VANDANA CLASSES- By ANIL BANSAL आपतित किरण(Incident Ray):- वह किरण जो
पृथककारी पृष्ठ पर आपतित होती है उसे आपतित किरण कहते है। परावर्तित किरण(Reflected Ray):- वह किरण जो पृथक्कारी पृष्ठ से परावर्तित होकर पुनः उसी माध्यम में लौट जाती है उसे परावर्तित किरण कहते है। आपतन बिन्दू पर डाले गए लम्ब को अभिलम्ब कहते है। आपतन कोण(Incidence Angle):- आपतित किरण तथा अभिलम्ब के मध्य बनने वाले कोण को आपतन कोण कहते है। परावर्तन कोण(Reflection Angle):-
परावर्तित किरण तथा अभिलम्ब के मध्य के कोण परावर्तन कोण कहते है। परावर्तन के नियम(Law of Reflection):– 1.आपतित किरण, परावर्तित किरण एवं आपतन बिन्दू पर अभिलम्ब तीनों एक ही तल में स्थित होते है। 2.आपतन कोण सदैव परावर्तन कोण के समान होता है। परावर्तन प्रक्रिया में प्रकाश किरण की आवृति तंरगदैर्ध्य, वेग में कोई परिवर्तन नहीं होती लेकिन तीव्रता बदल जाती है। जब प्रकाश किरण सतह पर लम्बवत आपतित होती है तब पुनः उसी पथ पर लौट आती है। क्योंकि i = 0 व
अतः r = 0 होता है। प्रतिबिम्ब(Image):- जब वस्तु से चलने वाली प्रकाश किरणे परावर्तन या अपवर्तन के पश्चात् किसी बिन्दू पर मिलती है या मिलती हुई प्रतीत होती है तब उस बिन्दू पर वस्तु की उप महसूस होती है जिसे प्रतिबिम्ब कहते है। यह दो प्रकार के होते हैः- 1.वास्तविक प्रतिबिम्ब(Real Image):- जब वस्तु से चलने वाली प्रकाश किरणे अपवर्तन या परावर्तन के पश्चात् वास्तविक रूप से मिलती है तब बने प्रतिबिम्ब को वास्तविक प्रतिबिम्ब कहते है।
*सामान्यतः यह उल्टे होते है एवं इन्हे पर्दे पर प्राप्त किया जा सकता है। 2.आभासी प्रतिबिम्ब(Virtual Image):- जब वस्तु से चलने वाली किरणें अपवर्तनय ा परावर्तन के पश्चात्मिलती हुई या आभासी रूप से मिलती है तब बने प्रतिबिम्ब को आीाासी प्रतिबिम्ब कहते है। *यह सामान्यतः सीधें होते है तथा इन्हे पर्दे पर प्राप्त नही करते है। नोटः- समतल दर्पण द्वारा वस्तु का पूर्ण प्रतिबिम्ब देखने के लिए आवश्यक हैकि दर्पण की ल. वस्तु की ल. की आधी हो। यदि दर्पण को काले कपडे द्वारा आधा ढक दिया जाए तब वस्तु का पूर्ण प्रतिबिम्ब बनेगा लेकिन तीव्रता पहले की आधी रह जाती है। यह दो प्रकार की होती है। 1.उत्तल दर्पण(Convex Mirror) 2.अवतल दर्पण(Concave Mirror) 1.उत्तल दर्पण(Convex Mirror):- वह गोलीय दर्पण जिसके भीतरी पृष्ठ परावर्तक तल की तरह कार्य करता है। 2.अवतल
दर्पण(Concave Mirror):- वह गोलीय दर्पण जिसके बाहरी पृष्ठ पर पॉलिश होती एवं भीतरी पृष्ठ परावर्तक पृष्ठ की तरह कार्य करता है। 1.वक्रता केन्द्रः- गोलीय दर्पण काँच के खोखले गोले का एक भाग होता है जिसके केन्द्र को वक्रता केन्द्र कहते है। 2.ध्रुव:- दर्पण के मध्य बिन्दू को ध्रूव कहते है। 3.वक्रता त्रिज्याः- दर्पण के ध्रूव की वक्रता केन्द्र से दूरी को वक्रता त्रिज्या कहते है। 4.द्वारक:- दर्पण का वह भाग
या प्रभावी व्यास जिससे प्रकाश का परावर्तन होता है उसे द्वारक कहते है। 5.फोकस बिन्दू (मुख्य फोकस):- मुख्य अक्ष के समान्तर चलने वाली प्रकाश किरणे दर्पण से परावर्तन के पश्चात् मुख्य अक्ष पर जिस बिन्दू पर मिलती है या मिलती हूई प्रतीत होती है उसे मुख्य फोकस कहते है। 6.फोकस दूरीः- दर्पण के ध्रूव एवं मुख्य फोकस के मध्य की दूरी को फोकस दूरी कहते है। 7.फोकस तलः- मुख्य अक्ष लम्बवत स्थित वह तल जो मुख्य अक्ष से गुजरता है उसे फोकस तल कहते है। चिन्ह परिपाटीः- 1.सभी
दूरियाँ दर्पण के ध्रूव से मापी जाती है । 2.आपतित प्रकाश किरण की दिशा में नापी गई सभी दूरीयाँ +ve एव विपरित दिशा में नापी गई दूरिया सदैव -ve होती है। 3.मुख्य अक्ष के लम्बवत ऊपर की ओर मानी गई दूरीया +ve एवं नीचे की ओर मानी गई दूरीया -ve होती है। 1.मुख्य अक्ष के समान्तर जाने वाली प्रकाश किरण परावर्तन के पश्चात् सदैव मुख्य फोकस से गुजरती है या गुजरती हूई प्रतीत होती है। 2.जब प्रकाश किरण फोकस से गुजरकर दर्पण से परावर्तित होती है तब मुख्य अक्ष के समान्तर हो जाती है । 3.जब प्रकाश किरण अवतल दर्पण के वक्रता केन्द्र से गुजरकर दर्पण द्वारा परावर्तित होती है तब पुनः उसी पथ पर लौट आती है। 4.दर्पण के धूव पर प्रकाश किरण जितने कोण पर आपतित होती है उतने ही कोण पर पुन परावर्तित हो जाती है। 1.अवतल
दर्पण से प्रतिबिम्ब निर्माण 2.उत्तल दर्पण के लिए प्रतिबिम्ब 1.जब वस्तु वक्रता
केन्द्र के परे रखी है दर्पण सूत्र(Mirror Thread):– दर्पण के लिए वस्तु की दूरी, प्रतिबिम्ब की दूरी एवं फोकस दूरी के मध्य सम्बन्ध व्यक्त करने वाले समीकरण/सूत्र को दर्पण सूत्र कहते है। फोकस दूरी व वक्रता त्रिज्या में सम्बन्धः- ∠AQC = ∠CQF ∠i = ∠r (परावर्तन नियम) ∠AQC = ∠QCF (एकान्तर कोण) ∠AQC = ∠CQF होगा अत: CF = FQ बिन्दू Q से मुख्य अक्ष पर लम्ब QR डालने पर यदि द्वारक का आकार छोटा है तब बिन्दू Q, P के समीप होगा। PF =QF =F QF =FC व QF = f है PF =QF =FC =
f अत: PC = PF + FC R = f + f R = 2f f= R/2 दर्पण समीकरण(Mirror Equation):– वस्तु की स्थिति
प्रतिबिम्ब की स्थिति
प्रकृति
1. अंनत पर
F पर
बिंदु आकर, वा., उल्टा
2. व C के मध्य
c पर
छोटा, वा., उल्टा
3. c पर
c पर
समान आकर, वा., उल्टा
4. c व f के मध्य
Cव के मध्य
बड़ा, वा., उल्टा
5. F पर
पर
अत्यधिक बड़ा, वा., उल्टा
6. F व धुव के मध्य
दर्पण के पीछे
आभासी, बड़ा, सीधा
यदि m > 1 तब प्रतिबिम्ब(h2) > बिम्ब(h1)
यदि m < 1 तब प्रतिबिम्ब(h2) < बिम्ब(h1)
यदि m = 1 तब प्रतिबिम्ब(h2) = बिम्ब(h1)
m = -ve (प्रतिबिम्ब, वास्तविक, उल्टा)
m = +ve (प्रतिबिम्ब, आभासी, सीधा)
उत्तर:- R=-15cm
u = -10cm
m= -3
वास्तविक, उल्टा, बड़ा
उत्तर:- u = -39m
f = 1 m
v = ?
धावक द्वारा 1sec में तय दूरी =5m है.
u =34m
f=f=1m
v = ?
उत्तर:- v= 100cm
f = 98cm
u = ?
उत्तर:- u = -f
छोटा, सीधा, आभासी
अपवर्तन का कारण(Reason for Refraction):- सब प्रकाश किरण एक माध्यम से दूसरे माध्यम में प्रवेश करती है तब दूसरे माध्यम में प्रकाश की चाल बदल जाती है इस कारण प्रकाश किरण अपनी मूल दिशा से विचलित हो जाती है
आपतन कोण- आपतित किरण तथा अभिलम्ब के मध्य बनने पाले कोण आपतन कोण कहते है एवं अपपर्तित किरण तथा अभिलम्ब के मध्य के कोण को अपपतन कोण कहते है।
अपवर्तन के नियम(Law of Refraction):-
- आपतित किरण, अपवर्तित किरण एवं आपतन बिन्दू परता अभिलम्ब तीनो एक ही तल में स्थित होती है।
- आपतन कोण की ज्या तथा अपवर्तन कोण की ज्या का अनुपात निश्चित होता है जिसे दूसरे माध्यम का दूसरे माध्यम के सापेक्ष अपवर्तनाक कहते है। इसे स्नेल का नियम भी कहा जाता
Note:- अपवर्तन प्रक्रिया में अपवर्तित किरण का वेग, तरंगधैर्य एवं तीव्रता बदल जाती है लेकिन आवृति एवं किरण के रंग मे कोई परिवर्तन नही होता है।
अपवर्तनांक(Refractive Index):
(1).निरपेक्ष अपवर्तनांक(Absolute Refractive Index):- निर्वात या वायु के सापेक्ष माध्यम के अपवर्तनाक को निरपेस अपवर्तनांक कहते है। इसे बया से व्यक्त करते है माध्यम का निरपेक्ष अपवर्तनांक कहते है
इसे μ या n से व्यक्त करते है
(2).सापेक्ष अपवर्तनांक(Relative Refractive Index): एक माध्यम के सापेक्ष दूसरे माध्यम का सापेक्ष अपवर्तनांक कहते हैं ।
दूसरे माध्यम का पहले माध्यम के सापेक्ष अपवर्तनांक –
अर्थात प्रकाश की पहले माध्यम में चाल तथा दूसरे माध्यम में प्रकाश की चाल के अनुपात को 1μ2 कहते है।
दूसरे माध्यम के सापेक्ष पहले माध्यम का अपवर्तनांक
समी (1)×(2) करने पर
Note:- जब प्रकाश किरण विरल से सघन जाती है तब विरल सघन
λ =6000 Å
μ =1.5
v = ? , f = ?
c = 3×108
Vm=c / μ = 3×108 / 1.5 = 2×108m/s
na = c/λa = 3 × 108 / 6000 = 5×1014 Hz
λm=Vm / n
λm=λ / μ = 6000 / 1.5 = 4× 103 Å
⇒
λa=6000Å
λw=4500Å
Ca=3108
C = ?
(1). सूर्य का सूर्यउयय से 2 mins पहले तव्या सूर्यास्त 2min पश्चात भी दिखाई देना सूर्य से नीचे होने पर भी कुछ ऊपर दिखाई देता है क्योंकि उससे चलने वाली प्रकाश किरण जब वायरल माध्यम से सघनन माध्यम से प्रवेश करती है तब वायुमण्डलीय अपवर्तन के काल सतत अभिलम्ब की और झुकती जाती है प्रेक्षक तक पहुँचती है प्रेक्षक को प्रकाश किरणे क्षैतिज के ऊपर से आती हूई प्रतीत होती है इसी कारण सूर्य उदय से 2 मिनट पहले तथा सूर्यास्त के 2 मिनट पश्चात् भी दिखाई देता है।
(2). जल में से भरे गिलास को पेन्दे में रखे सिक्के का ऊपर उठाई दिखाई देना क्योंकि जब सिक्के से निकली प्रकाश किरण जब सघन माध्यम में विरल माध्यम में प्रवेश करती है तब अभिलम्ब से दूर हट जाती है जो पात्र में बिन्दू O से आती हूई प्रतीत होती है। इस प्रकार सक्किा प्रकाशीय अवपवर्तन के कारण आभासी स्थिति O पर दिखाई देता है।
(3).रात्री में तारों का टिमटिमानाः- तारों से आने वाला प्रकाश जब वायुमण्डल से गुजरता है तब वायुमण्डलीय अपवर्तन के कारण प्रकाश किरण की दिशा सतत बदलती है क्योंकि वायुमण्डल के ताप के कारण वायुमण्डलीय धनत्व एवं अपवर्तनांक परिवर्तित होता है। जब अपवर्तित प्रकाश प्रेक्षक के नेत्र तक पहूँचता है जब उसकी स्थिति में सतत परिवर्तन के कारण तब प्रेक्षक को तारे टिमटिमाते दिखाई देते है।
(4).द्रव में आशिंक रूप से डूबी छड का मुडा दिखाई देना:-
सीधी दखी छड OAB का निचला भाग OA द्रव में डूबा है। छड के निचले सीरे O से निकनी किरणे सतह से अपवर्तित होकर अभिलम्ब से दूर हटती है और पीछे की ओर बढाने पर O से आती हूई प्रतीत होती है। इस प्रकार छड का द्रव में डूबा हूआ भाग मूडा दिखाई देता है।
⇒काँच की पट्टिका द्वारा अपवर्तन:-
स्नेल नियम से:-
दूसरी सतह DC के लिए :-
क्रान्तिक कोण(Critical angle):-‘सघन माध्यम से आपतन कोण का वह मान जिस पर विरल माध्यम में अपवर्तन कोण 900 हो जाता है उस आपतन कोण को क्रान्तिक कोण कहते है।
पूर्ण आन्तरिक परावर्तन(Complete Internal Reflection):- जब प्रकाश किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में गमन करती है एवं सघन माध्यम में आपतन कोण क्रान्तिक कोण से अधिक हो जाए तब प्रकाश किरण परावर्तित होकर पूर्ण उसी माध्यम में लौट आती है इसे पूर्ण आन्तरिक परावर्तन कहते है।
पूर्ण आन्तरिक परावर्तन की शर्त(Condition of full Internal Reflection):–
1.प्रकाश किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में गमन करनी चाहिए।
2.आपतन कोण सदैव क्रान्तिक कोण से अधिक हो।
स्नैल नियम में :-
1.हीरे का सचमकनाः- हीरे के लिए क्रान्तिक को ण 24.4 एवं अपवर्तनांक 2.42 होता है। हीरे को इस प्रकार से तराशा जाता है कि जब प्रकाश किरण हीरे के किसी फलक पर आपतित हो तब आपतन कोण i क्रान्तिक कोण ic से कम हो जाता है अजिससे प्रकाश हीरे में प्रवेश कर जाता है अब प्रकाश अन्य फलको पर क्रान्तिक कोण से अधिक कोण पर आपतित होने के कारण बार – बार पूर्ण आन्तरित परावर्तित हो जाता है और बाहर कुछ ही स्थानों से निकल जाता है। इस प्रकार हीरा चमकीला दिखाई देता है।
2. आरीचिका:-
गर्मो के दिनों में पृथ्वी के समीप की वायु विरल एवं ऊपर की औश्र जाने पर सघन होती जाती है जब दूर स्थित किसी ऊँचे पेड या चट्टाने से प्रकाश किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम की ओर गमन करती है तब अभिलम्ब से दूर हट जाती है। एक स्थिति पर जब आपतन कोण क्रान्तिक कोण से अधिक हो जाता है। तब प्रकाश किरण पूर्ण आन्तरिक परावर्तित हो जाती है। और पेड के नीचे से आती हुई प्रतीत होती है जो एक प्रकार का पंेड का प्रतिबिन्ब होता है और ऐसा लगता हैकि प्रड जलाशय के समीप खडा है। इस दृष्टि भ्रम को मरीचिका कहते है। क्योंकि जब व्यक्ति वहा पहूँचता है तब वहा पानी नही होता है।
प्रकाशिक तंतु का उपयोग सूचना संकेतो को लम्बी दूरी तक संचरित करने में किया जाता है। यह पूर्ण आंतरिक परावर्तन के सिद्धान्त पर कार्य करता है। प्रकाशिक तंतु अमणिका सिलिका या फनंतज्र का बना होता है। जिसका व्यास बाल के समान होता है। तंतु के ऊपर वाली परत को कोर एवं बाहरवाली परत को केलेडिंग (आवरण) कहते है। जब कोई प्रकाश किरण तंतु के एक सिरे पर आपतित होती है तब अपवर्तन द्वारा तंतु में प्रवेश कर जाती है और दोनों आवरणों को मिलाने वाले पृष्ठ पर आपतित होती है जहा प्रकाश किरण का पूर्ण आन्तरिक परावर्तन होता है यह परावर्तन प्रकाशिक तन्तु के भीतर बार – बार होता है और प्रकाश किरण अपनी तीव्रता में परिवर्तन किये बिना दूसरे सिरे से बाहर आ जाती है। इस प्रकार संकेतों को लम्बी दूरी तक संचरित किया जाता है।
उपयोगः-
1.सजावटी लैम्पों में
2.सूचना सकेतों को लम्बी दूरी तक भेजने में ।
3.दूरसंचार में संकेतों को प्रषित करने में ।
4.चिकित्सा में अमाशय की एण्डोस्कोपि में।
गोलीय पृष्ठों द्वारा अपवर्तनः- अध्ययन करते समय बिम्ब एवं प्रतिबिन्ब बिन्दू रूप में लिये जाते है। गोलीय दर्पण का द्वारक छोटा लिया जाता है एंव आवर्तन कोण अल्प होने के कारण अन्य सभी कोण भी अल्प होते है।
उत्तल गोलीय पृष्ठ द्वारा अपवर्तन(Refraction By Convex Spherical Surface):-
चित्रानुसार APB उत्तल गोलीय सतह है जिसके दायी ओर सघन माध्यम एवं बायी ओर विरल माध्यम है मुख्य अक्ष पर स्थित बिन्दू वस्तु O का प्रतिबिन्ब I मुख्य अक्ष पर बनता है। मुख्य अक्ष के साथ आपतित किरण, आपवर्तित किरण एवं अभिलम्ब के द्वारा बनाया गया कोण क्रमशः α,β,γ है।
स्नैल के नियम
i व r का मान समी. में रखने पर
द्वारक का व्यास छोटा है अतः बिन्दु M, P के अतिनिकट स्थित होगा
MC= PC, MO=PO, MI= PI
अवतल गोलीय पृष्ठ द्वारा अपवर्तन(Refraction by Concave Spherical Surface):–
स्नैल के नियम
i व r का मान समी. में रखने पर
α, β, γ का मान समीकरण (2) में रखने पर
ये दो प्रकार के होते है।
1.उत्तल लैंस (अभिसारी लैन्स)(Convex Lens):- वह लैंस जो किनारो से पतला एवं बीच से मोटा होता है उत्तल लैंस कहते है।
यह तीन प्रकार के होते है
- द्वित्तल लैन्स
- समतलों लैन्स
- अवतलों उत्तल लैंस
2.अवतल लैन्स:- (अपसारी लैन्स)(Concave Lens):- वह लैन्स जो किनारों से मोटा व बीच से पतला हेात है।
उभयावतल लैन्स
स्मतलों अवतल लैन्स
उतलावतल लैन्स
1.वक्रता केन्द्र:- लैन्स दो गोलीय पृष्ठों को परस्पर मिलाने से बनता है। जिनके केन्द्रों को वक्रता केन्द्र कहते है। एवं दोनों गोलीय पृष्ठों के केिन्द्रों को मिलाने वाली सरल रेखा को मुख्य अक्ष कहते हैै।
पतला लैन्सः- वह लैन्स जिसकी मोटाई लैंस के वक्रीय त्रिज्या की तुलना में नगण्य होती है उसे पतला लैन्स कहते है।
प्रकाशिक केन्द्रः- लैन्स के मुख्य अक्ष पर केन्द्र के भीतर या बाहर स्थित वह बिन्दू जिससे गुजरने वाली पकाश किरण बिना विचलिए हूए सीधे निकल जाती है उसे प्रकाशिक केन्द्र कहते है।
यदि लैन्स मोटा है तब आपतित एवं निर्गत किरण एक दूसरे के समान्तर हो जाता है।
मुख्य फोकसः- लैन्स के मुख्य अक्ष के समान्तर चलने वाली प्रकाश किरणें अपवर्तन के पश्चात्् जिस बिन्दू पर मिलती है या मिलती हूई प्रतीत होती है उसे मुख्य फोकस कहते है।
द्वितीयक फोकसः- लैन्स के मुख्य अक्ष पर स्थित वह बिन्दू सजिससे गुजरने के पश्चात् प्रकाश किरणें लैन्स अपवर्तित होकर मुख्य अक्ष के समान्तर हो जाती है उसे द्वितीयक फोकस कहते है।
फोकस दूरी:- लैन्स के प्रकाशिक केन्द्र एवं फोकस बिन्दू के मध्य दूरी उत्तल लैन्स के लिए धनात्मक एवं अवतल लैन्स के लिए ऋणात्मक होती है।
फोकस तल:- मुख्य अक्ष के लम्बवत् एवं फोकस से गुजरने वाले उर्ध्वाधर तल को फोकस तल कहते है।
लैन्स द्वारा प्रतिबिन्ब निर्माण:-
मुख्य अक्ष के समान्तर चलने वाली प्रकाश किरण अपवर्तन के पश्चात्मुख्य फोक से गुजरती है।
फोकस से गुजरने वाली प्रकाश किरण अपवर्तन के पश्चात्मुख्य के समान्तर हो जाती है।
लैन्स के प्रकाशित केन्द्र से गुजरने वाली प्रकाश किरण बिना विचलित हुए सीधे निकल जाती है।
पतले लैन्स द्वारा अपवर्तन:- (लैन्स मेकर सूत्र)
गोलीय पृष्ठ के लिए अपवर्तन का सूत्र
गोलीय पृष्ठ M.P.N द्वारा अपवर्तन
गोलीय पृष्ठ MPN के द्वारा बना प्रतिबिम्ब I’ दूसरी सतह MP2N के लिए बिम्ब की तरह कार्य करता है और सतह MP2N के द्वारा अंतिम प्रतिबिम्ब I है।
तब पृष्ठ के MP2N अपवर्तन के लिए
समी.(1)+(2) करने पर
यदि बिम्ब अनंत पर स्थित μ=∞ तब v=f होगा।
इसे लैन्स निर्माता सूत्र (लैन्स मेकर सूत्र) कहते है।
1.जब प्रकाश किरण वायु से काँच में जाती है तब
2.यदि लैन्स को किसी द्रव में रख दिया जाए तब द्रव में लैन्स की फोकस दूरी
3.उत्तल लैंस के लिए R1 = धनात्मक एवं R2= ऋणात्मक जबकि अवतल लैंस के लिए R1 =ऋणात्मक, R2 =धनातमक
4.समतलोत्तल लैंस के लिए R1= ∞ एवं R2= ऋणात्मक ठीक इसी प्रकार समतलोअवतल लैंस के लिए R1= ∞ एवं R2= धनात्मक मान होगा।
5.यदि लैंस को ऐसे द्रव में डूबों दिया जाब जिसका अपवर्तनांक लैंस के पदार्थ के अपवर्तनांक के समान होता है तब लैंस दिखाई नहीं देता और वह समतल प्लेठ की तरह कार्य करता है।
6.यदि लैंस को ऐसे द्रव में डूबो दिया जाए जिसका अपवर्तनांक लैंस के पदार्थ के अपवर्तनांक से कम है तब लैंस की फोकस दूरी बढ जाती है लेकिन उसकी प्रकृति नही बदलती है।
7.यदि लैंस को ऐस द्रव में डूबो दिया जाए जिसका अपवर्तनांक लैंस के पदार्थ के अपवर्तनांक से अधिक है तब लैंस की फोकस दूरी व प्रकृति दोनों बदल जाती है। (अवतल – उत्त्ल की तरह)
समीकरण (1) में (2) का भाग देने पर
समीकरण (2) में (1) का भाग देने पर
लैंस सूत्र
रैखिक आवर्धक-
लैन्स के लिए वस्तु की दूरी प्रतिबिम्ब की दूरी एवं लैन्स की फोकस दूरी के मध्य सम्बन्ध व्यक्त करने वाले सूत्र को लैन्स सूत्र कहते है।
ΔABO व ΔA’B’O की तुलना करने पर
∠ABO =∠A’B’O =90°
∠AOB =∠A’OB’ (शीर्षाभिमुख कोण)
अतः ∠BAO = ∠B’A’O होगा
ΔABO ∼ ΔA’B’O
इसी प्रकार ΔMOF2 व ΔA’B’F2 की तुलना करने पर
∠MOF2 =∠A’B’F2 =90°
∠MF2O =∠A’F2B’ (शीर्षाभिमुख कोण)
अतः ∠OMF2 = ∠B’A’F2 होगा
ΔMOF2 ∼ ΔA’B’F2
समीकरण (1) व (2) से
⇒सम्पर्क में रखे दो पतले लैन्सों के संयोजन की फोकस दूरीः-
पहले पतले लैन्स P1 के लिए लैन्स सूत्र
पहले पतले लैन्स P के द्वारा वस्तु O का बना प्रतिबिम्ब I’ दूसरे लैन्स P2 के लिए वस्तु की तरह कार्य करता है और अन्तिम प्रतिबिम्ब I बनता है।
समीकरण (1) + (2) पर
Case I:- यदि संयोजन की फोकस दूरी -ve है तब संयोजित लैंस अवतल लैंस की तरह कार्य करता है और यदि संयोजन की फोकस दूरी +ve तब वह उत्तल लैंसक F तरह कार्य करता है।
Case II:-यदि संयोजन में प्रयुक्त एक लैंस उत्तल एवं एक लैंस अवतल है तब परिणामी फोकस दूरी अनंत हो जाती है और लैंस एक प्लेट की तरह कार्य करती है।
लैंस के द्वारा प्रकाश किरणों को अपसारित या अभिसारित करने की क्षमता को लैंस क्षमता कहते है या लैंस के द्वारा प्रकाश किरणों को मोडने कि क्षमता को लैंस की क्षमता कहते है।
गणितीय रूप में लैंस की फोकस दूरी के व्युत्क्रम को लैंस की क्षमता कहते है।
यदि लैंस की फोकस दूरी 1m है तब उसकी क्षमता 1 डायोप्टर कहलाती है।
लैंसों के संयोजन के लिए क्षमता P = P1 + P2 +…
यदि फोकस दूरी -ve है तब लैंस की क्षमता -ve एवं +ve होने पर +ve होगी।
P1 = 15D
P2 = -5D
P = 10D (उत्तल लैंस)
(वास्तविक , उल्टा , छोटा)
प्रिज्म मेें अपवर्तक पृष्ठों के मध्य बनने वाले कोण को प्रिज्म कोण या अपवर्तक कोण कहते है। प्रिज्म के जिन पृष्ठों से अपवर्तन होता है, उन्हे अपवर्तक पृष्ठ कहते है।
अपवर्तक पृष्ठों के लम्बवत् प्रिज्म के मुख्य काट को या परिच्छेद को प्रिज्म का मुख्य परिच्छेद कहते है।
चित्रानुसार प्रिज्म ABC के अपवर्तक पृष्ठ AB पर PQ आपतित किरण है जो QR दिशा में अपवर्तित होकर दूसरे पृष्ठ AC पर आपतित होती है और RS दिशा में निर्गत हो जाती है।
N1QU तथा N2RU पृष्ठ AB एवं ACअभिलम्ब है। अपतित किरण PR एवं निर्गत किरण RS के मध्य बनने वाले कोण को विचलन कोण कहते है।
A = प्रिज्म कोण QR = अपवतित किरण
δ = विचलन कोण i = आपतन कोण
e = निर्गत कोण r = अपवर्तन कोण
PQ = आपतित कोण
स्नैल के नियम से
ΔQUR से
r1 + r2 + ∠QUR= 180º ………………………………(2)
चतुर्भुज AQUR से
A + ∠AQU + ∠QUR + ∠ARU = 360º
A + 90º + ∠QUR + 90º = 360º
A + ∠QUR = 180º ……………………………………(3)
समीकरण (2) व (3) से
A + ∠QUR = r1 + r2 + ∠QUR
A = r1 + r2 ………………………………………………(4)
ΔTQR से
δ = ∠TQR + ∠TRQ
δ = (i-r1) + (e-r2)
δ = (i+e) – (r1+r2)
समीकरण (4) से r1+r2 का मान रखने पर
δ = (i+e) – A ……………………………………..(5)
समीकरण (4) से स्पष्ट है कि विचलन कोण δ आपतन कोण i पर निर्भर है।
ग्राफ से स्पष्ट है कि प्रारम्भ में आपतन कोण बढाने पर विचलन कोण घटता है और आपतन कोण के एक मान पर न्यूनतम हो जाता है, जिसे न्यूनतम विचलन कोण कहते है।
इसके पश्चात् आपतन कोण बढाने पर विचलन कोण बढता है।
न्यूनतम विचलन के अवस्था में i = e तथा r1 = r2 होता है तब आपतित किरण निर्गत किरण की तरह कार्य करती है।
समीकरण (5) से
δm = (i+i) – A
δm = 2i – A ………………………………………….(6)
2i = δm + A
समीकरण (4) से
A = r + r
A = 2r
r = A / 2 …………………………………………….(8)
समीकरण (1), (7),(8) से
जब सूर्य को प्रकाश (श्वेत प्रकाश) प्रिज्म पर आपतित होता है तब अपवर्तन प्रक्रिया द्वारा वह अपने घटक रंगों में विभक्त हो जाता है इसे वर्ण विक्षेपण कहते है एवं इस प्रक्रिया से प्राप्त घटक रंगों के प्रकाश को पर्दा पर प्राप्त करने पर रंगों के व्यवस्थित क्रम केा स्पेक्ट्रम कहते है।
सात रंगों में बैगनी रंग का विचलन सबसे अधिक व लाल रंग का विचलन सबसे कम होता है क्योंकि माध्यम के लिए बैगनी रंग का अपवर्तनांक बैगनी रंग से अधिक होता है ।
δ = (μ – 1) A
δv = (μV – 1) A …………………………………..(1)
δR = (μR – 1) A ………………………………….(2)
समीकरण (1) में (2) का भाग देने पर
जैसेः बैगंनी तथा लाल रंग के लिएः-
θ = δv – δR
δ = (μ – 1) A
δv = (μV – 1) A
δR = (μR – 1) A
θ = (μV – 1) A – (μR – 1) A
θ = μV A – A – μR A – A
θ = μV A – μR A
θ = (μV – μR )A