चीता चतुर्वेदी का असली नाम क्या है? - cheeta chaturvedee ka asalee naam kya hai?

-शम्भूनाथ शुक्ला
चीता तो आ गया है लेकिन उसका नाम क्या रखा गया है? यदि वह हिंदू है तो चीता के साथ चतुर्वेदी जोड़ा जा सकता है। चीता चतुर्वेदी नाम जमेगा भी और इस तरह उसके आलोचकों का मुँह बंद हो जाएगा। क्योंकि चतुर्वेदी से चारों वेदों का ज्ञात होने का बोध होता है। लेकिन कान्यकुब्जों और सरयूपारीण में चतुर्वेदी हीनता का द्योतक है। अत: चीताराम दुबे भी चल सकता है या चीता शंकर वाजपेयी अथवा चीता मिश्र। पर चूँकि चीता से कुछ लोग बहुत विचलित हैं। उन्हें लगता है चीता उनके उत्तराखंड की विरासत यानी बाघ को इंफीरियर दिखाने के लिए लाया गया है तो चीता मुखर्जी या चीता चटर्जी चलेगा। किंतु ममता दीदी बिफर जाएँगी। उनको अपने रॉयल बंगाल टाइगर की चिंता सताएगी।

एक बात और कि चीता मांसाहारी है और द्विजों में सिर्फ क्षत्रिय ही मांसाहारी हैं इसलिए चीता सिंह कछवाह रखा जा सकता है। पर कछवाह सरनेम उदयपुर के राणा लोगों को नहीं पसंद आएगा। फिर वे जयपुर की कलंक कथा ले आएँगे। वैश्य बिरादरी में इसे लिया जाए और नाम चीता चंद्र गुप्ता या चीताश्री माहेश्वरी भी चलेगा। लेकिन द्विजों की यह जाति इसे मानेगी नहीं। और मध्यवर्ती किसान जातियों में अधिकतर शाकाहारी हैं क्योंकि वे कृष्ण आंदोलन से जुड़ी हैं। या वेस्ट यूपी और हरियाणा में आर्य समाज आंदोलन से। ये समुदाय शाकाहारी है। इसलिए वे फिर चीता को राम आंदोलन से जोड़ेंगी। किंतु चीता न तो नर व पशु पुंगव सिंह है और न माँ दुर्गा की सवारी बाघ। वह तो किसी भी तरह पूज्य पशुओं की श्रेणी में नहीं आता है। बैल और चूहा भी पूज्य हैं किंतु चीता तो असंभव! इसलिए इसे आर्ष परंपरा के अनुसार अलग समुदाय में रखा जाए। तब यह वसीम रिज़वी की तरह यह चीतनी की माँग करेगा तब सरकार क्या करेगी।

चीता एक मुस्लिम देश से आया है इसलिए मुस्लिम नाम भी रखा जा सकता है। तब यह संकट होगा कि इसे शेख़, सैयद, पठान, मोगल की श्रेणी में रखा जाए या रांगड़, मूला या महेसरा में। सलमानी और मुलतानी भी इसे बर्दाश्त नहीं करेगा।किंतु मुझे लगता है, बेहतर यही होगा कि सरकार पुन: इसे अफ्रीका भेज दे। अफ्ऱीका में ईसाई भी पर्याप्त हैं, इसलिए इसका ईसाई नामकरण किया जाए। फिर संकट होगा कि यह सीरियन होगा या गोवानीज़ ईसाई या उत्तराखंड में पाए जाने वाले पंत ईसाई अथवा बंगाल के मुखर्जी, चटर्जी अथवा माइकेल मधुसूदन दत्त वाले ईसाई! या फिर अंबेकराइट चीता, जिसके लिए फिर आरक्षण की लड़ाई लड़ी जाएगी।

यूँ इसे मोहियाल अर्थात् असीम भूमि का मालिक भूमिहार श्रेणी में रखा जा सकता है। यूँ योगी जी की सरकार में मनोज सिन्हा, गिरिराज सिंह हैं, जो इस जाति पर बता सकते हैं। वैसे भी पत्रकारिता में इस जाति के लोग शीर्ष स्थान पर हैं उनकी राय ली जाए? चूँकि चितपावन ब्राह्मण भी इसी श्रेणी में हैं इसलिए उनका घोषित संगठन क्रस्स् चीता की जाति तय करे।

(अथ चीता पुराण समाप्त। अभी रात तीन बजे नींद झटके में खुल गई। मैं सपने में उस प्यारे से मुँह वाले चीता को देख रहा था, जो अपने वतन से दर-बदर कर दिए जाने से दुखी था। उसे अपने मुल्क की याद आ रही थी और यह चिंता भी कि भविष्य में उसका वंश कैसे चलेगा। और जाति निर्धारण न हुआ तो इस जाति प्रधान देश में उसका भविष्य क्या है!)
पुनश्च: कुछ लोग चीता को कायस्थ न बताने से कुढ़ गए हैं। उनसे क्षमा माँगते हुए मेरा कहना है, कि चित्रगुप्त महाराज का संबंध कलम से है अत: चीता का उस जाति से क्या लेना-देना! बाक़ी आपकी मर्जी। चीता तो यूँ भी अपनी जातीय पहचान को लेकर व्याकुल है।
 

Makhanlal Chaturvedi

माखनलाल चतुर्वेदी परिचय

माखनलाल चतुर्वेदी कविता /कविताएं

गिरि पर चढ़ते, धीरे-धीर / माखनलाल चतुर्वेदी

सूझ ! सलोनी, शारद-छौनी,

यों न छका, धीरे-धीरे !

फिसल न जाऊँ, छू भर पाऊँ,

री, न थका, धीरे-धीरे !

कम्पित दीठों की कमल करों में ले ले,

पलकों का प्यारा रंग जरा चढ़ने दे,

मत चूम! नेत्र पर आ, मत जाय असाढ़,

री चपल चितेरी! हरियाली छवि काढ़ !

ठहर अरसिके, आ चल हँस के,

कसक मिटा, धीरे-धीरे !

झट मूँद, सुनहाली धूल, बचा नयनों से

मत भूल, डालियों के मीठे बयनों से,

कर प्रकट विश्व-निधि रथ इठलाता, लाता

यह कौन जगत के पलक खोलता आता?

तू भी यह ले, रवि के पहले,

शिखर चढ़ा, धीरे-धीरे।

माखनलाल चतुर्वेदी (4 अप्रैल 1889-30 जनवरी 1968) भारत के ख्यातिप्राप्त कवि, लेखक और पत्रकार थे जिनकी रचनाएँ अत्यंत लोकप्रिय हुईं। सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के वे अनूठे हिंदी रचनाकार थे। प्रभा और कर्मवीर जैसे प्रतिष्ठत पत्रों के संपादक के रूप में उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जोरदार प्रचार किया और नई पीढ़ी का आह्वान किया कि वह गुलामी की जंज़ीरों को तोड़ कर बाहर आए। इसके लिये उन्हें अनेक बार ब्रिटिश साम्राज्य का कोपभाजन बनना पड़ा। वे सच्चे देशप्रमी थे और १९२१-२२ के असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए जेल भी गए। आपकी कविताओं में देशप्रेम के साथ-साथ प्रकृति और प्रेम का भी चित्रण हुआ है।

क्यों बाँध तोड़ती उषा, मौन के प्रण के?

क्यों श्रम-सीकर बह चले, फूल के, तृण के?

किसके भय से तोरण तस्र्-वृन्द लगाते?

क्यों अरी अराजक कोकिल, स्वागत गाते?

तू मत देरी से, रण-भेरी से

शिखर गुँजा, धीरे-धीरे।

फट पड़ा ब्रह्य! क्या छिपें? चलो माया में,

पाषाणों पर पंखे झलती छाया में,

बूढ़े शिखरों के बाल-तृणों में छिप के,

झरनों की धुन पर गायें चुपके-चुपके

हाँ, उस छलिया की, साँवलिया की,

टेर लगे, धीरे-धीरे।

तस्र्-लता सींखचे, शिला-खंड दीवार,

गहरी सरिता है बन्द यहाँ का द्वार,

बोले मयूर, जंजीर उठी झनकार,

चीते की बोली, पहरे का `हुशियार'!

मैं आज कहाँ हूँ, जान रहा हूँ,

बैठ यहाँ, धीरे-धीरे।

आपत का शासन, अमियों? अध-भूखे,

चक्कर खाता हूँ सूझ और मैं सूखे,

निर्द्वन्द्व, शिला पर भले रहूँ आनन्दी,

हो गया क़िन्तु सम्राट शैल का बन्दी।

तू तस्र्-पुंजों, उलझी कुंजों से

राह बता, धीरे-धीरे।

रह-रह डरता हूँ, मैं नौका पर चढ़ते,

डगमग मुक्ति की धारा में, यों बढ़ते,

यह कहाँ ले चली कौन निम्नगा धन्या !

वृन्दावन-वासिनी है क्या यह रवि-कन्या?

यों मत भटकाये, होड़ लगाये,

बहने दे, धीरे-धीरे

और कंस के बन्दी से कुछ

कहने दे, धीरे-धीरे !

कुंज कुटीरे यमुना तीरे / माखनलाल चतुर्वेदी

पगली तेरा ठाट !

किया है रतनाम्बर परिधान

अपने काबू नहीं,

और यह सत्याचरण विधान !

उन्मादक मीठे सपने ये,

ये न अधिक अब ठहरें,

साक्षी न हों, न्याय-मन्दिर में

कालिन्दी की लहरें।

डोर खींच मत शोर मचा,

मत बहक, लगा मत जोर,

माँझी, थाह देखकर आ

तू मानस तट की ओर ।

कौन गा उठा? अरे!

करे क्यों ये पुतलियाँ अधीर?

इसी कैद के बन्दी हैं

वे श्यामल-गौर-शरीर।

पलकों की चिक पर

हृत्तल के छूट रहे फव्वारे,

नि:श्वासें पंखे झलती हैं

उनसे मत गुंजारे;

यही व्याधि मेरी समाधि है,

यही राग है त्याग;

क्रूर तान के तीखे शर,

मत छेदे मेरे भाग।

काले अंतस्तल से छूटी

कालिन्दी की धार

पुतली की नौका पर

लायी मैं दिलदार उतार

बादबान तानी पलकों ने,

हा! यह क्या व्यापार !

कैसे ढूँढ़ू हृदय-सिन्धु में

छूट पड़ी पतवार !

भूली जाती हूँ अपने को,

प्यारे, मत कर शोर,

भाग नहीं, गह लेने दे,

अपने अम्बर का छोर।

अरे बिकी बेदाम कहाँ मैं,

हुई बड़ी तकसीर,

धोती हूँ; जो बना चुकी

हूँ पुतली में तसवीर;

डरती हूँ दिखलायी पड़ती

तेरी उसमें बंसी

कुंज कुटीरे, यमुना तीरे

तू दिखता जदुबंसी।

अपराधी हूँ, मंजुल मूरत

ताकी, हा! क्यों ताकी?

बनमाली हमसे न धुलेगी

ऐसी बाँकी झाँकी।

अरी खोद कर मत देखे,

वे अभी पनप पाये हैं,

बड़े दिनों में खारे जल से,

कुछ अंकुर आये हैं,

पत्ती को मस्ती लाने दे,

कलिका कढ़ जाने दे,

अन्तर तर को, अन्त चीर कर,

अपनी पर आने दे,

ही-तल बेध, समस्त खेद तज,

मैं दौड़ी आऊँगी,

नील सिंधु-जल-धौत चरण

पर चढ़कर खो जाऊँगी।

कैदी और कोकिला / माखनलाल चतुर्वेदी

क्या गाती हो?

क्यों रह-रह जाती हो?

कोकिल बोलो तो!

क्या लाती हो?

सन्देशा किसका है?

कोकिल बोलो तो!

ऊँची काली दीवारों के घेरे में,

डाकू, चोरों, बटमारों के डेरे में,

जीने को देते नहीं पेट भर खाना,

मरने भी देते नहीं, तड़प रह जाना!

जीवन पर अब दिन-रात कड़ा पहरा है,

शासन है, या तम का प्रभाव गहरा है?

हिमकर निराश कर चला रात भी काली,

इस समय कालिमामयी जगी क्यूँ आली ?

क्यों हूक पड़ी?

वेदना-बोझ वाली-सी;

कोकिल बोलो तो!

"क्या लुटा?

मृदुल वैभव की रखवाली सी;

कोकिल बोलो तो।"

बन्दी सोते हैं, है घर-घर श्वासों का

दिन के दुख का रोना है निश्वासों का,

अथवा स्वर है लोहे के दरवाजों का,

बूटों का, या सन्त्री की आवाजों का,

या गिनने वाले करते हाहाकार।

सारी रातें है-एक, दो, तीन, चार-!

मेरे आँसू की भरीं उभय जब प्याली,

बेसुरा! मधुर क्यों गाने आई आली?

क्या हुई बावली?

अर्द्ध रात्रि को चीखी,

कोकिल बोलो तो!

किस दावानल की

ज्वालाएँ हैं दीखीं?

कोकिल बोलो तो!

निज मधुराई को कारागृह पर छाने,

जी के घावों पर तरलामृत बरसाने,

या वायु-विटप-वल्लरी चीर, हठ ठाने

दीवार चीरकर अपना स्वर अजमाने,

या लेने आई इन आँखों का पानी?

नभ के ये दीप बुझाने की है ठानी!

खा अन्धकार करते वे जग रखवाली

क्या उनकी शोभा तुझे न भाई आली?

तुम रवि-किरणों से खेल,

जगत् को रोज जगाने वाली,

कोकिल बोलो तो!

क्यों अर्द्ध रात्रि में विश्व

जगाने आई हो? मतवाली

कोकिल बोलो तो !

दूबों के आँसू धोती रवि-किरनों पर,

मोती बिखराती विन्ध्या के झरनों पर,

ऊँचे उठने के व्रतधारी इस वन पर,

ब्रह्माण्ड कँपाती उस उद्दण्ड पवन पर,

तेरे मीठे गीतों का पूरा लेखा

मैंने प्रकाश में लिखा सजीला देखा।

तब सर्वनाश करती क्यों हो,

तुम, जाने या बेजाने?

कोकिल बोलो तो!

क्यों तमोपत्र पत्र विवश हुई

लिखने चमकीली तानें?

कोकिल बोलो तो!

क्या?-देख न सकती जंजीरों का गहना?

हथकड़ियाँ क्यों? यह ब्रिटिश-राज का गहना,

कोल्हू का चर्रक चूँ? -जीवन की तान,

मिट्टी पर अँगुलियों ने लिक्खे गान?

हूँ मोट खींचता लगा पेट पर जूआ,

खाली करता हूँ ब्रिटिश अकड़ का कूआ।

दिन में कस्र्णा क्यों जगे, स्र्लानेवाली,

इसलिए रात में गजब ढा रही आली?

इस शान्त समय में,

अन्धकार को बेध, रो रही क्यों हो?

कोकिल बोलो तो!

चुपचाप, मधुर विद्रोह-बीज

इस भाँति बो रही क्यों हो?

कोकिल बोलो तो!

काली तू, रजनी भी काली,

शासन की करनी भी काली

काली लहर कल्पना काली,

मेरी काल कोठरी काली,

टोपी काली कमली काली,

मेरी लोह-श्रृंखला काली,

पहरे की हुंकृति की व्याली,

तिस पर है गाली, ऐ आली!

इस काले संकट-सागर पर

मरने की, मदमाती!

कोकिल बोलो तो!

अपने चमकीले गीतों को

क्योंकर हो तैराती!

कोकिल बोलो तो!

तेरे `माँगे हुए' न बैना,

री, तू नहीं बन्दिनी मैना,

न तू स्वर्ण-पिंजड़े की पाली,

तुझे न दाख खिलाये आली!

तोता नहीं; नहीं तू तूती,

तू स्वतन्त्र, बलि की गति कूती

तब तू रण का ही प्रसाद है,

तेरा स्वर बस शंखनाद है।

दीवारों के उस पार!

या कि इस पार दे रही गूँजें?

हृदय टटोलो तो!

त्याग शुक्लता,

तुझ काली को, आर्य-भारती पूजे,

कोकिल बोलो तो!

तुझे मिली हरियाली डाली,

मुझे नसीब कोठरी काली!

तेरा नभ भर में संचार

मेरा दस फुट का संसार!

तेरे गीत कहावें वाह,

रोना भी है मुझे गुनाह!

देख विषमता तेरी मेरी,

बजा रही तिस पर रण-भेरी!

इस हुंकृति पर,

अपनी कृति से और कहो क्या कर दूँ?

कोकिल बोलो तो!

मोहन के व्रत पर,

प्राणों का आसव किसमें भर दूँ!

कोकिल बोलो तो!

फिर कुहू!---अरे क्या बन्द न होगा गाना?

इस अंधकार में मधुराई दफनाना?

नभ सीख चुका है कमजोरों को खाना,

क्यों बना रही अपने को उसका दाना?

फिर भी कस्र्णा-गाहक बन्दी सोते हैं,

स्वप्नों में स्मृतियों की श्वासें धोते हैं!

इन लोह-सीखचों की कठोर पाशों में

क्या भर देगी? बोलो निद्रित लाशों में?

क्या? घुस जायेगा स्र्दन

तुम्हारा नि:श्वासों के द्वारा,

कोकिल बोलो तो!

और सवेरे हो जायेगा

उलट-पुलट जग सारा,

कोकिल बोलो तो!

मैं अपने से डरती हूँ सखि / माखनलाल चतुर्वेदी

मैं अपने से डरती हूँ सखि !

पल पर पल चढ़ते जाते हैं,

पद-आहट बिन, रो! चुपचाप

बिना बुलाये आते हैं दिन,

मास, वरस ये अपने-आप;

लोग कहें चढ़ चली उमर में

पर मैं नित्य उतरती हूँ सखि !

मैं अपने से डरती हूँ सखि !

मैं बढ़ती हूँ? हाँ; हरि जानें

यह मेरा अपराध नहीं है,

उतर पड़ूँ यौवन के रथ से

ऐसी मेरी साध नहीं है;

लोग कहें आँखें भर आईं,

मैं नयनों से झरती हूँ सखि !

मैं अपने से डरती हूँ सखि !

किसके पंखों पर, भागी

जाती हैं मेरी नन्हीं साँसें ?

कौन छिपा जाता है मेरी

साँसों में अनगिनी उसाँसें ?

लोग कहें उन पर मरती है

मैं लख उन्हें उभरती हूँ सखि !

मैं अपने से डरती हूँ सखि !

सूरज से बेदाग, चाँद से

रहे अछूती, मंगल-वेला,

खेला करे वही प्राणों में,

जो उस दिन प्राणों पर खेला,

लोग कहें उन आँखों डूबी,

मैं उन आँखों तरती हूँ सखि !

मैं अपने से डरती हूँ सखि !

जब से बने प्राण के बन्धन,

छूट गए गठ-बन्धन रानी,

लिखने के पहले बन बैठी,

मैं ही उनकी प्रथम कहानी,

लोग कहें आँखें बहती हैं;

उनके चरण भिगोने आयें,

जिस दिन शैल-शिखिरियाँ उनको

रजत मुकुट पहनाने आयें,

लोग कहें, मैं चढ़ न सकूँगी-

बोझीली; प्रण करती हूँ सखि !

मैं नर्मदा बनी उनके,

प्राणों पर नित्य लहरती हूँ सखि !

मैं अपने से डरती हूँ सखि !

दीप से दीप जले / माखनलाल चतुर्वेदी

सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें

कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।

लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में

लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में

लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में

लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में

लक्ष्मी सर्जन हुआ

कमल के फूलों में

लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।

गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार

सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो शृंगार

मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल

सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल

शकट चले जलयान चले

गतिमान गगन के गान

तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।।

उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे

रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,

सिर बोकर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों लेकर

गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजोकर

भवन-भवन तेरा मंदिर है

स्वर है श्रम की वाणी

राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।।

वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी

खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी

सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू करके खेल

आज हुआ श्रम-सीकर के घर हमसे उनसे मेल।

तू ही जगत की जय है,

तू है बुद्धिमयी वरदात्री

तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।।

युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें

सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।

लड्डू ले लो / माखनलाल चतुर्वेदी

ले लो दो आने के चार

लड्डू राज गिरे के यार

यह हैं धरती जैसे गोल

ढुलक पड़ेंगे गोल मटोल

इनके मीठे स्वादों में ही

बन आता है इनका मोल

दामों का मत करो विचार

ले लो दो आने के चार।

लोगे खूब मज़ा लायेंगे

ना लोगे तो ललचायेंगे

मुन्नी, लल्लू, अरुण, अशोक

हँसी खुशी से सब खायेंगे

इनमें बाबू जी का प्यार

ले लो दो आने के चार।

कुछ देरी से आया हूँ मैं

माल बना कर लाया हूँ मैं

मौसी की नज़रें इन पर हैं

फूफा पूछ रहे क्या दर है

जल्द खरीदो लुटा बजार

ले लो दो आने के चार।

एक तुम हो / माखनलाल चतुर्वेदी

गगन पर दो सितारे: एक तुम हो,

धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,

‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो,

हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो,

रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा,

कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा ।

कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये,

हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये,

तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते,

कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते ।

तुझे सौगंध है घनश्याम की आ,

तुझे सौगंध भारत-धाम की आ,

तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ,

कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ ।

तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा,

तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा,

तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा,

तुम्हारे बोल ! भू की दिव्य महिमा

तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर,

तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर ।

रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा,

कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,

प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो,

जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।

रचनाकाल: खण्डवा-१९४०

सिपाही / माखनलाल चतुर्वेदी

गिनो न मेरी श्वास,

छुए क्यों मुझे विपुल सम्मान?

भूलो ऐ इतिहास,

खरीदे हुए विश्व-ईमान !!

अरि-मुड़ों का दान,

रक्त-तर्पण भर का अभिमान,

लड़ने तक महमान,

एक पँजी है तीर-कमान!

मुझे भूलने में सुख पाती,

जग की काली स्याही,

दासो दूर, कठिन सौदा है

मैं हूँ एक सिपाही !

क्या वीणा की स्वर-लहरी का

सुनूँ मधुरतर नाद?

छि:! मेरी प्रत्यंचा भूले

अपना यह उन्माद!

झंकारों का कभी सुना है

भीषण वाद विवाद?

क्या तुमको है कुस्र्-क्षेत्र

हलदी-घाटी की याद!

सिर पर प्रलय, नेत्र में मस्ती,

मुट्ठी में मन-चाही,

लक्ष्य मात्र मेरा प्रियतम है,

मैं हूँ एक सिपाही !

खीचों राम-राज्य लाने को,

भू-मंडल पर त्रेता !

बनने दो आकाश छेदकर

उसको राष्ट्र-विजेता

जाने दो, मेरी किस

बूते कठिन परीक्षा लेता,

कोटि-कोटि `कंठों' जय-जय है

आप कौन हैं, नेता?

सेना छिन्न, प्रयत्न खिन्न कर,

लाये न्योत तबाही,

कैसे पूजूँ गुमराही को

मैं हूँ एक सिपाही?

बोल अरे सेनापति मेरे!

मन की घुंडी खोल,

जल, थल, नभ, हिल-डुल जाने दे,

तू किंचित् मत डोल !

दे हथियार या कि मत दे तू

पर तू कर हुंकार,

ज्ञातों को मत, अज्ञातों को,

तू इस बार पुकार!

धीरज रोग, प्रतीक्षा चिन्ता,

सपने बनें तबाही,

कह `तैयार'! द्वार खुलने दे,

मैं हूँ एक सिपाही !

बदलें रोज बदलियाँ, मत कर

चिन्ता इसकी लेश,

गर्जन-तर्जन रहे, देख

अपना हरियाला देश!

खिलने से पहले टूटेंगी,

तोड़, बता मत भेद,

वनमाली, अनुशासन की

सूजी से अन्तर छेद!

श्रम-सीकर प्रहार पर जीकर,

बना लक्ष्य आराध्य

मैं हूँ एक सिपाही, बलि है

मेरा अन्तिम साध्य !

कोई नभ से आग उगलकर

किये शान्ति का दान,

कोई माँज रहा हथकड़ियाँ

छेड़ क्रांन्ति की तान!

कोई अधिकारों के चरणों

चढ़ा रहा ईमान,

`हरी घास शूली के पहले

की'-तेरा गुण गान!

आशा मिटी, कामना टूटी,

बिगुल बज पड़ी यार!

मैं हूँ एक सिपाही ! पथ दे,

खुला देख वह द्वार !!

चल पडी चुपचाप सन-सन-सन हवा,

डालियों को यों चिढाने-सी लगी,

आंख की कलियां, अरी, खोलो जरा,

हिल स्वपतियों को जगाने-सी लगी,

पत्तियों की चुटकियां झट दीं बजा,

डालियां कुछ ढुलमुलाने-सी लगीं।

किस परम आनंद-निधि के चरण पर,

विश्व-सांसें गीत गाने-सी लगीं।

जग उठा तरु-वृंद-जग, सुन घोषणा,

पंछियों में चहचहाट मच गई,

वायु का झोंका जहां आया वहां-

विश्व में क्यों सनसनाहट मच गई?

वरदान या अभिशाप? / माखनलाल चतुर्वेदी

कौन पथ भूले, कि आये !

स्नेह मुझसे दूर रहकर

कौनसे वरदान पाये?

यह किरन-वेला मिलन-वेला

बनी अभिशाप होकर,

और जागा जग, सुला

अस्तित्व अपना पाप होकर;

छलक ही उट्ठे, विशाल !

न उर-सदन में तुम समाये।

उठ उसाँसों ने, सजन,

अभिमानिनी बन गीत गाये,

फूल कब के सूख बीते,

शूल थे मैंने बिछाये।

शूल के अमरत्व पर

बलि फूल कर मैंने चढ़ाये,

तब न आये थे मनाये-

कौन पथ भूले, कि आये?

बलि-पन्थी से / माखनलाल चतुर्वेदी

मत व्यर्थ पुकारे शूल-शूल,

कह फूल-फूल, सह फूल-फूल।

हरि को ही-तल में बन्द किये,

केहरि से कह नख हूल-हूल।

कागों का सुन कर्त्तव्य-राग,

कोकिल-काकलि को भूल-भूल।

सुरपुर ठुकरा, आराध्य कहे,

तो चल रौरव के कूल-कूल।

भूखंड बिछा, आकाश ओढ़,

नयनोदक ले, मोदक प्रहार,

ब्रह्यांड हथेली पर उछाल,

अपने जीवन-धन को निहार।

जवानी / माखनलाल चतुर्वेदी

प्राण अन्तर में लिये, पागल जवानी !

कौन कहता है कि तू

विधवा हुई, खो आज पानी?

चल रहीं घड़ियाँ,

चले नभ के सितारे,

चल रहीं नदियाँ,

चले हिम-खंड प्यारे;

चल रही है साँस,

फिर तू ठहर जाये?

दो सदी पीछे कि

तेरी लहर जाये?

पहन ले नर-मुंड-माला,

उठ, स्वमुंड सुमेस्र् कर ले;

भूमि-सा तू पहन बाना आज धानी

प्राण तेरे साथ हैं, उठ री जवानी!

द्वार बलि का खोल

चल, भूडोल कर दें,

एक हिम-गिरि एक सिर

का मोल कर दें

मसल कर, अपने

इरादों-सी, उठा कर,

दो हथेली हैं कि

पृथ्वी गोल कर दें?

रक्त है? या है नसों में क्षुद्र पानी!

जाँच कर, तू सीस दे-देकर जवानी?

वह कली के गर्भ से, फल-

रूप में, अरमान आया!

देख तो मीठा इरादा, किस

तरह, सिर तान आया!

डालियों ने भूमि स्र्ख लटका

दिये फल, देख आली !

मस्तकों को दे रही

संकेत कैसे, वृक्ष-डाली !

फल दिये? या सिर दिये?त तस्र् की कहानी-

गूँथकर युग में, बताती चल जवानी !

श्वान के सिर हो-

चरण तो चाटता है!

भोंक ले-क्या सिंह

को वह डाँटता है?

रोटियाँ खायीं कि

साहस खा चुका है,

प्राणि हो, पर प्राण से

वह जा चुका है।

तुम न खोलो ग्राम-सिंहों मे भवानी !

विश्व की अभिमन मस्तानी जवानी !

ये न मग हैं, तव

चरण की रखियाँ हैं,

बलि दिशा की अमर

देखा-देखियाँ हैं।

विश्व पर, पद से लिखे

कृति लेख हैं ये,

धरा तीर्थों की दिशा

की मेख हैं ये।

प्राण-रेखा खींच दे, उठ बोल रानी,

री मरण के मोल की चढ़ती जवानी।

टूटता-जुड़ता समय

`भूगोल' आया,

गोद में मणियाँ समेट

खगोल आया,

क्या जले बारूद?-

हिम के प्राण पाये!

क्या मिला? जो प्रलय

के सपने न आये।

धरा?- यह तरबूज

है दो फाँक कर दे,

चढ़ा दे स्वातन्त्रय-प्रभू पर अमर पानी।

विश्व माने-तू जवानी है, जवानी !

लाल चेहरा है नहीं-

फिर लाल किसके?

लाल खून नहीं?

अरे, कंकाल किसके?

प्रेरणा सोयी कि

आटा-दाल किसके?

सिर न चढ़ पाया

कि छाया-माल किसके?

वेद की वाणी कि हो आकाश-वाणी,

धूल है जो जग नहीं पायी जवानी।

विश्व है असि का?-

नहीं संकल्प का है;

हर प्रलय का कोण

काया-कल्प का है;

फूल गिरते, शूल

शिर ऊँचा लिये हैं;

रसों के अभिमान

को नीरस किये हैं।

खून हो जाये न तेरा देख, पानी,

मर का त्यौहार, जीवन की जवानी।

अमर राष्ट्र / माखनलाल चतुर्वेदी

छोड़ चले, ले तेरी कुटिया,

यह लुटिया-डोरी ले अपनी,

फिर वह पापड़ नहीं बेलने;

फिर वह माल पडे न जपनी।

यह जागृति तेरी तू ले-ले,

मुझको मेरा दे-दे सपना,

तेरे शीतल सिंहासन से

सुखकर सौ युग ज्वाला तपना।

सूली का पथ ही सीखा हूँ,

सुविधा सदा बचाता आया,

मैं बलि-पथ का अंगारा हूँ,

जीवन-ज्वाल जलाता आया।

एक फूँक, मेरा अभिमत है,

फूँक चलूँ जिससे नभ जल थल,

मैं तो हूँ बलि-धारा-पन्थी,

फेंक चुका कब का गंगाजल।

इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे,

इस उतार से जा न सकोगे,

तो तुम मरने का घर ढूँढ़ो,

जीवन-पथ अपना न सकोगे।

श्वेत केश?- भाई होने को-

हैं ये श्वेत पुतलियाँ बाकी,

आया था इस घर एकाकी,

जाने दो मुझको एकाकी।

अपना कृपा-दान एकत्रित

कर लो, उससे जी बहला लें,

युग की होली माँग रही है,

लाओ उसमें आग लगा दें।

मत बोलो वे रस की बातें,

रस उसका जिसकी तस्र्णाई,

रस उसका जिसने सिर सौंपा,

आगी लगा भभूत रमायी।

जिस रस में कीड़े पड़ते हों,

उस रस पर विष हँस-हँस डालो;

आओ गले लगो, ऐ साजन!

रेतो तीर, कमान सँभालो।

हाय, राष्ट्र-मन्दिर में जाकर,

तुमने पत्थर का प्रभू खोजा!

लगे माँगने जाकर रक्षा

और स्वर्ण-रूपे का बोझा?

मैं यह चला पत्थरों पर चढ़,

मेरा दिलबर वहीं मिलेगा,

फूँक जला दें सोना-चाँदी,

तभी क्रान्ति का समुन खिलेगा।

चट्टानें चिंघाड़े हँस-हँस,

सागर गरजे मस्ताना-सा,

प्रलय राग अपना भी उसमें,

गूँथ चलें ताना-बाना-सा,

बहुत हुई यह आँख-मिचौनी,

तुम्हें मुबारक यह वैतरनी,

मैं साँसों के डाँड उठाकर,

पार चला, लेकर युग-तरनी।

मेरी आँखे, मातृ-भूमि से

नक्षत्रों तक, खीचें रेखा,

मेरी पलक-पलक पर गिरता

जग के उथल-पुथल का लेखा !

मैं पहला पत्थर मन्दिर का,

अनजाना पथ जान रहा हूँ,

गूड़ँ नींव में, अपने कन्धों पर

मन्दिर अनुमान रहा हूँ।

मरण और सपनों में

होती है मेरे घर होड़ा-होड़ी,

किसकी यह मरजी-नामरजी,

किसकी यह कौड़ी-दो कौड़ी?

अमर राष्ट्र, उद्दण्ड राष्ट्र, उन्मुक्त राष्ट्र !

यह मेरी बोली

यह `सुधार' `समझौतों' बाली

मुझको भाती नहीं ठठोली।

मैं न सहूँगा-मुकुट और

सिंहासन ने वह मूछ मरोरी,

जाने दे, सिर, लेकर मुझको

ले सँभाल यह लोटा-डोरी !

उपालम्भ / माखनलाल चतुर्वेदी

क्यों मुझे तुम खींच लाये?

एक गो-पद था, भला था,

कब किसी के काम का था?

क्षुद्ध तरलाई गरीबिन

अरे कहाँ उलीच लाये?

एक पौधा था, पहाड़ी

पत्थरों में खेलता था,

जिये कैसे, जब उखाड़ा

गो अमृत से सींच लाये!

एक पत्थर बेगढ़-सा

पड़ा था जग-ओट लेकर,

उसे और नगण्य दिखलाने,

नगर-रव बीच लाये?

एक वन्ध्या गाय थी

हो मस्त बन में घूमती थी,

उसे प्रिय! किस स्वाद से

सिंगार वध-गृह बीच लाये?

एक बनमानुष, बनों में,

कन्दरों में, जी रहा था;

उसे बलि करने कहाँ तुम,

ऐ उदार दधीच लाये?

जहाँ कोमलतर, मधुरतम

वस्तुएँ जी से सजायीं,

इस अमर सौन्दर्य में, क्यों

कर उठा यह कीच लाये?

चढ़ चुकी है, दूसरे ही

देवता पर, युगों पहले,

वही बलि निज-देव पर देने

दृगों को मींच लाये?

क्यों मुझे तुम खींच लाये?

मुझे रोने दो / माखनलाल चतुर्वेदी

भाई, छेड़ो नहीं, मुझे

खुलकर रोने दो।

यह पत्थर का हृदय

आँसुओं से धोने दो।

रहो प्रेम से तुम्हीं

मौज से मजुं महल में,

मुझे दुखों की इसी

झोपड़ी में सोने दो।

कुछ भी मेरा हृदय

न तुमसे कह पावेगा

किन्तु फटेगा, फटे

बिना क्या रह पावेगा,

सिसक-सिसक सानंद

आज होगी श्री-पूजा,

बहे कुटिल यह सौख्य,

दु:ख क्यों बह पावेगा?

वारूँ सौ-सौ श्वास

एक प्यारी उसांस पर,

हारूँ अपने प्राण, दैव,

तेरे विलास पर

चलो, सखे, तुम चलो,

तुम्हारा कार्य चलाओ,

लगे दुखों की झड़ी

आज अपने निराश पर!

हरि खोया है? नहीं,

हृदय का धन खोया है,

और, न जाने वहीं

दुरात्मा मन खोया है।

किन्तु आज तक नहीं,

हाय, इस तन को खोया,

अरे बचा क्या शेष,

पूर्ण जीवन खोया है!

पूजा के ये पुष्प

गिरे जाते हैं नीचे,

वह आँसू का स्रोत

आज किसके पद सींचे,

दिखलाती, क्षणमात्र

न आती, प्यारी किस भांति

उसे भूतल पर खीचें।

तुम मिले / माखनलाल चतुर्वेदी

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई!

भूलती-सी जवानी नई हो उठी,

भूलती-सी कहानी नई हो उठी,

जिस दिवस प्राण में नेह बंसी बजी,

बालपन की रवानी नई हो उठी।

किन्तु रसहीन सारे बरस रसभरे

हो गए जब तुम्हारी छटा भा गई।

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।

घनों में मधुर स्वर्ण-रेखा मिली,

नयन ने नयन रूप देखा, मिली-

पुतलियों में डुबा कर नज़र की कलम

नेह के पृष्ठ को चित्र-लेखा मिली;

बीतते-से दिवस लौटकर आ गए

बालपन ले जवानी संभल आ गई।

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।

तुम मिले तो प्रणय पर छटा छा गई,

चुंबनों, सावंली-सी घटा छा गई,

एक युग, एक दिन, एक पल, एक क्षण

पर गगन से उतर चंचला आ गई।

प्राण का दान दे, दान में प्राण ले

अर्चना की अमर चाँदनी छा गई।

तुम मिले, प्राण में रागिनी छा गई।

यह किसका मन डोला / माखनलाल चतुर्वेदी

यह किसका मन डोला?

मृदुल पुतलियों के उछाल पर,

पलकों के हिलते तमाल पर,

नि:श्वासों के ज्वाल-जाल पर,

कौन लिख रहा व्यथा कथा?

किसका धीरज `हाँ' बोला?

किस पर बरस पड़ीं यह घड़ियाँ

यह किसका मन डोला?

कस्र्णा के उलझे तारों से,

विवश बिखरती मनुहारों से,

आशा के टूटे द्वारों से-

झाँक-झाँककर, तरल शाप में-

किसने यों वर घोला

कैसे काले दाग पड़ गये!

यह किसका मन डोला?

फूटे क्यों अभाव के छाले,

पड़ने लगे ललक के लाले,

यह कैसे सुहाग पर ताले!

अरी मधुरिमा पनघट पर यह-

घट का बंधन खोला?

गुन की फाँसी टूटी लखकर

यह किसका मन डोला?

अंधकार के श्याम तार पर,

पुतली का वैभव निखारकर,

वेणी की गाँठें सँवारकर,

चाँद और तम में प्रिय कैसा-

यह रिश्ता मुँह-बोला?

वेणु और वेणी में झगड़ा

यह किसका मन डोला?

बेचारा गुलाब था चटका

उससे भूमि-कम्प का झटका

लेखा, और सजनि घट-घट का!

यह धीरज, सतपुड़ा शिखर-

सा स्थिर, हो गया हिंडोला,

फूलों के रेशे की फाँसी

यह किसका मन डोला?

एक आँख में सावन छाया,

दूजी में भादों भर आया

घड़ी झड़ी थी, झड़ी घड़ी थी

गरजन, बरसन, पंकिल, मलजल,

छुपा `सुवर्ण खटोला'

रो-रो खोया चाँद हाय री?

यह किसका मन डोला?

मैं बरसी तो बाढ़ मुझी में?

दीखे आँखों, दूखे जी में

यह दूरी करनी, कथनी में

दैव, स्नेह के अन्तराल से

गरल गले चढ़ बोला

मैं साँसों के पद सुहला ली

यह किसका मन डोला?

जागना अपराध / माखनलाल चतुर्वेदी

जागना अपराध!

इस विजन-वन गोद में सखि,

मुक्ति-बन्धन-मोद में सखि,

विष-प्रहार-प्रमोद में सखि,

मृदुल भावों

स्नेह दावों

अश्रु के अगणित अभावों का शिकारी-

आ गया विध व्याध;

जागना अपराध!

बंक वाली, भौंह काली,

मौत, यह अमरत्व ढाली,

कस्र्ण धन-सी,

तरल घन -सी

सिसकियों के सघन वन-सी,

श्याम-सी,

ताजे, कटे-से,

खेत-सी असहाय,

कौन पूछे?

पुस्र्ष या पशु

आय चाहे जाय,

खोलती सी शाप,

कसकर बाँधती वरदान-

पाप में-

कुछ आप खोती

आप में-

कुछ मान।

ध्यान में, घुन में,

हिये में, घाव में,

शर में,

आँख मूँदें,

ले रही विष को-

अमृत के भाव!

अचल पलक,

अचंचला पुतली

युगों के बीच,

दबी-सी,

उन तरल बूँदों से

कलेजा सींच,

खूब अपने से

लपेट-लपेट

परम अभाव,

चाव से बोली,

प्रलय की साध-

जागना अपराध!

तुम मन्द चलो / माखनलाल चतुर्वेदी

तुम मन्द चलो,

ध्वनि के खतरे बिखरे मग में-

तुम मन्द चलो।

सूझों का पहिन कलेवर-सा,

विकलाई का कल जेवर-सा,

घुल-घुल आँखों के पानी में-

फिर छलक-छलक बन छन्द चलो।

पर मन्द चलो।

प्रहरी पलकें? चुप, सोने दो!

धड़कन रोती है? रोने दो!

पुतली के अँधियारे जग में-

साजन के मग स्वच्छन्द चलो।

पर मन्द चलो।

ये फूल, कि ये काँटे आली,

आये तेरे बाँटे आली!

आलिंगन में ये सूली हैं-

इनमें मत कर फर-फन्द चलो।

तुम मन्द चलो।

ओठों से ओठों की रूठन,

बिखरे प्रसाद, छुटे जूठन,

यह दण्ड-दान यह रक्त-स्नान,

करती चुपचाप पसंद चलो।

पर मन्द चलो।

ऊषा, यह तारों की समाधि,

यह बिछुड़न की जगमगी व्याधि,

तुम भी चाहों को दफनाती,

छवि ढोती, मत्त गयन्द चलो।

पर मन्द चलो।

सारा हरियाला, दूबों का,

ओसों के आँसू ढाल उठा,

लो साथी पाये-भागो ना,

बन कर सखि, मत्त मरंद चलो।

तुम मन्द चलो।

ये कड़ियाँ हैं, ये घड़ियाँ हैं

पल हैं, प्रहार की लड़ियाँ हैं

नीरव निश्वासों पर लिखती-

अपने सिसकन, निस्पन्द चलो।

तुम मन्द चलो।

बसंत मनमाना / माखनलाल चतुर्वेदी

चादर-सी ओढ़ कर ये छायाएँ

तुम कहाँ चले यात्री, पथ तो है बाएँ।

धूल पड़ गई है पत्तों पर डालों लटकी किरणें

छोटे-छोटे पौधों को चर रहे बाग में हिरणें,

दोनों हाथ बुढ़ापे के थर-थर काँपे सब ओर

किन्तु आँसुओं का होता है कितना पागल ज़ोर-

बढ़ आते हैं, चढ़ आते हैं, गड़े हुए हों जैसे

उनसे बातें कर पाता हूँ कि मैं कुछ जैसे-तैसे।

पर्वत की घाटी के पीछे लुका-छिपी का खेल

खेल रही है वायु शीश पर सारी दनिया झेल।

छोटे-छोटे खरगोशों से उठा-उठा सिर बादल

किसको पल-पल झांक रहे हैं आसमान के पागल?

ये कि पवन पर, पवन कि इन पर, फेंक नज़र की डोरी

खींच रहे हैं किसका मन ये दोनों चोरी-चोरी?

फैल गया है पर्वत-शिखरों तक बसन्त मनमाना,

पत्ती, कली, फूल, डालों में दीख रहा मस्ताना।

यौवन का पागलपन / माखनलाल चतुर्वेदी

हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।

सपना है, जादू है, छल है ऐसा

पानी पर बनती-मिटती रेखा-सा,

मिट-मिटकर दुनियाँ देखे रोज़ तमाशा।

यह गुदगुदी, यही बीमारी,

मन हुलसावे, छीजे काया।

हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।

वह आया आँखों में, दिल में, छुपकर,

वह आया सपने में, मन में, उठकर,

वह आया साँसों में से रुक-रुककर।

हो न पुरानी, नई उठे फिर

कैसी कठिन मोहनी माया!

हम कहते हैं बुरा न मानो, यौवन मधुर सुनहली छाया।

रचनाकाल: खण्डवा-१९४०

झूला झूलै री / माखनलाल चतुर्वेदी

संपूरन कै संग अपूरन झूला झूलै री,

दिन तो दिन, कलमुँही साँझ भी अब तो फूलै री।

गड़े हिंडोले, वे अनबोले मन में वृन्दावन में,

निकल पड़ेंगे डोले सखि अब भू में और गगन में,

ऋतु में और ऋचा में कसके रिमझिम-रिमझिम बरसन,

झांकी ऐसी सजी झूलना भी जी भूलै री,

संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।

रूठन में पुतली पर जी की जूठन डोलै री,

अनमोली साधों में मुरली मोहन बोलै री,

करतालन में बँध्यो न रसिया, वह तालन में दीख्यो,

भागूँ कहाँ कलेजौ कालिंदी मैं हूलै री।

संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।

नभ के नखत उतर बूँदों में बागों फूल उठे री,

हरी-हरी डालन राधा माधव से झूल उठे री,

आज प्रणव ने प्रणय भीख से कहा कि नैन उठा तो,

साजन दीख न जाय संभालो जरा दुकूलै री,

दिन तो दिन, कलमुँही साँझ भी अब तो फूलै री,

संपूरन के संग अपूरन झूला झूलै री।

घर मेरा है? / माखनलाल चतुर्वेदी

क्या कहा कि यह घर मेरा है?

जिसके रवि उगें जेलों में,

संध्या होवे वीरानों मे,

उसके कानों में क्यों कहने

आते हो? यह घर मेरा है?

है नील चंदोवा तना कि झूमर

झालर उसमें चमक रहे,

क्यों घर की याद दिलाते हो,

तब सारा रैन-बसेरा है?

जब चाँद मुझे नहलाता है,

सूरज रोशनी पिन्हाता है,

क्यों दीपक लेकर कहते हो,

यह तेरा दीपक लेकर कहते हो,

यह तेरा है, यह मेरा है?

ये आए बादल घूम उठे,

ये हवा के झोंके झूम उठे,

बिजली की चमचम पर चढ़कर

गीले मोती भू चूम उठे;

फिर सनसनाट का ठाठ बना,

आ गई हवा, कजली गाने,

आ गई रात, सौगात लिए,

ये गुलसबो मासूम उठे।

इतने में कोयल बोल उठी,

अपनी तो दुनिया डोल उठी,

यह अंधकार का तरल प्यार

सिसकें बन आयीं जब मलार;

मत घर की याद दिलाओ तुम

अपना तो काला डेरा है।

कलरव, बरसात, हवा ठंडी,

मीठे दाने, खारे मोती,

सब कुछ ले, लौटाया न कभी,

घरवाला महज़ लुटेरा है।

हो मुकुट हिमालय पहनाता

सागर जिसके पद धुलवाता,

यह बंधा बेड़ियों में मंदिर,

मस्जिद, गुस्र्द्वारा मेरा है।

क्या कहा कि यह घर मेरा है?

तान की मरोर / माखनलाल चतुर्वेदी

तू न तान की मरोर

देख, एक साथ चल,

तू न ज्ञान-गर्व-मत्त--

शोर, देख साथ चल।

सूझ की हिलोर की

हिलोरबाज़ियाँ न खोज,

तू न ध्येय की धरा--

गुंजा, न तू जगा मनोज।

तू न कर घमंड, अग्नि,

जल, पवन, अनंग संग

भूमि आसमान का चढ़े

न अर्थ-हीन रंग।

बात वह नहीं मनुष्य

देवता बना फिरे,

था कि राग-रंगियों--

घिरा, बना-ठना फिरे।

बात वह नहीं कि--

बात का निचोड़ वेद हो,

बात वह नहीं कि-

बात में हज़ार भेद हो।

स्वर्ग की तलाश में

न भूमि-लोक भूल देख,

खींच रक्त-बिंदुओं--

भरी, हज़ार स्वर्ण-रेख।

बुद्धि यन्त्र है, चला;

न बुद्धि का गुलाम हो।

सूझ अश्व है, चढ़े--

चलो, कभी न शाम हो।

शीश की लहर उठे--

फसल कि, एक शीश दे।

पीढ़ियाँ बरस उठें

हज़ार शीश शीश ले।

भारतीय नीलिमा

जगे कि टूट-टूट बंद

स्वप्न सत्य हों, बहार--

गा उठे अमंद छन्द।

रचनाकाल: सत्यनारायण कुटीर, प्रयाग--१९४८

पुष्प की अभिलाषा / माखनलाल चतुर्वेदी

चाह नहीं, मैं सुरबाला के

गहनों में गूँथा जाऊँ,

चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध

प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं सम्राटों के शव पर

हे हरि डाला जाऊँ,

चाह नहीं देवों के सिर पर

चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,

मुझे तोड़ लेना बनमाली,

उस पथ पर देना तुम फेंक!

मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,

जिस पथ पर जावें वीर अनेक!

तुम्हारा चित्र / माखनलाल चतुर्वेदी

मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया

कुछ नीले कुछ श्वेत गगन पर

हरे-हरे घन श्यामल वन पर

द्रुत असीम उद्दण्ड पवन पर

चुम्बन आज पवित्र बन गया,

मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।

तुम आए, बोले, तुम खेले

दिवस-रात्रि बांहों पर झेले

साँसों में तूफान सकेले

जो ऊगा वह मित्र बन गया,

मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।

ये टिमटिम-पंथी ये तारे

पहरन मोती जड़े तुम्हारे

विस्तृत! तुम जीते हम हारे!

चाँद साथ सौमित्र बन गया।

मधुर! तुम्हारा चित्र बन गया।

संबंधित पोस्ट

Toplist

नवीनतम लेख

टैग