लाल बहादुर शास्त्री: जिनकी एक आवाज़ पर लाखों भारतीयों ने छोड़ दिया था एक वक़्त का खाना
- रेहान फ़ज़ल
- बीबीसी संवाददाता
2 अक्टूबर 2020
अपडेटेड 2 अक्टूबर 2022
वाक़या 26 सितंबर, 1965 का है. भारत-पाकिस्तान युद्ध ख़त्म हुए अभी चार दिन ही हुए थे. जब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने दिल्ली के रामलीला मैदान में हज़ारों लोगों के सामने बोलना शुरू किया तो वो कुछ ज्यादा ही अच्छे मूड में थे.
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच शास्त्री ने ऐलान किया, "सदर अयूब ने कहा था कि वो दिल्ली तक चहलक़दमी करते हुए पहुंच जाएंगे. वो इतने बड़े आदमी हैं. लहीम शहीम हैं. मैंने सोचा कि उन्हें दिल्ली तक चलने की तकलीफ़ क्यों दी जाए. हम ही लाहौर की तरफ़ बढ़ कर उनका इस्तक़बाल करें."
ये वही शास्त्री थे जिनके पाँच फ़ीट दो इंच के क़द और आवाज़ का अयूब ने एक साल पहले मज़ाक उड़ाया था.
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पाकिस्तान के तत्कालीन फ़ील्ड मार्शल अयूब ख़ाँ के साथ शास्त्री
अयूब अक्सर लोगों का आकलन उनके आचरण के बजाय उनके बाहरी स्वरूप से किया करते थे.
पाकिस्तान में भारत के पूर्व उच्चायुक्त रहे शंकर बाजपेई ने (जिनकी हाल में मृत्यु हो गई है) मुझे बताया था, "अयूब ने सोचना शुरू कर दिया था कि भारत कमज़ोर है. वो नेहरू के निधन के बाद दिल्ली जाना चाहते थे लेकिन उन्होंने ये कह कर अपनी दिल्ली यात्रा रद्द कर दी थी कि अब किससे बात करें. शास्त्री ने कहा आप मत आइए, हम आ जाएंगे."
"वो गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में भाग लेने काहिरा गए हुए थे. लौटते वक्त वो कुछ घंटों के लिए कराची में रुके. मैं प्रत्यक्षदर्शी था जब शास्त्री को हवाईअड्डे छोड़ने आए अयूब ने अपने साथियों से इशारा करते हुए कहा था कि इनके साथ बात करने में कोई फ़ायदा नहीं है."
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अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन
जब अमरीकी राष्ट्रपति का न्योता ठुकराया
शास्त्री के काहिरा जाने से पहले अमरीकी राजदूत चेस्टर बोल्स ने उनसे मिलकर अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन का अमरीका आने का न्योता उन्हें दिया था.
लेकिन इससे पहले कि शास्त्री इस बारे में कोई फ़ैसला ले पाते, जॉन्सन ने अपना न्योता वापस ले लिया था.
इसका कारण फ़ील्ड मार्शल अयूब का अमरीका पर दबाव था. उनका कहना था ऐसे समय जब वो भारत के साथ नए समीकरण बनाने की कोशिश कर रहे हैं, अमरीका को तस्वीर में नहीं आना चाहिए.
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर लिखते हैं कि शास्त्री ने इस बेइज़्ज़ती के लिए जॉन्सन को कभी माफ़ नहीं किया.
कुछ महीनों बाद जब वो कनाडा जा रहे थे तो जॉन्सन ने उन्हें बीच में वॉशिंगटन में रुकने का न्योता दिया लेकिन शास्त्री ने उसे अस्वीकार कर दिया.
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Vivechana - लाल बहादुर शास्त्री: जिन्हें रूसी प्रधानमंत्री ने बताया था 'सुपर कम्युनिस्ट'
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बीबीसी स्टूडियो में लाल बहादुर शास्त्री के बेटे अनिल शास्त्री से साथ रेहान फ़ज़ल.
एक पुकार पर लाखों भारतीयों ने छोड़ा एक वक़्त का खाना
लाल बहादुर शास्त्री के बेटे अनिल शास्त्री याद करते हैं, "1965 की लड़ाई के दौरान अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन जॉन्सन ने शास्त्री को धमकी दी थी कि अगर आपने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ लड़ाई बंद नहीं की तो हम आपको पीएल 480 के तहत जो लाल गेहूँ भेजते हैं, उसे बंद कर देंगे."
उस समय भारत गेहूँ के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था. शास्त्री को ये बात बहुत चुभी क्योंकि वो स्वाभिमानी व्यक्ति थे.
उन्होंने देशवासियों से कहा कि हम हफ़्ते में एक वक्त भोजन नहीं करेंगे. उसकी वजह से अमरीका से आने वाले गेहूँ की आपूर्ति हो जाएगी.
अनिल शास्त्री बताते हैं, "लेकिन इस अपील से पहले उन्होंने मेरी माँ ललिता शास्त्री से कहा कि क्या आप ऐसा कर सकती हैं कि आज शाम हमारे यहाँ खाना न बने. मैं कल देशवासियों से एक वक्त का खाना न खाने की अपील करने जा रहा हूँ."
"मैं देखना चाहता हूँ कि मेरे बच्चे भूखे रह सकते हैं या नहीं. जब उन्होंने देख लिया कि हम लोग एक वक्त बिना खाने के रह सकते हैं तो उन्होंने देशवासियों से भी ऐसा करने के लिए कहा."
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तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन और कांग्रेस नेता कामराज के साथ लाल बहादुर शास्त्री
जब अख़बारों में लिखकर ख़र्च चलाया
साल 1963 में कामराज योजना के तहत शास्त्री को नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा देना पड़ा. उस समय वो भारत के गृहमंत्री थे.
कुलदीप नैयर याद करते हैं, "उस शाम मैं शास्त्री के घर पर गया. पूरे घर में ड्राइंग रूम को छोड़ कर हर जगह अँधेरा छाया हुआ था. शास्त्री वहाँ अकेले बैठे अख़बार पढ़ रहे थे. मैंने उनसे पूछा कि बाहर बत्ती क्यों नहीं जल रही है?"
"अब से मुझे इस घर का बिजली का बिल अपनी जेब से देना पड़ेगा. इसलिए मैं हर जगह बत्ती जलाना बर्दाश्त नहीं कर सकता."
शास्त्री को सांसद की तनख्वाह के 500 रूपये के मासिक वेतन में अपने परिवार का ख़र्च चलाना मुश्किल पड़ रहा था.
नैयर अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, "मैंने उन्हें अख़बारों में लिखने के लिए मना लिया था. मैंने उनके लिए एक सिंडिकेट सेवा शुरू की जिसकी वजह से उनके लेख द हिंदू, अमृतबाज़ार पत्रिका, हिंदुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपने लगे. हर अख़बार उन्हें एक लेख के 500 रूपये देता था."
"इस तरह उनकी 2000 रूपये की अतिरिक्त कमाई होने लगी. मुझे याद है कि उन्होंने पहला लेख जवाहरलाल नेहरू और दूसरा लेख लाला लाजपत राय पर लिखा था."
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मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर (दाएं) के साथ शास्त्री
जूनियर अफ़सरों को चाय सर्व करने वाले शास्त्री
शास्त्री के साथ काम करने वाले सभी अफ़सरों का कहना है कि उनका व्यवहार बहुत विनम्र रहता था.
उनके निजी सचिव रहे सीपी श्रीवास्तव उनकी जीवनी 'लाल बहादुर शास्त्री अ लाइफ़ ऑफ़ ट्रूथ इन पॉलिटिक्स' में लिखते हैं, "शास्त्री की आदत थी कि वो अपने हाथ से पॉट से प्याली में हमारे लिए चाय सर्व करते थे. उनका कहना था कि चूँकि ये उनका कमरा है, इसलिए प्याली में चाय डालने का हक़ उनका बनता है."
"कभी-कभी वो बातें करते हुए अपनी कुर्सी से उठ खड़े होते थे और कमरे में चहलक़दमी करते हुए हमसे बातें करते थे. कभी-कभी कमरे में अधिक रोशनी की ज़रूरत नहीं होती थी. शास्त्री अक्सर ख़ुद जाकर बत्ती का स्विच ऑफ़ करते थे. उनको ये मंज़ूर नहीं था कि सार्वजनिक धन की किसी भी तरह बर्बादी हो."
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अपनी दोनों बेटियों, सचिव सीपी श्रीवास्तव (पीछे) के साथ शास्त्री
रूसी प्रधानमंत्री ने शास्त्री को बताया 'सुपर कम्युनिस्ट'
जब लालबहादुर शास्त्री ताशकंद सम्मेलन में भाग लेने रूस गए तो वो अपना खादी का ऊनी कोट पहन कर गए.
रूस के प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिगिन फ़ौरन ताड़ गए कि इस कोट से ताशकंद की सर्दी का मुक़ाबला नहीं हो सकेगा. अगले दिन उन्होंने शास्त्री को ये सोच कर एक ओवरकोट भेंट किया कि वो इसे ताशकंद की सर्दी में पहनेंगे.
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शास्त्री,अयूब ख़ान और कोसिगिन (दाएं)
अनिल शास्त्री बताते हैं कि अगले दिन कोसिगिन ने देखा कि शास्त्री फिर वही पुराना खादी का कोट पहने हुए हैं. उन्होंने बहुत झिझकते हुए शास्त्री से पूछा कि क्या आपको वो कोट पसंद नहीं आया?
शास्त्री ने जवाब दिया वो कोट वाकई बहुत गर्म है लेकिन मैंने उसे अपने दल के एक सदस्य को कुछ दिनों के लिए पहनने के लिए दे दिया है क्योंकि वो अपने साथ इस मौसम में पहनने के लिए कोट नहीं ला पाया है.
कोसिगिन ने भारतीय प्रधानमंत्री और पाकिस्तानी राष्ट्रपति के सम्मान में आयोजित किए गए सांस्कृतिक समारोह में इस घटना का ज़िक्र करते हुए कहा कि हम लोग तो कम्युनिस्ट हैं लेकिन प्रधानमंत्री शास्त्री 'सुपर कम्युनिस्ट' हैं.
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सरकारी कार का किराया भरने का किस्सा
लाल बहादुर शास्त्री के दूसरे बेटे सुनील शास्त्री भी उनसे जुड़ी एक घटना बताते हैं.
वो याद करते हैं, "जब शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो उनके इस्तेमाल के लिए उन्हें एक सरकारी शेवरोले इंपाला कार दी गई. एक दिन मैंने बाबूजी के निजी सचिव से कहा कि वो ड्राइवर को इंपाला के साथ घर भेज दें. हमने ड्राइवर से कार की चाबी ली और दोस्तों के साथ ड्राइव पर निकल गए."
"देर रात जब हम घर लौटे तो हमने कार गेट पर ही छोड़ दी और घर के पिछवाड़े किचन के रास्ते से घर में घुसे. मैं जाकर अपने कमरे में सो गया. अगले दिन सुबह साढ़े छह बजे मेरे कमरे के दरवाज़े पर दस्तक हुई. मैंने सोचा कि कोई नौकर दरवाज़ा खटखटा रहा है. मैंने चिल्लाकर कहा कि अभी मुझे तंग न करे क्योंकि मैं रात देर से सोया हूँ."
"दरवाज़े पर फिर दस्तक हुई और मैंने देखा कि बाबूजी सामने खड़े हैं. उन्होंने मुझे मेज़ तक आने के लिए कहा, जहाँ सब लोग चाय पी रहे थे. वहाँ अम्मा ने मुझसे पूछा कि कल रात तुम कहाँ गए थे और इतनी देर में क्यों लौटे? बाबूजी ने पूछा कि तुम गए कैसे थे? जब मैं लौटा तो हमारी फ़िएट कार तो पेड़ के नीचे खड़ी थी."
"मुझे सच बताना पड़ा कि हम उनकी सरकारी इंपाला कार से घूमने निकले थे. बाबूजी इस कार का तभी इस्तेमाल करते थे जब कोई विदेशी मेहमान दिल्ली आता था. चाय पीने के बाद उन्होंने मुझसे कार के ड्राइवर को बुलाने के लिए कहा. उन्होंने उससे पूछा क्या आप अपनी कार में कोई लॉग बुक रखते हैं? जब उसने हाँ में जवाब दिया तो उन्होंने पूछा कि कल इंपाला कार कुल कितने किलोमीटर चली है?"
"जब ड्राइवर ने कहा कि 14 किलोमीटर तो उन्होंने कहा कि इसे निजी इस्तेमाल की मद में लिखा जाए और अम्मा को निर्देश दिया कि प्रति किलोमीटर के हिसाब से 14 किलोमीटर के लिए जितना पैसा बनता है, उनके निजी सचिव को दे दें ताकि उसे सरकारी खाते में जमा कराया जा सके. तब से लेकर आज तक मैंने और मेरे भाई ने कभी भी निजी काम के लिए सरकारी कार का उपयोग नहीं किया."
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पत्नी ललिता शास्त्री के साथ लाल बहादुर शास्त्री
बिहार के लोगों को लेने बस स्टॉप पहुँचे
एक बार प्रधानमंत्री शास्त्री ने बिहार के कुछ लोगों को अपने घर पर मिलने का समय दिया.
उसी दिन इत्तेफ़ाक से एक विदेशी मेहमान के सम्मान में एक समारोह का आयोजन कर दिया गया जहाँ शास्त्रीजी का पहुंचना बहुत ज़रूरी था.
वहाँ से लौटने में उन्हें देर हो गई. तब तक उनसे मिलने आए लोग निराश हो कर लौट चुके थे.
अनिल शास्त्री बताते हैं, "जब शास्त्री जी को पता चला कि वो लोग बहुत इंतज़ार करने के बाद अभी-अभी निकले हैं तो उन्होंने अपने सचिव से पूछा कि क्या उन्हें पता है कि वो कहाँ गए होंगे? उन्होंने बताया कि वो प्रधानमंत्री आवास के बाहर बस स्टॉप से कहीं जाने की बात कर रहे थे."
"शास्त्रीजी तुरंत अपने निवास से निकलकर बस स्टॉप पहुंच गए. उनका सचिव कहता ही रह गया कि लोगों को जब पता चलेगा तो वो क्या कहेंगे? शास्त्री जी ने जवाब दिया, और तब क्या कहेंगे जब उन्हें पता चलेगा कि मैं लोगों को आमंत्रित करने के बाद भी उनसे नहीं मिला."
"सचिव ने कहा कि मैं उन्हें लेने चला जाता हूँ लेकिन शास्त्रीजी ने कहा नहीं मैं उन्हें लेने ख़ुद जाउंगा और इस ग़लती के लिए माफ़ी माँगूगा. जब वो बस स्टॉप पर पहुंचे तो उन्होंने उन्हें बस का इंतज़ार करते पाया. शास्त्रीजी ने उनसे माफ़ी मांगी और उन्हें अपने साथ घर के अंदर लाए."
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पाकिस्तानी राष्ट्रपति और सोवियत के प्रधानमंत्री ने दिया कंधा
11 जनवरी, 1966 को जब लाल बहादुर शास्त्री का ताशकंद में निधन हुआ तो उनके डाचा (घर) में सबसे पहले पहुंचने वाले शख़्स थे पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ाँ.
उन्होंने शास्त्री के पार्थिव शरीर को देख कर कहा था, 'हियर लाइज़ अ पर्सन हू कुड हैव ब्रॉट इंडिया एंड पाकिस्तान टुगेदर (यहाँ एक ऐसा आदमी लेटा हुआ है जो भारत और पाकिस्तान को साथ ला सकता था).'
जब शास्त्री के शव को दिल्ली लाने के लिए ताशकंद हवाईअड्डे पर ले जाया जा रहा था तो रास्ते में हर सोवियत, भारतीय और पाकिस्तानी झंडा झुका हुआ था.
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शास्त्री के ताबूत को कंधा देते कोसिगिन और अयूब खाँ
जब शास्त्री के ताबूत को वाहन से उतारकर विमान पर चढ़ाया जा रहा था तो उनको कंधा देनेवालों में सोवियत प्रधानमंत्री कोसिगिन के साथ-साथ कुछ ही दिन पहले शास्त्री का मखौल उड़ाने वाले राष्ट्रपति अयूब ख़ाँ भी थे.
शास्त्री के जीवनीकार सीपी श्रीवास्तव लिखते हैं, "मानव इतिहास में ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं जब एक दिन पहले एक दूसरे के घोर दुश्मन कहे जानेवाले प्रतिद्वंद्वी न सिर्फ़ एक दूसरे को दोस्त बन गए थे, बल्कि दूसरे की मौत पर अपने दुख का इज़हार करते हुए उसके ताबूत को कंधा दे रहे थे."
"शास्त्री की मौत के समय उनकी ज़िंदगी की क़िताब पूरी तरह से साफ़ थी. न तो वो पैसा छोड़ कर गए थे, न ही कोई घर या ज़मीन."
(नोट - ये लेख मूल रूप से अक्टूबर 2020 में प्रकाशित हुआ था)