बस्तर आंदोलन में किसकी मुख्य भूमिका थी? - bastar aandolan mein kisakee mukhy bhoomika thee?

विषयसूची

  • 1 भूमकाल दिवस क्यों मनाया जाता है?
  • 2 1910 के बस्तर विद्रोहियों की सबसे बड़ी जीत क्या थी?
  • 3 बस्तर विद्रोह के मुख्य कारण क्या थे?
  • 4 भूमकाल दिवस कब मनाया जाता है?
  • 5 मध्य भारत में बस्तर विद्रोह कब हुआ था?
  • 6 बस्तर की स्थापना कब हुई?
  • 7 बस्तर विद्रोह क्या है?
  • 8 बस्तर आंदोलन में प्रमुख भूमिका किसकी थी?

भूमकाल दिवस क्यों मनाया जाता है?

इसे सुनेंरोकें10 फरवरी को मनाया जाता है भूमकाल दिवस बस्तर के लोग हर साल 10 फरवरी को भूमकाल दिवस मनाया जाता है. बस्तर के इतिहासकार डॉक्टर सतीश जैन बताते हैं कि ‘सन 1910 में बस्तर के आदिवासियों ने अपने जल, जंगल और जमीन को शोषक वर्ग और अंग्रेजों के हाथों में जाता देख और अंग्रेज हुकूमत ती बेड़ियों से तंग आकर भूमकाल की शुरुआत की थी.

1910 के बस्तर विद्रोहियों की सबसे बड़ी जीत क्या थी?

इसे सुनेंरोकें1 फरवरी, 1910 को सम्पूर्ण बस्तर रियासत में एक साथ महान क्रांति की आग सुलगी। पहले कदम के तौर पर पुलिस चौकियों, फोरेस्ट के सभी ऑफिस और गाँवों में बने स्कूल आग के हवाले कर दिये गये। टेलीग्राफ के तार काट दिये गये। जगदलपुर में कुछ अफगानों की दुकाने लूट ली गयी तथा सरकारी अधिकारियों को पीटा गया।

बस्तर के 1910 के भूमकाल विद्रोह में कौन सी रानी शामिल हुई थी?

इसे सुनेंरोकें7 फरवरी को बस्तर के तत्कालीन राजा रुद्र प्रताप देव ने सेंट्रल प्राविंस के चीफ कमिश्नर को तार भेजकर विद्रोह की जानकारी दी और तत्काल सहायता की मांग की। अंग्रेजों ने 6 मार्च 1910 से भूमकाल विद्रोह का दमन कर दिया। लाल कालेन्द्र सिंह और राजमाता स्वर्ण कुंवर देवी को अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया।

बस्तर विद्रोह के मुख्य कारण क्या थे?

इसे सुनेंरोकेंकाकतीय वंश के शासनकाल के दौरान बस्तर क्षेत्र में सन 1774 से 1910 ई. के मध्य अलग-अलग स्थानों में आदिवासी विद्रोह हुए जिनका मुख्य कारण तत्कालीन मराठा व ब्रिटिश प्रशासन द्वारा बस्तर क्षेत्र में थोपी गई गलत नीतियाँ थी।

भूमकाल दिवस कब मनाया जाता है?

इसे सुनेंरोकेंहर साल 10 फरवरी को मनाते है भूमकाल दिवस माना जाता है कि इसी दिन 1910 में बस्तर के आदिवासियों की तरफ से अंग्रेजो के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंका गया था।

गुण्डाधुर का जन्म कब हुआ?

इसे सुनेंरोकेंदिनांक 2 फरवरी सन् 1910 ई.

मध्य भारत में बस्तर विद्रोह कब हुआ था?

इसे सुनेंरोकेंबस्तर विद्रोह , भी रूप में जाना जाता bhumkal (भूकंप) एक था आदिवासी के खिलाफ 1910 में विद्रोह ब्रिटिश राज की रियासत में बस्तर मध्य भारत में। इसका नेतृत्व मुख्य रूप से एक आदिवासी नेता गुंडा धुर के साथ-साथ राजा के एक दीवान और चचेरे भाई लाल करेंद्र सिंह ने किया था।

बस्तर की स्थापना कब हुई?

इसे सुनेंरोकेंबस्तर रियासत 1324 ईस्वी के आसपास स्थापित हुई थी, जब अंतिम काकातिया राजा, प्रताप रुद्र देव ( 12 9 0-1325) के भाई अन्नाम देव ने वारंगल को छोड़ दिया और बस्तर में अपना शाही साम्रज्य स्थापित किया | महाराजा अन्नम देव के बाद महाराजा हमीर देव , बैताल देव , महाराजा पुरुषोत्तम देव , महाराज प्रताप देव ,दिकपाल देव ,राजपाल देव ने …

भूमकाल आंदोलन क्या है?

इसे सुनेंरोकेंक्या है भूमकाल आंदोलन आप भी जानिए बस्तर में भूमकाल आंदोलन सन् 1909 में प्रारंभ हुआ था। यह आंदोलन आदिवासियों के स्वाभिमान, आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन तथा आदिवासियों की स्वतंत्रता की लड़ाई थी। उन्होंने सीमित संसाधनों के बावजूद अंग्रेजों से लोहा लिया था।

बस्तर विद्रोह क्या है?

बस्तर आंदोलन में प्रमुख भूमिका किसकी थी?

इसे सुनेंरोकेंBastar Bhumkal Andolan आजादी के गुमनाम नायकों में से एक रहे बस्तर के गुंडाधुर ने आदिवासियों की धरती को बचाने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध ‘भूमकाल’ आंदोलन का नेतृत्व किया और अंग्रेजों द्वारा तमाम छल-बल अपनाने के बावजूद वे कभी पकड़े नहीं गए। पीयूष द्विवेदी।

भूम काल क्या है?

इसे सुनेंरोकेंभूमकाल का शाब्दिक अर्थ है अपनी भूमि के लिए लड़ाई लड़ना. इस लड़ाई में आदिवासियों की पूरी कौम ने एक होकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी. इस युद्ध की वजह से बस्तर के आदिवासियों को काफी नुकसान उठाना पड़ा था. भूमकाल के नायक शहीद गुंडाधुर को माना जाता है.

बस्तर संभाग के सुकमा ज़िले के सिलगेर गांव में सीआरपीएफ के कैंप के विरोध में खड़े हुए जनांदोलन को दबाने और माओवादी बताने की कोशिशें लगातार हो रही हैं, लेकिन इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन के इतनी आसानी से ख़त्म हो जाने के आसार नज़र नहीं आते.

सिलगेर में स्थानीयों का धरना. (फोटो: नंदिनी सुंदर)

सिलगेर (छत्तीसगढ़): सुरक्षा बलों के कैंपों के खिलाफ अहिंसक आंदोलन का प्रतीक बनने से पहले तक सिलगेर, कोंटा या बीजापुर के किसी भी अन्य कोया गांव की ही तरह था. इस गांव में चार पुरबे हैं, एक पवित्र बगीचा, जंगल तक फैले खेत, एक पटेल (प्रमुख) और एक पुजारी या पुरोहित है. इस इलाके के दूसरे गांवों की तरह सिलगेर के जीवन को माओवादियों और गांव वालों के खिलाफ राज्य प्रायोजित दस्ते- सलवा जुडूम ने सिर के बल पलट दिया.

2007 में सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई सैकड़ों याचिकाओं में से एक करतम जोगा बनाम भारत संघ, 2007, सिलगेर गांव से है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि 2006-07 में जुडूम ने गांव के दस घरों में आग लगा दी, जबकि पड़ोस में पांच गांवों और 127 घरों में आग लगा दी गई और 10 लोगों की हत्या की गई.

गांव वाले दो सालों तक खेतों और आसपास के जंगलों में भाग गए. जब हालात सुधरे, तब उन्होंने अपने घरों में फिर से बसना शुरू किया. गांव का स्कूल टूट गया था, इसलिए उनके बच्चों को पढ़ने के लिए काफी दूर जाना पड़ा. इसके बाद कोविड-19 महामारी फैल गई. पिछले दो सालों से यहां हर कोई घर में है. कोई कनेक्टिविटी नहीं होने के कारण यहां ऑनलाइन शिक्षा का कोई अर्थ नहीं है.

यह सब 11 मई की रात को बदल गया, जब उनकी जमीन पर रातों-रात एक सीआरपीएफ कैंप उग आया.

पिछले कुछ सालों से प्रशासन सुकमा और बीजापुर के इलाके में, जिसे वह माओवादियों का गढ़ मानता है, सड़कें बनाने के काम में काफी मुस्तैदी से लगा है और इसके लिए हर कुछ किलोमीटर पर सीआरपीएफ कैंप लगाए जा रहे हैं.

सुकमा जिले के दोरनापाल से जगरगुंडा और सिलगेर होते हुए बीजापुर के बासागुड़ा को जोड़ने वाली सड़क को इलाके पर नियंत्रण स्थापित करने की दृष्टि से बेहद अहम माना जा रहा है. हालांकि, माओवादियों के इलाके पर नियंत्रण स्थापित करना इस पूरी कवायद का प्राथमिक लक्ष्य नहीं है.

जैसा कि सिलगेर कैंप में एक पुलिसकर्मी ने हमें बताया, असली लक्ष्य इस पूरे इलाके का चेहरा बदल देने का है ताकि यह दिल्ली जैसा बन जाए.

पिछली बार मैं कोविड महामारी से पहले इस इलाके में गई थी. तब से अब तक इस सड़क के काफी हिस्से का निर्माण हो गया है- जगरगुंडा से सिलगेर के बीच के हिस्से को छोड़कर गहरे गड्ढों वाली कीचड़ से भरी कठिन यात्रा में लगने वाला समय अब काफी कम हो गया है. एक कायदे की सड़क स्वागतयोग्य कदम है- कम से कम मेरे जैसे यात्रियों के लिए- लेकिन क्या गांव वालों को उनके गांवों से होकर गुजरने वाली छह लेन वाली सड़क की वास्तव में कोई जरूरत है, यह बहसतलब सवाल है.

इस सड़क ने जो पर्यावरणीय विनाश किया है, वह अभी ही साफ-साफ देखा जा सकता है. सड़क के लिए जमीन निकालने के लिए जंगल के बड़े हिस्सों की कटाई की गई और पहाड़ियों को काटा गया है. कुछ गांववा लों ने मुझे बताया कि यह सड़क एक तटबंध की भूमिका निभा रही है और एक तरफ से बहकर आने वाले पानी को रोक रही है.

इस तरह से मसला सिर्फ यह नहीं है कि यह सड़क खेती की जमीन निगल कर बनाई गई है, मसला यह भी है कि सड़क के किसी एक तरफ के हिस्से में जलजमाव हो जाता है, और वह खेती लायक नहीं रह जाता है. यह किसी जिंदा शरीर में चाकू से दरार बनाने जैसा है.

सिलगेर की सड़कें.

सुरक्षा कैंपों के लिए निजी जमीनों पर कब्जा

गांव वालों का कहना है कि उन्हें कैंप के अस्तिव में आ जाने की जानकारी तब मिली जब पड़ोस के तर्रेम गांव वाले 12 मई की सुबह को सिलगेर बाजार आए. जिस खेत पर कैंप बनाया गया है, वह कोपमपारा के तीन संबंधित परिवारों की है.

कोपमपारा सिलगेर का एक पुरबा है. यह जमीन उनके जंगल के हिस्से के दूसरी तरफ है. कोरसा भीमे के पति कुछ साल पहले गुजर गए और अब वे उस जमीन पर कोसरा (मोटा अनाज) उगाती हैं. वे अपनी जमीन के एक हिस्से का इस्तेमाल महुआ सुखाने के लिए भी करती हैं.

पड़ोसी मुचाकी जोगा के भी धान उपजाने वाले खेत कैंप की भेंट चढ़ गए हैं. परिवार का कहना है कि जुडूम युग में वे वास्तव में वे इन खेतों पर रहते थे, क्योंकि यह जंगल के करीब था और वे बस हालचाल जानने के लिए गांव आया करते थे.

प्रशासन का दावा है कि यह राजस्व भूमि झाड़ियों से ढकी हुई थी. लेकिन एक महीने से भी ज्यादा समय बाद सरकार ने गांव वालों के दावों के जवाब में कोई रिकॉर्ड पेश नहीं किया है, जबकि आधिकारिक रिकॉर्ड मुहैया कराना सरकार के लिए बांए हाथ का खेल होता.

खेत पर मालिकाना हक सबित करने की सारी जिम्मेदारी गांव वालों पर डाल दी गई है, जो सरपंच, पंचायत सचिव और पटवारी को अपने यहां बुलाने के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं.

हाथ से बना कैंप का नक्शा और कोरसा भीमे. (फोटो: नंदिनी सुंदर)

पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल एरियाज एक्ट (पेसा), 1996 के तहत बस्तर जैसे अनुसूचित क्षेत्रों में गांव वालों की जमीन का किसी भी मकसद से इस्तेमाल करने से पहले के ग्रामीणों से परामर्श करना जरूरी है. लेकिन जब 12 मई को गांव वाले पूछताछ करने के लिए गए तो सीआरपीएफ के जवानों ने उन्हें लाठियां मारकर भगा दिया.

लाठीचार्ज के बाद आस-पास के गांवों में यह बात फैल गई और कैंप के अधिकारियों से बात करने में सिलगेर गांववासियों की मदद करने के लिए काफी लोग इकट्ठा हो गए. 12 मई से 17 मई तक गांव वालों ने लगातार सीआरपीएफ से इस बाबत जवाब मांगने की कोशिश की कि जब तर्रेम कैंप तीन किलोमीटर से भी कम दूरी पर है तो यहां उन्होंने अपना कैंप क्यों और कैसे बनाया है? लेकिन, गांव वालों द्वारा बातचीत की हर कोशिश का जवाब धमकियों, लाठीचार्ज और आंसू गैस से दिया गया.

17 मई तक, करीब 15,000 लोग वहां जमा हो गए थे.

जब वे लोग कैंप पर पहुंचे तो संभवतः डर कर सीआरपीएफ ने हवा में गोलियां चलाईं और पत्थर और आंसू गैस के गोले बरसाए. गांव वाले वापस लौट गए, लेकिन तब तक उनका पारा चढ़ गया था, क्योंकि कैंप पदाधिकारी किसी भी तरह से बात करने के इच्छुक नहीं थे.

जवाब में उन्होंने पलटकर पत्थर फेंकना शुरू कर दिया, हालांकि इससे गाड़ी की खिड़कियों के अलावा किसी को और कोई नुकसान नहीं पहुंचा. 11:30 बजे सुबह जब गांव वाले कैंप से करीब 100 मीटर की दूरी पर थे, सीआरपीएफ ने फायरिंग शुरू कर दी.

तीन पुरुष प्रदर्शनकारी- तिमापुरम के 14 वर्षीय उइका पांडू, सतुबायी के 30 वर्षीय कोवासी वगल और गुंडम के 35 वर्षीय उर्सा भीमा की गोली लगने से मौत हो गई. तीन महीने की गर्भवती पूनेम सोमली भगदड़ में गिर गई और कुछ दिनों बाद उसकी मौत हो गई. करीब 40 लोग जख्मी भी हुए.

फायरिंग के बाद गांव वालों ने शवों को हासिल करना चाहा, लेकिन सीआरपीएफ ने और लोगों को गोली मारने की धमकी दी. इसलिए उन्होंने यह विचार त्याग दिया. सीआरपीएफ उसके बाद शवों को बीजापुर लेकर गई और वहां उनका पोस्टमार्टम करवाया गया, लेकिन वह रिपोर्ट अभी तक गांव वालों को नहीं दी गई है.

उन्हें शवों को वापस लाने और उनके संबंधित गांवों में उन्हें वापस भेजने में तीन दिन लगा. बाद में जब मैंने सीआरपीएफ के जवानों से गोलीबारी को लेकर उनका पक्ष जानना चाहा, तब उन सबने उस दिन छुट्टी पर होने का दावा किया.

फायरिंग की खबर मिलते के साथ ही मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं वकील बेला भाटिया और अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज गांव के लिए रवाना हो गए. बेला भाटिया ने बताया कि बीजापुर प्रशासन ने उन्हें तीन दिन तक आगे नहीं जाने दिया, उनका बार-बार कोविड टेस्ट करवाया गया और उन्हें एक तरह से सर्किट हाउस में कैद करके रखा गया.

आखिरकार वे जब वहां से किसी तरह से निकले और गांव पहुंचे, उन्होंने जगरगुंडा पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज की, जिसके अंतर्गत सिलगेर आधिकारिक तौर पर आता है. उम्मीद के अनुसार पुलिस पहले ही गांव वालों पर आरोप लगाते हुए एक एफआईआर दायर कर चुकी थी, जिसमें मारे गए लोगों के नक्सली होने का दावा किया गया था. और उम्मीद के ही अनुसार गांव वालों को इसकी एफआईआर की प्रति नहीं दी गई है.

गांव वालों ने मृतकों का एक स्मारक रोड के किनारे, वारदात स्थल पर बनाया है.

सिलगेर स्मारक. (फोटो: नंदिनी सुंदर)

क्यों है सिलगेर के कैंप का विरोध

सिलगेर धरना में बैठे हुए जितने भी लोगों- जिनमें सिलगेर गांव वाले और दूसरे गांवों के भी लोग शामिल थे, से मैंने पूछा, उन्होंने बताया कि वे कैंप के खिलाफ इसलिए हैं क्योंकि इससे उनके उत्पीड़न का रास्ता तैयार होगा.

मुझे दूसरी जगह दो ऐसे गांव भी मिले, जहां लोगों ने यह स्वीकार किया कि कैंप के लिए उन्होंने ही कहा था, लेकिन उनका कहना था कि ऐसा उन्होंने हताशा में किया था, क्योंकि किसी एक तरफ रहना दोनों ही तरफ से दूसरे पक्ष की मदद करने का आरोप झेलने से बेहतर है.

कुछ गांवों में लोगों ने बताया कि सुरक्षा बल बस आगे बढ़ जाते हैं और कुछ नहीं करते हैं, लेकिन मैंने डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (डीआरजी) या सशस्त्र सहायक सेना और सुरक्षा बलों द्वारा मुर्गे और दूसरे कीमती सामानों की लूटपाट के कई वाकयों के बारे मे भी सुना. कई लोगों के पास उनके गांव के किसी व्यक्ति को फर्जी एनकाउंटर में गोली मारे जाने या रेप किये जाने और गिरफ्तारियों की संख्या बढ़ जाने का अनुभव था.

सिलगेर एकमात्र जगह नहीं है जहां लोग कैंपों का विरोध कर रहे हैं– बस इतना है कि इसकी खबर बाहर आ गई है. पुलिस ने लोगों की समस्याओं को लेकर कान बंद कर लिए हैं और वह सभी विरोध प्रदर्शनों को माओवादी प्रभाव से जोड़ती है.

सिलगेर में कैंप के अचानक और अवैध तरीके से और वह भी निजी जमीन पर स्थापित होने से भी ज्यादा शायद फायरिंग की घटना ने लोगों को भड़काने का काम किया. वे शांतिपूर्ण तरीके से विरोध कर रहे थे और पेसा के तहत अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन हर बार उनके साथ बर्बर तरीके से पेश आया गया.

इसके बाद लोगों ने तर्रेम कैंप और सिलगेर पुलिस स्टेशन के बीच चक्का जाम शुरू करने का फैसला किया. कई दिनों तक सिलगेर के सीआरपीएफ कैंप तक भोजन की आपूर्ति को ठप कर दिया गया और सुरक्षा बलों को चोर रास्तों से अपना खाना लाना पड़ा.

8 जून की सभा और उसके बाद की वार्ताएं

8 जून को करीब एक लाख लोग (संगठन के अनुमान के मुताबिक) एक आमसभा के लिए एकत्र हुए. छत्तीसढ़ बचाओ आंदोलन (सीबीए) के बैनर तले सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक दल ने सभास्थल पर पहुंचने की कोशिश की, मगर प्रशासन ने तुरंत इसे कंटेंटमेंट जोन घोषित कर दिया. सीबीए कार्यकर्ता रायपुर लौट आए जहां उन्होंने मुख्यमंत्री और राज्यपाल से मुलाकात की.

इस समय तक आसपास के कई गांवों के युवाओं के समूह ने खुद को मूलवासी बचाओ मंच (एमबीए) के तहत संगठित कर लिया था. इस समूह में विभिन्न गांवों के 60 लोग हैं. इनमें से कम से कम 20 लोग हमेशा उपस्थित रहते हैं. उनकी उम्र 17 से 22 साल के बीच है और उनकी शैक्षिक योग्यता 5वीं से 12वीं तक है, लेकिन उनकी समझ उनकी उम्र से कहीं ज्यादा है.

उनमें से कई अपने स्कूलों के फिर से खुलने का इंतजार कर रहे हैं ताकि वे अपनी पढ़ाई जारी रख सकें. उन्हें प्रशासन की नजर में आने का डर है और उनकी एक मांग यह है कि सरकार को मूलवासी बचाओ मंच के सदस्यों की निगरानी और उन्हें निशाना बनाने का काम नहीं करना चाहिए. लेकिन, इसके बावजूद वे अपने संघर्ष को जारी रखने पर दृढ़ हैं.

उन्हें इस बात का इल्म है कि बारिश शुरू हो जाने के कारण उन्हें बुवाई में अपने अभिभावकों की मदद करने के लिए वापस घर जाने की जरूरत है, लेकिन संघर्ष को बीच में छोड़कर जाना भी कोई विकल्प नहीं है.

इधर सरकार मानकर चल रही है कि यह आंदोलन माओवादियों द्वारा चलाया जा रहा है, लेकिन उन्हें बस्तर के युवा लोगों के साहस और दृष्टिकोण का थोड़ा भी अंदाजा नहीं है.

सलाव जुडूम के कारण जब इनके अभिभावक अपने गांवों को छोड़कर भागे थे, उस समय ये युवा छोटे थे. वे इसे भारी तंगी और संकट के समय के तौर पर याद करते हैं. लेकिन उन्होंने यह ठान रखा है कि चाहे जो भी हो जाए, वे अपने अभिभावकों की तरह भागेंगे नहीं, बल्कि अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करेंगे.

उनमें एक गुस्से और आश्चर्य का भाव है कि सरकार अपने युवा शिक्षित जनता के साथ इतने गैरकानूनी ढंग से बर्ताव कर रही है, जबकि स्कूल में उन्हें निरंतर कानून का पालन करने की जरूरत को लेकर निर्देश दिए जाते हैं. छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन की तरह मूलवासी बचाओ मंच  के सदस्यों ने भी अपनी मांगें रखने के लिए मुख्यमंत्री से मिलने का वक्त मांगा है, लेकिन इसके बाद क्या हुआ, इसको लेकर कुछ भ्रम लगता है.

एमबीए सदस्यों का कहना है कि आमसभा के समाप्त होने के बाद चक्का जाम जारी था. लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी के मीडिया में बयान के बाद मीडिया में यह कहा गया है कि इस आंदोलन को वापस ले लिया गया है.

एमबीए सदस्यों को बीजापुर में दो दिनों तक इंतजार करना पड़ा और उन्हें इसके बाद सिर्फ वीडियो कॉन्फ्रेंस की इजाजत दी गई. इस कॉन्फ्रेंस में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बातचीत को सिलगेर कैंप और गोलीबारी से हटाकर विकास के सामान्य मुद्दे की तरफ मोड़ दिया. हालांकि, यह एक छोटी सी कामयाबी थी- क्योंकि इससे पहले तक कांग्रेस पार्टी के साथ ही साथ राज्य सरकार भी इस सारे मसले पर एक सुविचारित चुप्पी धारण किए हुए थी- लेकिन इसका कुल जमा हासिल कुछ नहीं था.

सरकार ने गांव वालों कैंप का फायदा समझाने के लिए गोंडवाना समाज के कार्यकर्ता तेलम बोराइया को लगाया. बोराइया ने कैंप वाली जमीन के मालिकों को कहा कि उन्हें बदले में वैकल्पिक जमीन मिलेगी और यह कैंप अस्थायी है. अभी तक वे एमबीए और आंदोलन के साथ हैं, लेकिन वे निजी तौर पर उनके लिए यह सही होने को लेकर दुविधा में हैं.

ऐसा खासतौर पर इसलिए भी है क्योंकि वे कैंप के बगल वाली जमीन पर तब तक खेती नहीं कर सकते हैं, जब तक कि गांव वालों और सीआरपीएफ के बीच गतिरोध बना रहे.

सिलगेर धरना. (फोटो: नंदिनी सुंदर)

13 जून को जब एमबीए के सदस्य मुख्यमंत्री के साथ अपनी मुलाकात के बारे में बताने के लिए लौटे, उन्हें गांव वालों से बात करने की इजाजत नहीं दी गई और उन्हें चक्का जाम स्थल से खदेड़ दिया गया. इसके बाद जनता हटकर सिलगेर गांव चली गई, जहां वे प्रतिदिन करीब 100 मीटर की दूरी पर कैंप के खिलाफ शांतिपूर्ण तरीके से धरना दे रहे हैं.

लेकिन कैंप के अधिकारी उन्हें चैन से रहने देने के लिए तैयार नहीं हैं. मिसाल के लिए, 24 जून को सीआरपीएफ ने सिलगेर धरना से घर लौट रहे रसकली गांव के निवासियों को पीटा. एमबीए ने इसकी शिकायत की, लेकिन सीआरपीएफ ने इससे इनकार किया है.

धरना 

सिलगेर के धरनास्थल पर लगातार एक चहल-पहल बनी रहती है. पूरे इलाके गांवों से छोटे-छोटे समूह धरना में शामिल होने और सिलगेर के कोपमपारा के साथ ही पड़ोस के तर्रेम और गेलूर जैसे कुछ गांवों में पीले-नीले तिरपाल के टेंट लगाकर कैंप बनाने के लिए आए हुए हैं.
आश्चर्यजनक ढंग से यह एक काफी अच्छी तरह से संगठित और पूरी तरह से शांतिपूर्ण आंदोलन है.

मूलवासी बचाओ मंच के युवकों ने विभिन्न कामों का आपस में बंटवारा कर लिया है. मिसाल के लिए, एक व्यक्ति आपूर्ति का जिम्मा संभाल हुए है, तो दूसरा संचार और वीडियो का विभाग देखता है- उसने मुझे मेरे अपने फोन पर कई चीजें सिखाई- और एक युवा धरने में शामिल होने के लिए आने वालों को दवाइयां उपलब्ध करवाता है.

लड़कियों ने मुझे बताया कि उनमें से कई ने मितानिनों या ग्रामीण स्वास्थ्य कर्मियों और मेडिकल सैन्स फ्रंटियर्स, जो जुडूम के शुरू होने के समय से ही इस इलाके में काम कर रहा है, से प्राथमिक उपचार सीखा है. लेकिन वे जब भी अपने गांवों के लिए बुनियादी दवाइयां जमा करने की कोशिश करते हैं, तब पुलिस उन पर माओवादियों को दवाइयां पहुंचाने का शक करती है. पुलिस ने दवाई के दुकानदारों को एक सीमित मात्रा में ही दवाइयां देने का निर्देश दिया है.

यहां आने वाले गांव वाले अपना चावल लेकर आते हैं, लेकिन उन्हें मंच द्वारा भी चावल और और कुछ बुनियादी जरूरत के सामान मुहैया कराए जाते हैं. एमबीए ने सिलगेर और पास के गांवों में परिवारों के पीडीएस (राशन) कार्डों पर राशन लेने की एक प्रणाली विकसित की है. चूंकि वे अपने चावल की खेती खुद करते हैं, इसलिए उन्होंने पीडीएस कार्डों का अभी तक ज्यादा इस्तेमाल नहीं किया है.

खेलते हुए बच्चे. (फोटो: नंदिनी सुंदर)

शाम मे  युवाओं ने वॉलीबॉल खेला. 8 बजते-बजते हर कोई अपने पांवों को अंदर और बाहर की तरफ हिलाते हुए और एक-दूसरे की कमर में हाथ डालकर नाच रहा था. रात अंधेरी थी. सड़क के किनारे का एक पेड़ जुगनुओं की रौशनी से जगमगा रहा था और दो अर्धचंद्राकार संरचनाएं एक दूसरे के तान पर तान मिला रही थीं.

वे सिलगेर कैंप को बंद करने की जरूरत, गोलीबारी में मारे गए लोगों, नागरिकता संशोधन अधिनियम, नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर एनपीआर पर गीत गा रहे थे. उनके गीत का एक विषय यह भी था कि इस धरती के वे मूल निवासी हैं और कैसे उन्होंने इस जमीन की देखभाल की है.

उन्होंने मोदी और नोटबंदी पर गाने गाए. साथ ही साथ शादी के गाने और दूसरी लोकधुनें भी गाईं. दूसरे गांवों में भी मैंने युवकों को रात में नृत्य करते देखा है, उनके गीत स्थानीय परंपराओं के साथ-साथ माओवादी परंपरओं पर भी, जिसके साथ वे बड़े हुए हैं, आधारित होते हैं.

17 वर्षों के बाद गांव आए सरपंच

एमबीए ने सरपंच को गांव आने का निमंत्रण दिया था ताकि उनसे कुछ सवालों के जवाब मांगे जा सकें. जुडूम के बाद कई सरपंचों ने अपने गांवों को छोड़ दिया था और जुडूम के शिविरों में रहने लगे थे. चूंकि माओवादियों ने गांव वालों से चुनाव का बहिष्कार करवाया था इसलिए उन्होंने निर्विरोध उम्मीदवारी पर्चा दायर किया या जुडूम शिविरों में भागकर शरण लेने वाले दूसरे ग्रामीणों द्वारा चुन लिए गए.

पंचायत की योजनाओं का निर्माण और कार्यान्वयन कागजों पर कर दिया गया, जिससे सरपंच और प्रशासन दोनों ही खुश थे. सिलगेर के सरपंच ने कोरसा सन्नू 17 वर्षों से गांव नहीं गए थे.

वे जुडूम मे भर्ती हो गए थे औ एक छुटभैया भाजपा नेता बन गए और अभी दोरनापाल में रह रहे हैं. मार्च 2011 में स्वामी अग्निवेश पर हुए हमले को लेकर सीबीआई चार्जशीट में उनका नाम शामिल था. हालांकि, उनका दावा था कि इस वाकये के समय वे कटक में थे.

वे एक हट्टे-कट्टे व्यक्ति हैं और एक बड़े पुलिस दस्ते और उसके साथ-साथ ही आदिवासी सर्वसमाज, जो आदिवासी समुदायों का सामूहिक संगठन है, के दो प्रतिनिधियों के साथ आए थे. गांव वाले एक बड़ा गोला बनाकर बैठे. कुछ मारे गए माओवादियों के स्मारकों, जिसे सुरक्षा बलों ने ध्वस्त कर दिया था, के खंडहरों पर बैठे.

शुरू में एक अजीब सा सन्नाटा था, उसके बाद गांव वालों ने बोलना शुरू किया. पुलिस ने गांव वालों को कहा था कि उन्होंने कैंप लगाने की इजाजत देने के लिए सरपंच को पैसे दिए थे. सन्नू ने इस आरोप का जोरदार तरीके से खंडन किया और थानेदार को उनकी तरफ से यह गवाही देने के लिए बुलाया कि उन्हें कोई पैसा नहीं दिया गया था.

ग्रामीणों के साथ कोरसा सन्नू. (फोटो: नंदिनी सुंदर)

मुझे बाद में उनके एक रिश्तेदार ने बताया कि सीआरपीएफ उनके टोले, पटेल पारा में दरयाफ्त करने गई थी, इसलिए यह स्पष्ट है कि पुलिस और सन्नू के बीच पहले से कोई बात तय हुई थी.

दिलचस्प यह है कि सन्नू ने खुद अपनी खाली/परती जमीन सीआरपीएफ को कैंप स्थापित करने के लिए नहीं दी. सन्नू ने दावा किया कि हालांकि वे गांव नहीं आए थे, लेकिन वह हर किसी को जानते थे और दोरनापल आने वालों की उन्होंने हमेशा मदद की है. यह बात पूरी तरह से झूठ नहीं है- दौरे पर आए सर्वसमाज के कार्यकर्ताओं ने कहा कि जुडूम की उनकी गतिविधियां अप्रसांगिक हो गई हैं और ऐसा लगता है कि गांव वालों ने भी उनके साथ मेलमिलाप कर लिया है.

एमबीए के नवयुवक उनके साथ बहुत दृढ़ता मगर बहुत प्रेम से पेश आ रहे थे. उन्होंने इस तरफ ध्यान दिलाया कि उन्हें बुलाकर उन्होंने माओवादी खतरे के सामने एक एक निजी खतरा उठाया है और उन्हें उनके साथ खड़ा होना चाहिए. लेकिन उन्होंने रात में गांव में रुकने या 28 जून को सरकेगुडा स्मारक बैठक में हिस्सा लेने के आग्रह को स्वीकार नहीं किया. वह जितना जल्दी हो सकता था, पुलिस एस्कॉर्ट के साथ वहां से जल्दी से निकल गए.

एमबीए के युवकों ने अपने विधायक कवासी लखमा से भी अपने पक्ष में खड़ा होने के लिए कहने के लिए संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने फोन काट दिया और बाद में फोन उठाने से इनकार कर दिया.

इस आंदोलन और माओवादी आंदोलन के बीच बड़ा अंतर सिर्फ इसकी शांतिपूर्ण, खुली प्रकृति नहीं, बल्कि सत्ता और उनके चुने हुए प्रतिनिधियों से जवाबदेही की मांग करना है. इसके उलट यहां माओवादियों ने ऐतिहासिक तौर पर चुनावों का बहिष्कार किया है और खुद को समानांतर सरकार के तौर पर रखा है.

सिलगेर आंदोलन की एक मांग कैंप की जगह स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र की है. पटेल ने विडंबनापूण अंदाज में टिप्पणी की कि कैसे जोनागुडा के मड़कम भीमा द्वारा, जब वह माओवादी थे, गांव के स्कूल को इस आधार पर नष्ट कर दिया गया था कि इसे सुरक्षा बल अपना ठिकाना बनाएंगे. बाद में भीमा इलाके के सबसे कुख्यात विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) में से एक बन गया. उस पर सीबीआई ने ताड़मेतला और तिमापुर को जलाने का आरोप लगाया.

जो सरकार माओवादियों द्वारा स्कूलों के नष्ट करने को इलाके में स्कूल मुहैया न कराने के बहाने के तौर पर इस्तेमाल करती है, उसे ही स्कूल को नष्ट करने वाले व्यक्ति का इस्तेमाल करने को लेकर कोई पछतावा नहीं है. यह बात कोई मायने नहीं रखती है कि आपने क्या किया, मायने यह रखता है कि आप किसके साथ हैं.

सारकेगुडा तक मार्च

8 जून की सभा के बाद 28 जून को सारकेगुडा फायरिंग की बरसी के तौर पर मनाने का फैसला किया गया जब बच्चों समेत 17 गांव वालों की सीआरपीएफ ने रात में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. जस्टिस वीके अग्रवाल के नेतृत्व में एक न्यायिक जांच ने सीआरपीएफ को दोषी बताया.

सत्ता में आने से पहले सारकेगुडा के मसले को उठाने वाली राज्य सरकार इस रिपोर्ट पर कुंडली मारकर बैठी है और कोई कार्रवाई करने से इनकार कर रही है. लोगों की कल्पनाओं में सारकेगुडा गोलीबारी और सिलगेर में हुई मौतें, दोनों ही अन्याय के प्रतीक के तौर पर चस्पां हो गई हैं.

सारकेगुडा जाते लोग. (फोटो: नंदिनी सुंदर)

27 जून की सुबह को कोंटा इलाके से छह ट्रैक्टर भर के लोग सिलगेर कैंप के खिलाफ गाना गाते और नारे लगाते हुए आए. इस बात को लेकर कुछ चिंता थी कि अगर बारिश होने लगी तो वे वापस कैसे जाएंगे, क्योंकि बारिश के बाद नदियों को पार करना मुश्किल होगा.

कई हजार लोग 2-3 दिन से ज्यादा चलकर आए थे. हर कोई अपने साथ कुछ न कुछ लाया था- चावल, पतीला और यहां तक कि जलावन की लकड़ियां. डल्ला गांव से पेन या वृक्षों के देवता चिन्ना मरकाम अपनी घंटियों और पंखों के साथ आए और उनको लाने वाले पीतल के शंखों को जोर से फूंक रहे थे.

पेन. (फोटो: नंदिनी सुंदर)

दोपहर एक बजे के आसपास जुलूस सिलगेर से सरकेगुडा के लिए रवाना हुआ. कुछ निश्चित लोगों को नारे लगवाने के लिए तैयार किया गया था- ये नारे कैंपों के खिलाफ और स्कूलों की मांग करने वाले थे.

मैंने उनसे पूछा कि जब कोई पुलिसवाला मौजूद नहीं था तब उन्होंने नारे लगाने में अपनी इतनी ताकत क्यों लगाई? उन्होंने बताया कि ये नारे वे अपने हौसले को बनाए रखने के लिए लगा रहे थे.

कंटेनमेंट ज़ोन का बैनर. (फोटो: नंदिनी सुंदर)

सिलगेर कैंप में वृत्ताकार लपेटी गई कंटीली तार की तीसरी परत में चिपकी ‘कटेंटमेंट ज़ोन : प्रवेश वर्जित’ की चेतावनी ने हमें रोका. यह तार सड़क के आरपार जंगल के भीतर तक फैली हुई थी. इस कंटीले तार को पार करने के चक्कर में इसमें फंस जाने के कारण तीन मवेशियों की जान चली गई है और 17 जख्मी हो गए हैं.

जब मैंने सीआरपीएफ वालों से गांव वालों को मुआवजा देने के लिए कहा, तो उन्होंने उदासीनता के साथ जवाब दिया कि मवेशियों को धीरे-धीरे इसकी आदत हो जाएगी और वे इसे पार करना छोड़ देंगे. पुलिस वहां पूरे युद्ध के परिधान में सुरक्षा कवचों के साथ सुसज्जित थी और एक टैंक भी तार के भीतर तैनात था.

एमबीए युवकों के आग्रह पर आईं बेला भाटिया ने मध्यस्थता करते हुए पुलिस को इस जुलूस को आगे बढ़ने देने के लिए राजी करने की कोशिश की, लेकिन वे इसे आगे जाने देने के लिए कतई तैयार नहीं थे. ऐसा लगता है कि कंटेंटमेंट ज़ोन लोगों को एकत्र होने से रोकने के लिए अस्तित्व में आते हैं और फिर हट जाते हैं.

सिर्फ एक दिन के बाद जब कांग्रेस के मंत्री कवासी लखमा बीजापुर आए थे तब उन्हें उद्योग मंत्री बनने की बधाई देने के लिए बड़ी भीड़ इकट्ठा हुई थी. उस समय किसी ने कोविड की परवाह नहीं की. वैसे भी लॉकडाउन 1 जुलाई को खत्म ही होने वाला था.

तहसीलदार और थानेदार ने आयोजकों से सारकेगुडा तक जाने देने की इजाजत के लिए आवेदन देने के लिए कहा. एमबीए के युवकों ने पूछा कि जब सीआरपीएफ ने कैंप स्थापित करने के के लिए गांव वालों की इजाजत नहीं ली, तो उन्हें इजाजत लेने के लिए आवेदन करने की क्या जरूरत है.

शील्ड्स के साथ तैनात पुलिस. (फोटो: नंदिनी सुंदर)

उन्होंने यह भी पूछा कि उन्हें लिखित तौर पर क्यों आवेदन करना चाहिए, जबकि सरकार ने उन्हें कुछ भी रिकॉर्ड के तौर पर देने से इनकार कर दिया है- एफआईआर की प्रति, पोस्टमार्टम रिपोर्ट, पटवारी का नक्शा या इस बाबत कोई भी आश्वासन कि उनकी मांगों को सुना जाएगा. यह बात काफी न्यायोचित है.

हालांकि, चार घंटे बाद जब अंधेरा छाने लगा था, दोनों ही पक्षों ने समझौता कर लिया. गतिरोध स्थल पर पहुंचे एसडीएम ने लिखित आवेदन देने की शर्त पर आगे बढ़ने की इजाजत देने की बात कही. युवकों को हालांकि इस बात का डर है कि आवेदन पर दस्तखत करने वालों को बाद में परेशान किया जाएगा.

आगे जाने देने की मांग पूरी तरह से संवैधानिक है- पेसा के तहत यह व्यवस्था की गई है कि गांव की जमीन पर कुछ भी निर्माण करने से पहले ग्रामसभा से मशविरा करना जरूरी है. जिला स्तर पर सीआरपीएफ को कैंपों को स्थापित करने से पहले ग्राम प्रतिनिधियों की समिति से परामर्श लेना चाहिए.

गांव वाले सिलगेर कैंप की स्थापना और 17 जून की फायरिंग की न्यायिक जांच चाहते हैं. वे कैंप नहीं, स्कूल और अस्पताल चाहते हैं. वे गिरफ्तारियां नहीं, संवाद चाहते हैं. लेकिन सारी कोशिश युवाओं के नेतृत्व वाले इस जनांदोलन को दबाने की और इसे माओवादियों का एक मोर्चे के तौर पर पेश करने की हो रही है.

सीबीए की टीम काफी मुश्किल से धरनास्थल तक पहुंच पाई, जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को आने से रोक दिया गया. इस बात की सिर्फ उम्मीद की जा सकती है कि शाहीन बाग के सीएए विरोधी धरने की तरह अहिंसक आंदोलन की शक्ति में यकीन करने वाले इन आदर्शवादी युवा आंदोलनकारियों का दमन नहीं किया जाएगा.

छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार को अपना पक्ष चुनने की जरूरत है कि वह किस तरफ है- लोकतंत्र की तरफ या तानाशाही की तरफ.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

Categories: भारत, विशेष, समाज

Tagged as: Adivasi, Bastar, Bela Bhatia, Bhupesh Baghel, Chhattisagarh, Chhattisgarh Police, Maoist, Naxalite, Police Camp, protest, Salwa Judum, security forces, Silger village, Sukma

बस्तर आंदोलन किसकी भूमिका?

Bastar Bhumkal Andolan आजादी के गुमनाम नायकों में से एक रहे बस्तर के गुंडाधुर ने आदिवासियों की धरती को बचाने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध 'भूमकाल' आंदोलन का नेतृत्व किया और अंग्रेजों द्वारा तमाम छल-बल अपनाने के बावजूद वे कभी पकड़े नहीं गए।

बस्तर आंदोलन के प्रमुख कौन थे?

बस्तर में हुआ एक व्यपक एवं बड़ा आंदोलन है। भूमकाल का अर्थ भूकम्प या भूमि का कम्पन होता है। इस विद्रोह के प्रमुख नेता थे - गुण्डाधुर, डेबरीधुर, कुँवर बहादुर सिंह, बाला प्रसाद, दुलार सिंह, नाजिर।

बस्तर आंदोलन कब हुआ था?

16 फरवरी से तीन मई 1910 तक ये टुकड़ियां विद्रोह के दमन में लगी रहीं। 75 दिनों तक बस्तर के विद्रोहियों और आम आदिवासियों पर कहर बरपाया गया। नेतानार के आसपास के 65 गांवों से आये बलाइयों के शिविर को 26 फरवरी को अहले सुबह घेरकर 511 आदिवासियों को पकड़ लिया गया।

बस्तर के प्रथम राजा कौन थे?

बस्तर रियासत 1324 ईस्वी के आसपास स्थापित हुई थी, जब अंतिम काकातिया राजा, प्रताप रुद्र देव ( 12 9 0-1325) के भाई अन्नाम देव ने वारंगल को छोड़ दिया और बस्तर में अपना शाही साम्रज्य स्थापित किया | महाराजा अन्नम देव के बाद महाराजा हमीर देव , बैताल देव , महाराजा पुरुषोत्तम देव , महाराज प्रताप देव ,दिकपाल देव ,राजपाल देव ने ...

Toplist

नवीनतम लेख

टैग