लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज़ :
550.12 MB
कुल पृष्ठ :
874
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
हरिभाऊ उपाध्याय - Haribhau Upadhyaya
हरिभाऊ उपाध्याय का जन्म मध्य प्रदेश के उज्जैन के भवरासा में सन १८९२ ई० में हुआ।
विश्वविद्यालयीन शिक्षा अन्यतम न होते हुए भी साहित्यसर्जना की प्रतिभा जन्मजात थी और इनके सार्वजनिक जीवन का आरंभ "औदुंबर" मासिक पत्र के प्रकाशन के माध्यम से साहित्यसेवा द्वारा ही हुआ। सन् १९११ में पढ़ाई के साथ इन्होंने इस पत्र का संपादन भी किया। सन् १९१५ में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के संपर्क में आए और "सरस्वती' में काम किया। इसके बाद श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के "प्रताप", "हिंदी नवजीवन", "प्रभा", आदि के संपादन में योगदान किया। सन् १९२२ में स्वयं "मालव मयूर" नामक पत्र प्रकाशित करने की योजना बनाई किंतु पत्र अध
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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के उपजाऊ मँदानों में आये । वे मुगल साम्राज्य के पतन के दिन औरंगजेब मर चूका था और फरूखसियर बादशाह था । हमारे जो परखा सबसे पहुंले आये, उनका नाम था राजकौल ।.. कदमीर के संस्कृत भ्ौर फारसी के विद्वानों में उनका बड़ा नाम था । फर्संखसियर जब कश्मीर गया तो उसकी सजर उनपर पड़ी आर शायद उसीके कहने से उनका परिवार दिल्ली श्राया जो कि उस समय मुगलों की राजधानी थी । यह सन् १७१६ के आसपास की त हू । राजकौल को एक मकान और कछ जागीर दी गई । मकान नहर के किनारे था, इसीसे उनका नाम नेहरू पड़ गया । कौल जो उनका कौट- बिक नाम था. बदलकर कौल-नेहरू हो गया श्ौर, श्रागे चलकर, कौल तो गायब हो गया श्रौर हम महज नेहरू रह गये । गए उसके बाद एसा डांवाडोल जमाना आया कि हमारे कटम्ब के बैभव का अस्त हो गया और वह जागीर भी तहस-तहस हो गई । मेरे परदादा, लक्ष्मी- नारायण नहरू, दिल्ली के बादकाह के नाममात्र के दरबार में कम्पनी-सरकार के पहले वकील हुए । मेरे दादा,गंगाघर नेहरू, १८५७. के गदर के कुछ पहले तक दिल्ली के कोतवाल थे। १८६१ में ३४ साल की भरी जवानी में ही वह मर गये । १८५७ के गदर की वजह से हमारे परिवार का संब सिलसिला ट्ट गया. हमारें खानदान के तमाम कागज-पत्र और दस्तावेज तहस-नहस हो गये । इस तरह म्रपना सब-क््छ खो चूकने पर हमारा परिवार दिल्ली छोड़नेवाले और
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