मीरा के पदों में कौन सा गुण है? - meera ke padon mein kaun sa gun hai?

था। ये जोधपुर के राजा रत्नसिंह की पुत्री जोधपुर के संस्थापक राव जोधाजी की प्रपौत्री एवं राव दूदाजी की

पौत्री थीं। बाल्यकाल में ही इनकी माता का स्वर्गवास हो गया था। इसलिए इनका लालन-पालन इनके वैष्णव

भक्त दादा राव दूदाजी ने किया था। फलतः इनके हृदय में भी कृष्ण के प्रति अगाध भक्ति उत्पन्न हो गयी।

मीरा का विवाह सन् 1516 ई० के लगभग राणा साँगा के पुत्र महाराणा भोजराज के साथ सम्पन्न

हुआ था। विवाह के कुछ समय पश्चात् ही इनके पति का देहान्त हो गया। उसके पश्चात् इनके पिता और

श्वसुर की भी मृत्यु हो गयी। अब मीरा कृष्ण के प्रति पूर्णतः समर्पित हो गयीं। इन्होंने श्रीकृष्ण को ही अपना

पति मान लिया और उनके प्रेम में दीवानी हो गयीं। पति की मृत्यु के बाद मीरा के इस आचरण को

राज-मर्यादा के विरुद्ध मानकर इनके देवर ने इन्हें मारने की चेष्टा भी की, परन्तु वे मीरा का कुछ न बिगाड़

सके।

अन्ततः राणा के व्यवहार से दुःखी होकर मीरा वृन्दावन चली गयीं। सन् 1546 ई० (संवत् 1603

वि० ) में द्वारका में कृष्ण की मूर्ति के सम्मुख ‘हरि तुम हरौ जन की पीर’ पद गाते हुए ये अपने आराध्य में

लीन हो गयीं।

कृतियाँ (रचनाएँ)―मीरा जिन संगीतमय पदों को भाव-विभोर होकर गाया करती थीं, वे ही

उनकी रचनाएँ हैं। उनमें प्रमुख इस प्रकार हैं―(1) नरसी जी का मायरा, (2) रागगोविन्द, (3) गीत

गोविन्द की टीका, (4) राग सोरठ के पद। इसके अतिरिक्त मीरा की पदावली, फुटकर पद, मीराबाई

की मल्हार, गरबा गीत, राग विहाग आदि में मीरा के पदों के संग्रह हैं।

साहित्य में स्थान―कृष्ण-भक्त कवियों में मीरा का स्थान महत्त्वपूर्ण है। सम्पूर्ण हिन्दी-साहित्य में

वे दर्द दीवानी मीरा के नाम से विख्यात हैं। उनके पीड़ा भरे गीत अजर-अमर हैं।

 

             पद्यांशों की ससन्दर्भ व्याख्या (पठनीय अंश सहित)

 

◆ पदावली

 

(1) बसो मेरे नैनन में नंँदलाल।

       मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरुण तिलक दिये भाल ।

       मोहनि मूरति साँवरि सूरति, नैना बने बिसाल ।

       अधर-सुधा-रस मुरली राजत, उर बैजंती-माल ।

        छुद्र घंटिका कटि-तट सोभित, नूपुर सबद रसाल ।

        मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भगतबछल गोपाल ।

[मकराकृत = मछली के आकार के। अरुण = लाल । भाल = मस्तक। अधर = होंठ। राजत = सुशोभित।

छुद्र = छोटी। कटि-तट = कमर के किनारे पर। नूपुर = घुघरू। रसाल = मधुर। भक्त- बछल =

भक्त-वत्सल]

सन्दर्भ―प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी’ के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित श्रीकृष्ण की

अनन्य उपासिका मीराबाई के काव्य-ग्रन्थ ‘मीरा-सुधा-सिन्धु’ के अन्तर्गत ‘पदावली’ शीर्षक से

अवतरित है।

[संकेत–‘पदावली’ के अन्तर्गत आने वाले सभी पद्यांशों की व्याख्या में यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]

प्रसंग―प्रेम-दीवानी मीरा भगवान् कृष्ण के रूप-सौन्दर्य पर मुग्ध हैं और उनकी मोहिनी मूर्ति को

अपने नेत्रों में बसाना चाहती हैं। इस पद में कृष्ण की मोहिनी मूर्ति का सजीव वर्णन किया गया है।

व्याख्या―कृष्ण के प्रेम में दीवानी मीरा कहती हैं कि नन्द जी को आनन्दित करने वाले हे श्रीकृष्ण!

आप मेरे नेत्रों में निवास कीजिए। आपका सौन्दर्य अत्यन्त आकर्षक है। आपके सिर पर मोर के पंखों से

निर्मित मुकुट एवं कानों में मछली की आकृति के कुण्डल सुशोभित हो रहे हैं। मस्तक पर लगे हुए लाल

तिलक और सुन्दर विशाल नेत्रों से आपका श्यामवर्ण का शरीर अतीव सुशोभित हो रहा है। अमृतरस से भरे

आपके सुन्दर होंठों पर बाँसुरी शोभायमान हो रही है। आप हृदय पर वन के पत्र-पुष्पों से निर्मित माला धारण

किये हुए हैं। आपकी कमर में बँधी करधनी में छोटी-छोटी घण्टियाँ सुशोभित हो रही हैं। आपके चरणों में

बंँधे घुंघरुओं की मधुर ध्वनि बहुत रसीली प्रतीत होती है। हे प्रभु! आप सज्जनों को सुख देने वाले, भक्तों से

प्यार करने वाले और अनुपम सुन्दर हैं। आप मेरे नेत्रों में बस जाइए।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) यहाँ भगवान कृष्ण की मनमोहक छवि का परम्परागत रूप में वर्णन किया

गया है। (2) मीराबाई की कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति-भावना प्रकट हुई है। (3) भाषा-सुमधुर ब्रज।

(4) शैली―मुक्तक काव्य की पद शैली। (5) छन्द―संगीतात्मक गेय पद। (6) रस―भक्ति एवं शान्त।

(7) गुण―माधुर्य। (8) शब्द-शक्ति―अभिधा एवं प्रथम पंक्ति में लक्षणा। (9) अलंकार―‘मोर मुकुट

मकराकृति कुंडल’ तथा ‘मोहनि मूरति साँवरि सूरति’ में अनुप्रास। (10) भाव-साम्य–कविवर बिहारी

भी मीरा की तरह कृष्ण के इस रूप को अपने मन में बसाना चाहते हैं―

                 सीस मुकुट कटि काछनी, कर मुरली उर माल।

                  इहिं बानक मो मन सदा, बसी बिहारी लाल ॥

(2) पायो जी हैं तो राम रतन धन पायो।

वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो ।

जनम-जनम की पूँजी पायी, जग में सभी खोवायो।

खरचै नहिं कोई चोर न लेवै, दिन-दिन बढ़त सवायो ।

सत की नाव खेवटिया सतगुरु, भव-सागर तर आयो ।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरख-हरख जस गायो॥

[म्हैं = मैंने। अमोलक = अमूल्य। खेवटिया = कर्णधार, मल्लाह। हरख-हरख = हर्षित हो-होकर।]

प्रसंग―इस पद में कवयित्री ने सद्गुरु की कृपा से प्राप्त रामनाम का महत्त्व बताया है।

व्याख्या―मीराबाई कहती हैं कि मैंने राम-नाम-रूपी अमूल्य रत्न प्राप्त कर लिया है। सच्चे गुरु ने

मुझ पर कृपा करके राम-नाम की यह अमूल्य वस्तु मुझे प्रदान की है। राम-नाम के रत्न को पाकर मुझे ऐसा

अनुभव हो रहा है कि मैंने जन्म-जन्मान्तरों से संचित खजाना प्राप्त कर लिया है। मैंने अब तक प्राप्त सभी

सांसारिक भोग्य वस्तुओं को त्याग कर रामनाम की वह अपूर्व निधि प्राप्त कर ली है, जो खर्च नहीं होती, इस

चोर नहीं चुरा सकते और खर्च करने पर दिन-प्रतिदिन इसमें सवा गुना वृद्धि होती है। मीरा कहती हैं कि मुझे

ईश्वर-भक्तिरूपी नाव मिल गयी है और उसका खेने वाला सच्चा गुरु है। कुशल सद्गुरुरूपी मल्लाह मिल

जाने से इस भक्तिरूपी नौका द्वारा मैं संसाररूपी सागर को पार कर सकूँगी और मोक्ष प्राप्त कर लूंँगी।

मीराबाई कहती हैं कि मेरे स्वामी गिरधर नागर हैं और मैं प्रसन्नतापूर्वक बार-बार उनका यशोगान करती हूँ।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) ज्ञानरूपी अमूल्य रल सद्गुरु की कृपा से ही प्राप्त होता है। (2) राम-नाम

ऐसी विचित्र निधि है, जो खर्च करने से बढ़ती है। (3) ईश्वर की भक्ति ही मुक्ति का साधन है। (4) ‘राम’

शब्द को ईश्वर के अर्थ में प्रयुक्त समझा जाना चाहिए। मीरा के आराध्य कृष्ण हैं। राम और कृष्ण दोनों एक

ही ईश्वर विष्णु के अवतार माने जाते हैं। (5) भाषा―राजस्थानी मिश्रित ब्रज। (6) शैली―मुक्तक।

(7) छन्द―गेय पद। (8) रस―शान्त और भक्ति। (9) अलंकार―रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश तथा अनुप्रास

की छटा दर्शनीय है। (10) गुण―प्रसाद। (11) शब्द-शक्ति―अभिधा और लक्षणा। (12) भाव―

साम्य―सन्त कबीर भी सद्गुरु की महिमा को इस प्रकार व्यक्त करते हैं―

                        सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार।

                         लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार ॥

 

(3) माई री मैं तो लियो गोबिन्दो मोल।

कोई कहै छाने कोई कहै चुपके, लियो री बजन्ता ढोल ।।

कोई कहै मुँहघो कोई कहै सुंहघो, लियो री तराजू तोल।

कोई कहै कारो कोई कहै गोरो, लियोरी अमोलक मोल॥

याही कूँ सब जाणत हैं, लियो री आँखीं खोल।

मीरा कूँ प्रभु दरसण दीन्यौ, पूरब जनम कौ कौल॥

[छाने = छुपाकर। बजन्ता ढोल = ढोल बजाकर, डंके की चोट पर। मुँहघो = महँगा। सुँहघो = सस्ता।

तराजूतोल = तराजू से तोलकर अर्थात् ठोंक बजाकर। अमोलक मोल = अत्यधिक मूल्य में। कौल = वादा।]

प्रसंग―मीराबाई कृष्ण के प्रेम में दीवानी हो गयी थीं। इस पद में वे बताती हैं कि उन्होंने कृष्ण को

पूरी तरह से अपना बना लेने का निर्णय भली-भाँति सोच-विचारकर ही किया है।

व्याख्या―मीराबाई कहती हैं―अरी माई, सुन! मैंने तो कृष्ण को मोल ले लिया है, अर्थात् कृष्ण

पूरी तरह मेरे हो गये हैं; क्योंकि जो व्यक्ति मूल्य देकर वस्तु को खरीद लेता है, उस पर उसी का पूरा

अधिकार हो जाता है। भले ही इस विषय में लोग तरह-तरह की बातें करते हैं। कोई किसी वस्तु को छिपाकर

खरीदता है और कोई चुपचाप खरीद लेता है, किन्तु मैंने ऐसा नहीं किया है। मैंने तो उन्हें सरेआम ढोल

बजाकर खरीदा है। कोई कहता है कि मैंने कृष्ण को महँगा खरीदा है, तो कोई कहता है सस्ता खरीदा है,

लेकिन मैंने तो उन्हें भली-भाँति नाप-जोख करके यानि तराजू से तोल करके मोल लिया है। कोई उसे काला

बताता है, कोई गोरा कहता है, परन्तु मैंने तो उन्हें अपना सब कुछ देकर अर्थात् सारे संसार से विरक्त होकर

पूर्ण समर्पण भाव से खरीदा है। माई सब यह जानते हैं कि मीरा ने आँखें खोलकर अर्थात् बहुत

समझ-बूझकर श्रीकृष्ण को अपनाया है। किसी को इस बात का क्या पता है कि प्रभु श्रीकृष्ण ने मीरा को पूर्व

जन्म के वादे के अनुसार दर्शन दिये हैं।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) मीराबाई श्रीकृष्ण के प्रेम में पूर्णरूप से दीवानी हैं। कृष्ण के साथ अपना

जन्म-जन्मान्तरों का साथ दिखाकर मीरा ने अपनी स्थायी प्रेम-भक्ति को प्रकट किया है। (2) इस पद्यांश में

यह भी स्पष्ट किया गया है कि जो किसी के प्रेम में लीन हो जाता है, वह दुनिया की कोई परवाह नहीं करता।

(3) भाषा―राजस्थानी पुट से युक्त ब्रजभाषा। मोल लेना, ढोल बजाकर लेना, आँखें खोलकर लेना आदि

मुहावरों के प्रयोग से भाषा में सजीवता आ गयी है। (4) शैली―मुक्तक। (5) छन्द―गेयपद। (6) रस―

शान्त और भक्ति। (7) अलंकार―सम्पूर्ण पद में रूपक और अनुप्रास। (8) गुण―प्रसाद और माधुर्य।

(9) शब्द-शक्ति―अभिधा एवं लक्षणा। (10) भाव-साम्य―भवभूति ने अपनी उत्तररामचरितम्’ शीर्षक

रचना में इसी प्रकार के भाव व्यक्त किये हैं―‘तत्तस्य किमपि द्रव्यं यो हि यस्य प्रियो जनः’ अर्थात् जो

जिसका प्रियजन होता है, वह उसका विशेष धन भी होता है।

 

(4) मैं तो साँवरे के रंग राँची।

      साजि सिंगार बाँधि पग घुघरू, लोक-लाज तजि नाँची ।

      गई कुमति लई साधु की संगति, भगत रूप भई साँची।

      गाय-गाय हरि के गुण निसदिन, काल ब्याल सूं बाँची ॥

      उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब काँची।

      मीरा श्री गिरधरन लाल V, भगति रसीली जाँची ।

[साँवरे = श्रीकृष्ण के। राँची = रची हुई। साँची = सत्या  । तजि  = छोड़कर। ब्याल = सर्प। खारो = नीरस,

व्यर्थ। काँची = कच्ची (क्षणभंगुर)। रसीली = रसयुक्त, आनन्दमयी। जाँची = प्रतीत हुई। ]

प्रसंग―इस पद में मीरा भगवान् कृष्ण के प्रेम में निमग्न होकर पूर्णरूप से उन्हीं के रंग में रंग गयी हैं,

इसीलिए संसार की अन्य किसी वस्तु में उनका मन नहीं लगता।’

व्याख्या―मीरा कहती हैं कि मैं तो साँवले कृष्ण के श्याम रंग में रंग गयी हूँ अर्थात् उनके प्रेम में

आत्मविभोर हो गयी हूँ। मैंने तो लोक-लाज को छोड़कर अपना पूरा शृंगार किया है और पैरों में घुघरू

बाँधकर नाच भी रही हूँ। साधुओं की संगति से मेरे हृदय की सारी कालिमा मिट गयी है और मेरी दुर्बुद्धि भी

सद्बुद्धि में बदल गयी है। मैं प्रभु श्रीकृष्ण का नित्य गुणगान करके कालरूपी सर्प के चंगुल से बच गयी हूँ

अर्थात् अब मैं जन्म-मरण के चक्र से छूट गयी हूँ। अब कृष्ण के बिना मुझे यह संसार निस्सार और सूना

लगता है और उनकी बातों के अतिरिक्त अन्य सभी बातें व्यर्थ लगती हैं। मीराबाई को केवल श्रीकृष्ण की

भक्ति में ही आनन्द मिलता है, संसार की किसी अन्य वस्तु में नहीं।

काव्यगत सौन्दर्य―(1) श्रीकृष्ण के प्रति मीरा की एकनिष्ठ भक्ति का सुन्दर चित्रण हुआ है।

(2) कृष्ण की दीवानी मीरा को उनके बिना यह संसार निस्सार और सूना लगता है। (3) भाषा-राजस्थानी

मिश्रित ब्रज। (4) शैली―मुक्तक। (5) छन्द―गेयपद। (6) रस―भक्ति और शान्त। (7) गुण―माधुर्य।

(8) अलंकार―‘साजि-सिंगार’ और ‘लोक-लाज’ में अनुप्रास, गाय-गाय’ में पुनरुक्तिप्रकाश, ‘काल-

ब्याल’ में रूपक। (9) शब्द-शक्ति―अभिधा एवं लक्षणा।

 

(5) मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई ।

     जाके सिर मोर मुकुट, मेरो पति सोई ।।

     तात मात भ्रात बन्धु, आपनो न कोई।

     छाँड़ि दई कुल की कानि, कहा करिहै कोई॥

     संतन ढिंग बैठि-बैठि, लोक लाज खोई।

    अँसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम बेलि बोई॥

    अब तो बेल फैल गयी, आणंद फल होई।

     भगति देखि राजी हुई, जगत देखि रोई ॥

     दासी मीरा लाल गिरधर, तारो अब मोई॥

[छाँड़ि दई = छोड़ दी। कानि= मर्यादा। ढिंग= साथ, निकट। आणंद फल = आनन्दरूपी फल। राजी =

प्रसन्न। तारो = उद्धार कर दो। मोई = मुझे।]

प्रसंग―प्रस्तुत पद में मीराबाई कहती हैं कि वे तो एकमात्र श्रीकृष्ण को प्राप्त करना चाहती हैं, किसी

अन्य को नहीं।

व्याख्या―मीराबाई कहती हैं कि मेरे एकमात्र सम्बन्धी गिरधर गोपाल (श्रीकृष्ण) ही हैं, दूसरा कोई

नहीं है। जो सिर पर मोर-मुकुट धारण किये हुए हैं, वे कृष्ण ही मेरे स्वामी हैं। माता-पिता, भाई-बन्धु कोई

भी मेरा नहीं है। अपने गिरधर के प्रेम में मैंने अपने कुल (राजवंश) की सारी मर्यादाएँ त्याग दी है। अब मेरा

मीरा के पद किसका गुणगान करते हैं?

मीरा हर्षित होकर अपने प्रभु का गुणगान करती हैं। क. मीरा मग्न होकर हरि के गुण गाती हुई कृष्ण-भक्ति में लीन हो जाती हैं ख. साँप को शालिग्राम, ज़हर को अमृत और काँटों को फूलों में बदलकर प्रभु ने मीरा की रक्षा की।

मीरा के पदों की विशेषता क्या है?

मीरा के काव्य की प्रमुख विशेषता 'गेयता' है। निश्चित रूप से मीरा का काव्य गीति-काव्य है । गीति काव्य की सभी विशेषताएं आत्माभिव्यक्ति, संक्षिप्तता, तीव्रता, संगीतात्मकता, भावात्मकता आदि उनके काव्य में देखी जा सकती है।

मीरा के काव्य का प्रधान गुण क्या है?

मीरा की कविता का प्रमुख भाव माधुर्य है। उन्होंने गिरधर गोपालं को अपना पति मानते हुए, अपनी अनुभूतियों और भावनाओं का प्रकाशन किया है।

मीरा के पदों में रस कौन सा है?

उनके भक्ति तथा विनय संबंधी पदों में शांत रस का प्रयोग है। पदों में मुख्य रूप से माधुर्य तथा प्रसाद गुण है।

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