला को मानविकी के अन्तर्गत रखा जाता है जिसमें इतिहास, साहित्य, दर्शन और भाषाविज्ञान आदि भी आते हैं।
पाश्चात्य जगत में कला के दो भेद किये गये हैं- उपयोगी कलाएँ (Practice Arts) तथा ललित कलाएँ (Fine Arts)। परम्परागत रूप से निम्नलिखित सात को 'कला' कहा जाता है-
आधुनिक काल में इनमें फोटोग्राफी, चलचित्रण, विज्ञापन[1] और कॉमिक्स जुड़ गये हैं।
उपरोक्त कलाओं को निम्नलिखित प्रकार से भी श्रेणीकृत कर सकते हैं-
कुछ कलाओं में दृश्य और निष्पादन दोनों के तत्त्व मिश्रित होते हैं, जैसे फिल्म।
जीवन, ऊर्जा का महासागर है। जब अंतश्चेतना जाग्रत होती है तो ऊर्जा जीवन को कला के रूप में उभारती है। कला जीवन को सत्यम् शिवम् सुन्दरम् से समन्वित करती है। इसके द्वारा ही बुद्धि आत्मा का सत्य स्वरुप झलकता है। कला उस क्षितिज की भाँति है जिसका कोई छोर नहीं, इतनी विशाल इतनी विस्तृत अनेक विधाओं को अपने में समेटे, तभी तो कवि मन कह उठा-
साहित्य संगीत कला विहीनः साक्षात् पशुः पुच्छ विषाणहीनः ॥रवीन्द्रनाथ ठाकुर के मुख से निकला “कला में मनुष्य अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है ” तो प्लेटो ने कहा - “कला सत्य की अनुकृति के अनुकृति है।”
टालस्टाय के शब्दों में अपने भावों की क्रिया रेखा, रंग, ध्वनि या शब्द द्वारा इस प्रकार अभिव्यक्ति करना कि उसे देखने या सुनने में भी वही भाव उत्पन्न हो जाए कला है। हृदय की गइराईयों से निकली अनुभूति जब कला का रूप लेती है, कलाकार का अन्तर्मन मानो मूर्त ले उठता है चाहे लेखनी उसका माध्यम हो या रंगों से भीगी तूलिका या सुरों की पुकार या वाद्यों की झंकार। कला ही आत्मिक शान्ति का माध्यम है। यह कठिन तपस्या है, साधना है। इसी के माध्यम से कलाकार सुनहरी और इन्द्रधनुषी आत्मा से स्वप्निल विचारों को साकार रूप देता है।
कला में ऐसी शक्ति होनी चाहिए कि वह लोगों को संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठाकर उसे ऐसे ऊँचे स्थान पर पहुँचा दे जहाँ मनुष्य केवल मनुष्य रह जाता है। कला व्यक्ति के मन में बनी स्वार्थ, परिवार, क्षेत्र, धर्म, भाषा और जाति आदि की सीमाएँ मिटाकर विस्तृत और व्यापकता प्रदान करती है। व्यक्ति के मन को उदात्त बनाती है। वह व्यक्ति को “स्व” से निकालकर “वसुधैव कुटुम्बकम्” से जोड़ती है।
कला ही है जिसमें मानव मन में संवेदनाएँ उभारने, प्रवृत्तियों को ढालने तथा चिंतन को मोड़ने, अभिरुचि को दिशा देने की अद्भुत क्षमता है। मनोरंजन, सौन्दर्य, प्रवाह, उल्लास न जाने कितने तत्त्वों से यह भरपूर है, जिसमें मानवीयता को सम्मोहित करने की शक्ति है। यह अपना जादू तत्काल दिखाती है और व्यक्ति को बदलने में, लोहा पिघलाकर पानी बना देने वाली भट्टी की तरह मनोवृत्तियों में भारी रुपान्तरण प्रस्तुत कर सकती है।
जब यह कला संगीत के रूप में उभरती है तो कलाकार गायन और वादन से स्वयं को ही नहीं श्रोताओं को भी अभिभूत कर देता है। मनुष्य आत्मविस्मृत हो उठता है। दीपक राग से दीपक जल उठता है और मल्हार राग से मेघ बरसना यह कला की साधना का ही चरमोत्कर्ष है। संगीत की साधना; सुरों की साधना है। मिलन है आत्मा से परमात्मा का; अभिव्यक्ति है अनुभूति की।
भाट और चारण भी जब युद्धस्थल में उमंग, जोश से सराबोर कविता-गान करते थे, तो वीर योद्धाओं का उत्साह दुगुना हो जाता था और युद्धक्षेत्र कहीं हाथी की चिंघाड़, तो कहीं घोड़ों की हिनहिनाहट तो कहीं शत्रु की चीत्कार से भर उठता था; यह गायन कला की परिणति ही तो है।pop
संगीत केवल मानवमात्र में ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों व पेड़-पौधों में भी अमृत रस भर देता है। पशु-पक्षी भी संगीत से प्रभावित होकर झूम उठते हैं तो पेड़-पौधों में भी स्पन्दन हो उठता है। तरंगें फूट पड़ती हैं। यही नहीं मानव के अनेक रोगों का उपचार भी संगीत की तरंगों से सम्भव है। कहा भी है:
संगीत है शक्ति ईश्वर की, हर सुर में बसे हैं राम।रागी तो गाये रागिनी, रोगी को मिले आराम।।संगीत के बाद ये ललित-कलाओं में स्थान दिया गया है तो वह है- नृत्यकला। चाहे वह भरतनाट्यम हो या कथक, मणिपुरी हो या कुचिपुड़ी। विभिन्न भाव-भंगिमाओं से युक्त हमारी संस्कृति व पौराणिक कथाओं को ये नृत्य जीवन्तता प्रदान करते हैं। शास्त्रीय नृत्य हो या लोकनृत्य इनमें खोकर तन ही नहीं मन भी झूम उठता है।
कलाओं में कला, श्रेष्ठ कला, वह है चित्रकला। मनुष्य स्वभाव से ही अनुकरण की प्रवृत्ति रखता है। जैसा देखता है उसी प्रकार अपने को ढालने का प्रयत्न करता है। यही उसकी आत्माभिव्यंजना है। अपनी रंगों से भरी तूलिका से चित्रकार जन भावनाओं की अभिव्यक्ति करता है तो दर्शक हतप्रभ रह जाता है। पाषाण युग से ही जो चित्र पारितोषक होते रहे हैं ये मात्र एक विधा नहीं, अपितू ये मानवता के विकास का एक निश्चित सोपान प्रस्तुत करते हैं। चित्रों के माध्यम से आखेट करने वाले आदिम मानव ने न केवल अपने संवेगों को बल्कि रहस्यमय प्रवृत्ति और जंगल के खूंखार प्रवासियों के विरुद्ध अपने अस्तित्व के लिए किये गये संघर्ष को भी अभिव्यक्त किया है। धीरे-धीरे चित्रकला शिल्पकला सोपान चढ़ी। सिन्धुघाटी सभ्यता में पाये गये चित्रों में पशु-पक्षी मानव आकृति सुन्दर प्रतिमाएँ, ज्यादा नमूने भारत की आदिसभ्यता की कलाप्रियता का द्योतक है।
अजन्ता, बाध आदि के गुफा चित्रों की कलाकृतियों पूर्व बौद्धकाल के अन्तर्गत आती है। भारतीय कला का उज्ज्वल इतिहास भित्ति चित्रों से ही प्रारम्भ होता है और संसार में इनके समान चित्र कहीं नहीं बने ऐसा विद्वानों का मत है। अजन्ता के कला मन्दिर प्रेम, धैर्य, उपासना, भक्ति, सहानुभूति, त्याग तथा शान्ति के अपूर्व उदाहरण है।
मधुबनी शैली, पहाड़ी शैली, तंजौर शैली, मुगल शैली, बंगाल शैली अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण आज जनशक्ति के मन चिन्हित है। यदि भारतीय संस्कृति की मूर्त्ति कला व शिल्प कला के दर्शन करने हो तो दक्षिण के मन्दिर अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। जहाँ के मीनाक्षी मन्दिर, वृहदीश्वर मन्दिर, कोणार्क मन्दिर अपनी अनूठी पहचान के लिए प्रसिद्ध है।
यही नहीं भारतीय संस्कृति में लोक कलाओं की खुश्बू की महक आज भी अपनी प्राचीन परम्परा से समृद्ध है। जिस प्रकार आदिकाल से अब तक मानव जीवन का इतिहास क्रमबद्ध नहीं मिलता उसी प्रकार कला का भी इतिहास क्रमबद्ध नहीं है, परन्तु यह निश्चित है कि सहचरी के रूप में कला सदा से ही साथ रही है। लोक कलाओं का जन्म भावनाओं और परम्पराओं पर आधारित है क्योंकि यह जनसामान्य की अनुभूति की अभिव्यक्ति है। यह वर्तमान शास्त्रीय और व्यावसायिक कला की पृष्ठभूमि भी है। भारतवर्ष में पृथ्वी को धरती माता कहा गया है। मातृभूति तो इसका सांस्कृतिक व परिष्कृत रूप है। इसी धरती माता का श्रद्धा से अलंकरण करके लोकमानव में अपनी आत्मीयता का परिचय दिया। भारतीय संस्कृति में धरती को विभिन्न नामों से अलंकृत किया जाता है। गुजरात में “साथिया” राजस्थान में “माण्डना”, महाराष्ट्र में “रंगोली” उत्तर प्रदेश में “चौक पूरना”, बिहार में “अहपन”, बंगाल में “अल्पना” और गढ़वाल में “आपना” के नाम से प्रसिद्ध है। यह कला धर्मानुप्रागित भावों से प्रेषित होती है; जिसमें श्रद्धा से रचना की जाती है। विवाह और शुभ अवसरों में लोककला का विशिष्ट स्थान है। द्वारों पर अलंकृत घड़ों का रखना, उसमें जल व नारियल रखना, वन्दनवार बांधना आदि को आज के आधुनिक युग में भी इसे आदरभाव, श्रद्धा और उपासना की दृष्टि से देखा जाता है।
आज भारत की वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण “ताजमहल” है, जिसने विश्व की अपूर्व कलाकृत्तियों के सात आश्चर्य में शीर्षस्थ स्थान पाया है। लालकिला, अक्षरधाम मन्दिर, कुतुबमीनार, जामा मस्जिद भी भारतीय वास्तुकला का अनुपम उदाहरण रही है। मूर्त्तिकला, समन्वयवादी वास्तुकला तथा भित्तिचित्रों की कला के साथ-साथ पर्वतीय कलाओं ने भी भारतीय कला से समृद्ध किया है।
सत्य, अहिंसा, करुणा, समन्वय और सर्वधर्म समभाव ये भारतीय संस्कृति के ऐसे तत्त्व हैं, जिन्होंने अनेक बाधाओं के बीच भी हमारी संस्कृति की निरन्तरता को अक्षुण्ण बनाए रखा है। इन विशेषताओं ने हमारी संस्कृति में वह शक्ति उत्पन्न की है कि वह भारत के बाहर एशिया, दक्षिण पूर्व एशिया में अपनी जड़े फैला सके।
हमारी संस्कृति के इन तत्त्वों को प्राचीन काल से लेकर आज तक की कलाओं में देखा जा सकता है। इन्हीं ललित कलाओं ने हमारी संस्कृति को सत्य, शिव, सौन्दर्य जैसे अनेक सकारात्मक पक्षों को चित्रित किया है। इन कलाओं के माध्यम से ही हमारा लोकजीवन, लोकमानस तथा जीवन का आंतरिक और आध्यात्मिक पक्ष अभिव्यक्त होता रहा है, हमें अपनी इस परम्परा से कटना नहीं है अपितु अपनी परम्परा से ही रस लेकर आधुनिकता को चित्रित करना है।
भारतीय मनीषियों के अनुसार कलाओं की सूची[संपादित करें]
"कामसूत्र" के अनुसार 64 कलाएँ निम्नलिखित हैं :
(1) गायन, (2) वादन, (3) नर्तन, (4) नाट्य, (5) आलेख्य (चित्र लिखना), (6) विशेषक (मुखादि पर पत्रलेखन), (7) चौक पूरना, अल्पना, (8) पुष्पशय्या बनाना, (9) अंगरागादि लेपन, (10) पच्चीकारी, (11) शयन रचना, (12) जलतंरग बजाना (उदक वाद्य), (13) जलक्रीड़ा, जलाघात, (14) रूप बनाना (मेकअप), (15) माला गूँथना, (16) मुकुट बनाना, (17) वेश बदलना, (18) कर्णाभूषण बनाना, (19) इत्र या सुगंध द्रव बनाना, (20) आभूषण धारण, (21) जादूगरी, इंद्रजाल, (22) असुंदर को सुंदर बनाना, (23) हाथ की सफाई (हस्तलाघव), (24) रसोई कार्य, पाक कला, (25) आपानक (शर्बत बनाना), (26) सूचीकर्म, सिलाई, (27) कलाबत्, (28) पहेली बुझाना, (29) अंत्याक्षरी, (30) बुझौवल, (31) पुस्तक वाचन, (32) काव्य-समस्या करना, नाटकाख्यायिका-दर्शन, (33) काव्य-समस्या-पूर्ति, (34) बेंत की बुनाई, (35) सूत बनाना, तुर्क कर्म, (36) बढ़ईगिरी, (37) वास्तुकला, (38) रत्नपरीक्षा, (39) धातुकर्म, (40) रत्नों की रंग परीक्षा, (41) आकर ज्ञान, (42) बागवानी, उपवन विनोद, (43) मेढ़ा, पक्षी आदि लड़वाना, (44) पक्षियों को बोली सिखाना, (45) मालिश करना, (46) केश-मार्जन-कौशल, (47) गुप्त-भाषा-ज्ञान, (48) विदेशी कलाओं का ज्ञान, (49) देशी भाषाओं का ज्ञान, (50) भविष्य कथन, (51) कठपुतली नर्तन, (52) कठपुतली के खेल, (53) सुनकर दोहरा देना, (54) आशुकाव्य क्रिया, (55) भाव को उलटा कर कहना, (56) धोखाधड़ी, छलिक योग, छलिक नृत्य, (57) अभिधान, कोशज्ञान, (58) नकाब लगाना (वस्त्रगोपन), (59) द्यूतविद्या, (60) रस्साकशी, आकर्षण क्रीड़ा, (61) बालक्रीड़ा कर्म, (62) शिष्टाचार, (63) मन जीतना (वशीकरण) और (64) व्यायाम।"शुक्रनीति" के अनुसार कलाओं की संख्या असंख्य है, फिर भी समाज में अति प्रचलित 64 कलाओं का उसमें उल्लेख हुआ है। "शुक्रनीति" के अनुसार गणना इस प्रकार है :-
नर्तन (नृत्य), (2) वादन, (3) वस्त्रसज्जा, (4) रूप परिवर्तन, (5) शैय्या सजाना, (6) द्यूत क्रीड़ा, (7) सासन रतिज्ञान, (8) मद्य बनाना और उसे सुवासित करना, (9) शल्य क्रिया, (10) पाक कार्य, (11) बागवानी, (12) पाषाणु, धातु आदि से भस्म बनाना, (13) मिठाई बनाना, (14) धात्वौषधि बनाना, (15) मिश्रित धातुओं का पृथक्करण, (16) धातु मिश्रण, (17) नमक बनाना, (18) शस्त्र संचालन, (19) कुश्ती (मल्लयुद्ध), (20) लक्ष्य वेध, (21) वाद्य संकेत द्वारा व्यूह रचना, (22) गजादि द्वारा युद्धकर्म, (23) विविध मुद्राओं द्वारा देव पूजन, (24) सारथ्य, (25) गजादि की गति शिक्षा, (26) बर्तन बनाना, (27) चित्रकला, (28) तालाब, प्रासाद आदि के लिए भूमि तैयार करना, (29) घटादि द्वारा वादन, (30) रंगसाजी, (31) भाप के प्रयोग-जलवाटवग्नि संयोगनिरोधै: क्रिया, (32) नौका, रथादि यानों का ज्ञान, (33) यज्ञ की रस्सी बाटने का ज्ञान, (34) कपड़ा बुनना, (35) रत्न परीक्षण, (36) स्वर्ण परीक्षण, (37) कृत्रिम धातु बनाना, (38) आभूषण गढ़ना, (39) कलई करना, (40) चर्मकार्य, (41) चमड़ा उतारना, (42) दूध के विभिन्न प्रयोग, (43) चोली आदि सीना, (44) तैरना, (45) बर्त्तन माँजना, (46) वस्त्र प्रक्षालन (संभवत: पालिश करना), (47) क्षौरकर्म, (48) तेल बनाना, (49) कृषिकार्य, (50) वृक्षारोहण, (51) सेवा कार्य, (52) टोकरी बनाना, (53) काँच के बर्त्तन बनाना, (54) खेत सींचना, (55) धातु के शस्त्र बनाना, (56) जीन, काठी या हौदा बनाना, (57) शिशुपालन, (58) दंडकार्य, (59) सुलेखन, (60) तांबूलरक्षण, (61) कलामर्मज्ञता, (62) नटकर्म, (63) कलाशिक्षण और (64) साधने की क्रिया।वात्स्यायन के "कामसूत्र" की व्याख्या करते हुए जयमंगल ने दो प्रकार की कलाओं का उल्लेख किया है – (1) कामशास्त्र से सम्बन्धित कलाएँ, (2) तंत्र सम्बन्धी कलाएँ। दोनों की अलग-अलग संख्या 64 है। काम की कलाएँ 24 हैं जिनका सम्बन्ध सम्भोग के आसनों से है, 20 द्यूत सम्बन्धी, 16 कामसुख सम्बन्धी और 4 उच्चतर कलाएँ। कुल 64 प्रधान कलाएँ हैं। इसके अतिरिक्त कतिपय साधारण कलाएँ भी बतायी गयी हैं।
प्रगट है कि इन कलाओं में से बहुत कम का सम्बन्ध ललित कला या फ़ाइन आर्ट्स से है। ललित कला – अर्थात् चित्रकला, मुर्त्तिकला आदि का प्रसंग इनसे भिन्न और सौंदर्यशास्त्र से सम्बन्धित है।