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Bihar D.El.Ed General Hindi Mock Test
10 Questions 30 Marks 10 Mins
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Last updated on Oct 19, 2022
Bihar D.El.Ed. Result and Answer Key has been released for the exam conducted between14th to 20th September 2022. Now, the candidates can apply for admission to the Diploma in Elementary Education (D.El.Ed) course offered by the participating universities in Bihar. Candidates who qualify the Bihar D.El.Ed Joint Test 2022 will be eligible for admission to the 2022-2024 session of the D.El.Ed course. Candidates who have passed class 12th are eligible to to appear for this exam. Know the Bihar D.El.Ed. Exam Analysis for the future exams.
पाषाण युग (७०००–३००० ई.पू.)
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कांस्य युग (३०००–१३०० ई.पू.)
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लौह युग (१२००–२६ ई.पू.)
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मध्य साम्राज्य (२३० ई.पू.–१२०६ ईसवी)
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देर मध्ययुगीन युग (१२०६–१५९६ ईसवी)
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प्रारंभिक आधुनिक काल (१५२६–१८५८ ईसवी)
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औपनिवेशिक काल (१५०५–१९६१ ईसवी)
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श्रीलंका के राज्य
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राष्ट्र इतिहास
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क्षेत्रीय इतिहास
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विशेष इतिहास
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श्रृंखला का भाग |
किराँत काल |
लिच्छवि काल |
मल्ल काल |
शाह काल |
(राणा काल) |
नेपाल का जनआन्दोलन १९९० |
नेपाल का जनयुद्ध |
नेपाल का जनआन्दोलन २००६ |
वर्तमान नेपाल |
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नेपाल का इतिहास भारतीय साम्राज्यों से प्रभावित हुआ पर यह दक्षिण एशिया का एकमात्र देश था जो ब्रिटिश उपनिवेशवाद से बचा रहा। हँलांकि अंग्रेजों से हुई लड़ाई (1814-16) और उसके परिणामस्वरूप हुई संधि में तत्कालीन नेपाली साम्राज्य के अर्धाधिक भूभाग ब्रिटिश इंडिया के तहत आ गए और आज भी ये भारतीय राज्य उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम और पश्चिम बंगाल के अंश हैं।
प्रागैतिहासिक काल[संपादित करें]
हिमालय क्षेत्र में मनुष्यों का आगमन लगभग ९,००० वर्ष पहले होने के तथ्य की पुष्टि काठमाण्डौ उपत्यका में पाये गये नव पाषाण औजारौं से होती है। सम्भवतः तिब्बती-बर्मीज मूल के लोग नेपाल में २,५०० वर्ष पहले आ चुके थे।[1]
प्राचीन काल[संपादित करें]
१५०० ईशा पूर्व के आसपास इन्डो-आर्यन जतियों ने काठमाण्डौ उपत्यका में प्रवेश किया। करीब १००० ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्यसंगठन बनें। सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व ५६३–४८३) शाक्य वंश के राजकुमार थे, जिन्होंने अपना राजकाज त्याग कर तपस्वी का जीवन निर्वाह किया और वह बुद्ध बन गए।
नेपाल का प्राचीन काल सभ्यता, संस्कृति और र्शार्य की दृष्टि से बड़ा गौरवपूर्ण रहा है। प्राचीन काल में नेपाल राज्य की बागडोर क्रमश: गुप्तवंश किरात वंशी, सोमवंशी, लिच्छवि, सूर्यवंशी राजाओं के हाथों में रही है। किरात वंशी राजा स्थुंको, सोमवंशी लिच्छवी, राजा मानदेव, राजा अंशुवर्मा के राज्यकाल बड़े गौरवपूर्ण रहे हैं। कला, शिक्षा, वैभव और राजनीति के दृष्टिकोण से लिच्छवि काल 'स्वर्णयुग' रहा है। जन साधारण संस्कृत भाषा में लिखपढ़ और बोल सकते थे। राजा स्वयं विद्वान् और संस्कृत भाषा के मर्मज्ञ होते थे। 'पैगोडा' शैली की वास्तुकला बड़ी उन्नत दशा में थी और यह कला सुदूर महाचीन तक फैली हुई थी। मूर्तिकला भी समृद्ध अवस्था में थी। धार्मिक सहिष्णुता के कारण् हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म समान रूप से विकसित हो रहे थे। काफी वजनदार स्वर्णमुद्राएँ व्यवहार में प्रचलित थीं। विदेशों से व्यापार करने के लिए व्यापारियों का अपना संगठन था। वैदेशिक संबंध की सुदृढ़ता वैवाहिक संबंध के आधार पर कायम थी।
ई. सन् 880 में लिच्छवि राज्य की समाप्ति पर नुवाकोटे ठकुरी राजवंश का अभ्युदय हुआ। इस समय नेपाल राज्य की अवनति प्रारंभ हो गई थी। केंद्रीय शासन शिथिल पड़ गया था। फलत: नेपाल अनेक राजनीतिक इकाइयों में विभाजित हो गया। हिमालय के मध्य कछार में मल्लों का गणतंत्र राज्य कायम था। लिच्छवि शासन की समाप्ति पर मल्ल राजा सिर उठाने लगे थे। सन् 1350 ई. में बंगाल के शासक शमशुद्दीन इलियास ने नेपाल उपत्यका पर बड़ा जबरदस्त आक्रमण किया। धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था अस्तव्यस्त हो गयी। सन् 1480 ई. में अंतिम वैश राजा अर्जुन देव अथवा अर्जुन मल्ल देव को उनके मंत्रियों ने पदच्युत करके स्थितिमल्ल नामक राजपूत को राजसिंहासन पर बैठाया। इस समय तक केंद्रीय राज्य पूर्ण रूप से छिन्न-भिन्न होकर काठमाडों, गोरखा, तनहुँ, लमजुङ, मकबानपुर आदि लगभग तीस रियासतों में विभाजित हो गया था।
भारतीय साम्राज्यों का प्रभाव[संपादित करें]
२५० ईशा पुर्व तक ईस क्षेत्र में उत्तर भारत के मौर्य साम्राज्य का प्रभाव पडा। इस क्षेत्र में ५वी शताब्दी के उत्तरार्ध में आकर वैशाली के लिच्छवियो के राज्य की स्थापना हुई। ८वी शताव्दी के उत्तरार्ध में लिच्छवि वंश का अस्त हो गया और सन् ८७९ से नेवार (नेपाल की एक जाति) युग का उदय हुआ, फिर भी इन लोगों का नियन्त्रण देशभर में कितना बना था, इसका आकलन कर पाना मुश्किल है। ११वी शताब्दी के उत्तरार्ध में दक्षिण भारत से आए चालुक्य साम्राज्य का प्रभाव नेपाल के दक्षिणी भूभाग में दिखा। चालुक्यों के प्रभाव में आकर उस समय राजाओं ने बुद्धधर्म को छोडकर हिन्दू धर्म का समर्थन किया और नेपाल में धार्मिक परिवर्तन होने लगा।
पाटन का हिन्दू मन्दिर, तीन प्राचीन राज्य मध्येका एककी राजधानी
मध्यकाल[संपादित करें]
१३वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में संस्कृत शब्द मल्ल कुलनाम वाले राजवंश का उदय होने लगा। २०० वर्ष में इन राजाओं ने शक्ति एकजुट की। १४वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में देश का बहुत ज्यादा भाग एकीकृत राज्य के अधीन में आ गया। लेकिन यह एकीकरण कम समय तक ही टिक सका। १४८२ में यह राज्य तीन भाग में विभाजित हो गया - कान्तिपुर, ललितपुर और भक्तपुर – जिसके बीचमे शताव्दियौं तक मेल नहीं हो सका।
राजा स्थिति मल्ल अस्तव्यस्त आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने में पूर्ण रूप से समर्थ हुए। राजा पक्षमल्ल ने केंद्रीय शासन को सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया, किंतु उनके निधन पर पश्चात् उनके उत्तराधिकारियों ने राज्य को आपस में बाँटकर पुन: राजनीतिक इकाइयाँ खड़ी कीं। मध्यकालीन नेपाल साहित्य, संगीत और कला की दृष्टि से उन्नत होने पर भी राजनीतिक दृष्टि से अवनति की ओर ही बढ़ा। जनजीवन अशांत था। यूरोपीय साम्राज्यवादियों की कुदृष्टि भारत के पश्चात् नेपाल पर भी पड़ गई थी। नेपाल के विरुद्ध किनलोक का सैनिक अभियान और उपत्यका में ईसाई पादरियों की चहल पहल इस तथ्य के प्रमाण हैं।
गोरखा राज्य इन दिनों काफी सबल हो चुका था। नेपाल की छोटी छोटी राजनीतिक इकाइयों पर और नेपाली जनजीवन पर गोरखा राज्य का प्रभाव छा गया था। न्यायमूर्ति राजा रामशाह के न्याय की चर्चा नेपाल भर में फैल गयी थी। राजा पृथ्वीपति शाह के राज्यकाल में बंगाल के नवाब ने गुर्गिन खाँ के नेतृत्व में नेपाल पर आक्रमण करने के लिए पचास साठ हजार फौज भेजी थी। नवाब की सेना मकवानपुर के तराई क्षेत्र में पड़ाव डाले हुई थी। मकबानपुर ने गोरखा राज्य से सहायता की याचना की। गोराखा के कुछ जवानों ने नवाब की सेना को गाजर मूली की तरह काट डाला। बचे हुए सैनिक अपनी जान बचाकर भाग निकले।
उपर्युक्त इन दो कारणो से गोरखा राज्य नेपाली जनजीवन के सुखद भविष्य का आशाकेंद्र हो गया था। जनजीवन की इस आकांक्षा को नेपाल राष्ट्र के जनक महाराजाधिराज पृथ्वीनारायण शाह ने समझा और नेपाल के एकीकरण के लिए अभियान प्रारंभ किया। जिस प्रकार यूरोप में सार्डिनिया राज्य ने इटली का और प्रशा राज्य ने जर्मनी का एकीकरण किया, उसी प्रकार गोरखा राज्य ने पृथ्वीनारायण शाह के नेतृत्व में नेपाल का एकीकरण किया।
मध्यकालीन नेपाल के अंतिम चरण में अर्थात् राष्ट्र के जनक पृथ्वीनारायण शाह के उदय होने से पूर्व विदेशी लोग नेपाल पर दाँत गड़ाने लगे थे। नेपाल उपत्यका में पादरी लोग ईसाई धर्म का प्रचार करने लगे थे। मल्ल राजा आपसी फूट-वैमनस्य, झगड़ा, युद्ध आदि बातों में निरंतर व्यस्त थे।
नेपाल उपत्यका के बाहर के राज्य भी आपस में लड़-झगड़कर अपनी जन-धन-शक्ति को क्षीण कर रहे थे। राजाओं ने आपसी झगड़े, मल्ल राजाओं द्वारा देव-मंदिर की संपत्ति का व्यक्तिगत उपभोग, राजा भास्कर मल्ल द्वारा हिंदू भावना के विरुद्ध एक मुसलमान को प्रधान मंत्री बनाने का कार्य आदि मध्यकालीन राजनीतिक स्थिति को धूमिल बनाते हैं और साथ ही नेपाल की सार्वभौम स्वतंत्रता को अधर में डाल देते है। जिस प्रकार शमशुद्दीन इलियास के आक्रमण के पश्चात् राजा स्थितिमल्ल ऐतिहासिक आवश्यकता के रूप में दिखाई पड़ते हैं उसी प्रकार साम्राज्यवादियों से नेपाल का बचाने वाले के रूप में पृथ्वीनारायण शाह ऐतिहासिक आवश्यकता स्वरूप दिखलाई पड़ते हैं। गोरखों ने 1790 में तिब्बत पर आक्रमण किया किंतु यह आक्रमण नेपाल को महँगा पड़ा। चीन ने 1791 में तिब्बत का पक्ष लेकर अपनी सेनाएँ नेपाल में प्रविष्ट करा दीं और 1792 में गोरखों को संधि करने पर विवश किया। इसी वर्ष ग्रेट ब्रिटेन और नेपाल में द्वितीय वाणिज्य संधि संपन्न हुई और नेपाल में एक अंग्रेज कूटनीतिज्ञ की नियुक्ति की व्यवस्था हो गई। भारत नेपाल सीमा विवाद के समय 1814 में ब्रिटेन ने नेपाल के विरूद्ध युद्ध छेड़ दिया। मार्च 1816 में नेपाल ने अपनी कुछ भूमि अंग्रेजों को दे दी और काठमांडू में अंग्रेजी रेजीडेंसी की स्थापना हो गई। 1857 के भारतीय 'सिपाही विद्रोह' में नेपालके तत्कालीन प्रधान मंत्री जंगबहादुर ने अंग्रेजी सेना की सहायता के लिए 12000 सैनिक भेजे।
धर्मविरोधी, जातिविरोधी तथा राष्ट्रविरोधी कार्यों ने सच्चे नेपाली के मन में सुदृढ़ नेपाल राष्ट्र खड़ा करने की भावना को जन्म दिया। नेपाल की छिन्न-भिन्न राजनीतिक इकाइयों को एक सूत्र में बाँधकर नेपाल राष्ट्र खड़ा करने के लिए वहाँ की राजनीतिक इकाइयों का एकीकरण हुआ।
आधुनिक काल[संपादित करें]
एकीकरण[संपादित करें]
१७६५मे, गोरखाके शाहवंशी राजा पृथ्वी नारायण शाह ने नेपाल के छोटे छोटे बाइसे व चोबिसे राज्यके ऊपर चढाँइ करतेहुए एकिकृत किया, बहुत ज्यादा रक्तरंजित लडाँईयौं पश्वात उन्हौने ३ वर्ष बाद कान्तीपुर, पाटन व भादगाँउ के राजाओं को हराया और अपने राज्य का नाम गोरखा से नेपाल में परिवर्तित किया। कान्तिपुर तविजयके लिये तीन बार युद्ध थाकरना पडा, महान्पि सेनानायक कालू पाण्डे भी इसि युद्ध में सहिद हो गए। अौर पृथ्वीनारायण शाहने कूटनीति अपनाकर उपत्यका बाहरके देशों से लडाइँ कि अौर कीर्तिपुर में नाकाबन्दी कर दिया, पानीका मूल भी बन्द करदिया अन्तिम या तिसरी बार में उन्हे कान्तिपुर विजय में कोई युद्ध नहीं करना पड़ा। वास्तव में, उस समय इन्द्रजात्रा पर्व में कान्तिपुर की सभी जनता फसल के देवता भगवान इन्द्र की पूजा और महोत्सव (जात्रा) मना रहे थे, जब पृथ्वी नारायण शाह ने अपनी सेना लेकर धावा बोला और सिंहासन कब्जा कर लिया। इस घटना को आधुनिक नेपाल का जन्म भी कहते है।
अंग्रेज़ों से संघर्ष[संपादित करें]
तिब्बत से हिमाली (हिमालयी) मार्ग के नियन्त्रण के लिए हुआ विवाद और उसके पश्चात युद्ध में नेपाली सैनिक मानसरोवर से आगे तक बढ चुक़े थे लेकिन तिब्बत की सहायता के लिए चीन के आने के बाद नेपाल पीछे हट गया।
आधुनिक नेपाल की नींव नेपाल राष्ट्र के एकीकरण से और साम्राज्यवाद के विरोध से निर्मित हुई है। पृथ्वी नारायण शाह के निधन के पश्चात् ही ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने नेपाल पर फिर दाँत गड़ाये और नेपाल के विरुद्ध सैनिक अभियान किया। सिगौली संधि के द्वारा राज्य की सीमा छोटी कर दी गई और नेपाल में रेजिडेंट रहने लगा। पृथ्वीनारायण शाह के चौथे वैधानिक उत्तराधिकारी श्री 5 राजेंद्र विक्रम शाह ने भारत के सिख, मराठे और मुगलों तथा वर्मा, चीन और अफगानिस्तान में अपने राजदूतों को गुप्त रूप से भेजकर यूरोपीय साम्राज्यवादियों के विरुद्ध एक होकर युद्ध करने के लिए आह्वान किया था।
नेपाल की सीमा के नजदीक का छोटे-छोटे राज्यों को हड़पने के कारण से शुरु हुआ विवाद ब्रिटिश इस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ दुश्मनी का कारण बना। इसी वजह से १८१४–१६ रक्तरंजित एंगलो-नेपाल युद्ध हो गया। इस युद्ध में नेपाल ने नालापानी गढी तथा अलमोडा में विलायती सैनिकों की बड़ी क्षति पहुँचाया था लेकिन नेपाली सैनिक कमाण्डर के इच्छा विपरित नेपाल नरेश ने सन्धिका प्रस्ताव किया जिसमे नेपाल को अपनी दो तिहाई भूभाग से हाथ धोना पड़ा लेकिन अपनी सार्वभौमसत्ता और स्वतन्त्रता कायम रखा। भारतवर्ष में यही एक खण्ड है जो कभी भी किसी बाहरी सामन्तौं (उपनिवेशों) के अधीन में नहीं आया। विलायत से लड्ने में पस्चिम में सतलज से पुर्व में टिष्टा नदी तक फैला हुआ बिशाल नेपाल सुगौली सन्धि के बाद पश्चिम में महाकाली और मेची नदियों के बीच सिमट गया लेकिन अपनी स्वाधीनत को बचाए रखने में नेपाल सफल रहा, बाद में अंग्रेजो ने १८२२ में मेची नदी व राप्ती नदी के बीच की कुछ तराई का हिस्सा नेपाल को वापस किया उसी तरह १८६० में राणा प्रधानमन्त्री जंगबहादुर से खुश होकर अंग्रेजो ने राप्तीनदी से माहाकाली नदी के बीच का तराई का थोडा और हिस्सा नेपाल को लौटाया। लेकिन सुगौली सन्धी के बाद नेपाल ने जमीन का बहुत बड़ा हिस्सा गँवा दिया यह क्षेत्र अभी उत्तरांचल राज्य और हिमांचल प्रदेश और पंजाबी पहाडी राज्य मैं सम्मिलित है। पूर्व मैं दार्जीलिङ और उसके आसपासका नेपाली मूल के लोगों का भूमि (जो अब पश्चिम बंगाल में है) भी ब्रिटिस इन्डिया के अधीन में हो गया तथा नेपाल का सिक्किम के उपरका प्रभाव और शक्ति भी नेपाल को त्यागना पडा।
राजशाही[संपादित करें]
नेपाली राज परिवार व भारदारोके विच गुटबन्दी की वजहसे युद्धके बाद अस्थायित्व कायम हुआ। शन् १८४६मा शासन कररही रानीकी सेनानायक जंगबहादुर राणाको पदच्युत करने षडयन्त्रकी खुलासा होनेसे कोत पर्व नामका नरसंहार हुआ। हतियारधारी सेना व रानीकेप्रति वफादार भाइ-भारदाररोकेविच मारकाट चलनेसे देशके सयौँ राजखलाक, भारदारलोग व दुसरे रजवाडो का हत्याहुवा। जंगबहादुरकी जितके बाद राणा वंश उन्होने सुरुकिया व राणा शासन लागु किया। राजाको नाममात्रमे सिमित किया व प्रधानमन्त्री पदको सक्तिशाली वंशानुगत किया गया। राणाशासक पूर्णनिष्ठाके साथ ब्रिटिसके पक्षमे रहतेथे व ब्रिटिसशासकको १८५७की सेपोई रेबेल्योन (प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम), व बादमे दोनो विश्व युद्धसहयोग कियाथा। शन् १९२३मे संयुक्त अधिराज्य व नेपाल विच आधिकारिक रुपमे मित्रताकी सम्झौतामे हस्ताक्षर हुआ , जिसमे नेपलकी स्वतन्त्रता को संयुक्त अधिराज्य ने स्वीकार किया। दक्षिण एशियाई मुल्कों में पहला, नेपाली राजदुतावास ब्रिटेन की राजधानी लंडन में खुल गया।
१९४० दशक के उत्तरार्ध में लोकतन्त्र-समर्थित आन्दोलनों का उदय होने लगा व राजनैतिक पार्टियां राणा शासनके विरुद्ध में हो गए। उसी समय चीन ने १९५० में तिब्बत पर कब्जा कर लिया जिसकी वजहसे बढ़ती हुई सैनिक गतिविधि को टालने के लिए भारत नेपाल की स्थायित्व पर चाख बनाने लगा। फलस्वरुप राजा राजा त्रिभुवन को भारत ने समर्थन किया १९५१ में सत्ता लेने में सहयोग किया, नयाँ सरकार का निर्माण हो गया, जिसमें ज्यादा आन्दोलनकारी नेपाली कंग्रेस पार्टि के लोगो की सहभागिता थी। राजा व सरकार के बीच वर्षों की शक्ति खींचातानी के पश्चात, १९५९मे राजा महेन्द्र ने लोकतान्त्रिक अभ्यास अन्त किया व "निर्दलिय" पंचायत व्यवस्था लागु करके राज किया। सन् १९८९के "जनआन्दोलन"ने राजतन्त्रको सांवैधानिक सुधार करने व बहुदलिय संसद बनाने का वातवरणा बनगया सन १९९०मा कृष्णप्रसाद भट्टराई अन्तरिम सरकारके प्रधानमन्त्री बनगए, नयाँ संविधानका निर्माण हुआ राजा वीरेन्द्र ने १९९० में नेपालके इतिहासमे दूसरा प्रजातन्त्रिक बहुदलीय संबिधान जारी किया[2] व अन्तरिम सरकार ने संसद के लिए प्रजातान्त्रिक चुनाव करवाए। नेपाली कंग्रेसल ने राष्ट्र की दुसरी प्रजातन्त्रीक चुनाव में बहुमत प्राप्त किया व गिरिजा प्रसाद कोइराला प्रधानमन्त्री बने।
२१वीं सदी और प्रजातंत्र[संपादित करें]
इक्कसवीं सदी की शुरुआत में नेपाल में माओवादियों का आन्दोलन तेज होता गया। मधेशियों के मुद्दे पर भी आन्दोलन हुए। अन्त में सन् 2008 में राजा ज्ञानेन्द्र ने प्रजातांत्रिक चुनाव करवाए जिसमें माओवादियों को बहुमत मिला और प्रचण्ड नेपाल के प्रधानमंत्री बने और मधेशी नेता रामबरन यादव ने राष्ट्रपति का कार्यभार सम्हाला।
निरन्तर रूप से राजा-रजवाड़ों के अधीन में रहकर फूट और मिलन का लम्बा तथा सम्पन्न इतिहास वाला, हाल में नेपाल के नाम से प्रसिद्ध, यह भूखण्ड में विक्रम संवत २०४६ साल के आन्दोलन के पश्चात संवैधानिक राजतन्त्र की नीति से अवलम्बित हुआ। लेकिन इसके पश्चात भी राजसंस्था एक महत्त्वपूर्ण तथा अस्पष्ट परिधि एवं शक्ति सम्पन्न संस्था के रूप में प्रस्तुत हुआ। इस व्यवस्था में पहले संसदीय अनिश्चितता तथा सन् १९९६ से ने.क.पा.(माओवादी) के जनयुद्ध के कारण से राष्ट्रिय अनिश्चितता दिख्ने लगा। माओवादिओं ने राजनीति के मूलाधार से पृथक भूमिगत रूप से राजतन्त्र तथा मूलाधार के राजनैतिक दलों के विरुद्ध में गुरिल्ला युद्ध संचालन कर दिया। उन्होंने नेपाल की सामन्ती व्यवस्था (उन के अनुसार इसमें राजतन्त्र भी शामिल है) फेंक कर एक माओवादी राष्ट्र स्थापना करने का प्रण किया। इसी कारण से नेपाली गृहयुद्ध शुरु हो गया जिसके कारण १३,००० लोगों की जान गई। इसी विद्रोह को दमन करने की पृष्ठभूमि में राजा ज्ञानेन्द्र ने सन् २००२ में संसद को विघटन तथा निर्वाचित प्रधानमन्त्री को अपदस्थ करके प्रधानमन्त्री मनोनित प्रक्रिया से शासन चलाने लगे। सन् २००५मै उन्हौंने एकल रूपमै संकटकाल का घोषणा करके सब कार्यकारी शक्ति ग्रहण किया। सन् २००६ के लोकतान्त्रिक आन्दोलन (जनाअन्दोलन-२) के पश्चात राजा ने देश की सार्वभौम सत्ता जनता को हस्तान्तरित की तथा २४ अप्रैल २००६ को संसद की पुनर्स्थापना हुई। १८ मई २००६ को अपनी पुनर्स्थापित सार्वभौमिकता का उपयोग करके नए प्रतिनिधि सभा ने राजा के अधिकार में कटौती कर दी तथा नेपाल को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित कर दिया। नवनिर्वाचित संविधान निर्माण करने वाली संविधान सभा की पहली बैठक द्वारा २८ मई २००८ में नेपाल को आधिकारिक रूप में एक सन्घीय गणतन्त्रात्मक राष्ट्र घोषित किया गया।
सन्दर्भ[संपादित करें]
- ↑ "A Country Study: Nepal". Federal Research Division, Library of Congress. मूल से 31 दिसंबर 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि सितंबर 23 2005.
- ↑ "Timeline: Nepal". बीबीसी न्यूज़. मूल से 3 मार्च 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि सितंबर 29 2005.
देखिए[संपादित करें]
- नेपाल के शासक
- नेपाल के प्रधानमन्त्री
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
- नेपाल का इतिहास Archived 2020-09-30 at the Wayback Machine (विस्फोट_डॉट_कॉम)
- नेपाल का इतिहास (गूगल पुस्तक ; लेखक - काशीप्रसाद श्रीवास्तव)
- नेपाल में राजशाही और शाहवंश का इतिहास