बालगोबिन भगत पाठ का उद्देश्य क्या है? - baalagobin bhagat paath ka uddeshy kya hai?

‘बालगोबिन भगत’ पाठ के माध्यम से लेखक क्या संदेश देना चाहता हैं?

‘बालगोबिन भगत’ पाठ के लेखक ‘रामवृक्ष बेनीपुरी’ हैं। लेखक बचपन से ही बालगोबिन भगत को आदरणीय व्यक्ति मानता आया है। लेखक ब्राह्मण था और बालगोबिन भगत एक तेली थे। तेली को उस समय के समाज में अच्छा नहीं समझा जाता था। फिर भी ‘बालगोबिन भगत’ सबकी आस्था के कारण थे।
लेखक ने इस पाठ के माध्यम से वास्तविक साधुत्व का परिचय दिया है। गृहस्थी में रहते-हुए भी व्यक्ति साधु हो सकता है। साधु की पहचान उसका पहनावा नहीं अपितु उसका व्यवहार है। व्यक्ति का अपने नियमों पर दृढ़ रहना, निजी आवश्यकताओं को सीमित करना, सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील होना तथा मोह-माया के जाल से दूर रहने वाला व्यक्ति ही साधु हो सकता है। बालगोबिन भगत भगवान के निराकार रूप को मानते थे।
उनके अनुसार उनका जो भी है वह मालिक की देन है उस पर उसी का अधिकार है। इसीलिए वे अपने खेतों की पैदावार कबीर मठ में पहुँचा देते थे। बाद में प्रसाद के रूप में जो मिलता उसी से अपना निर्वाह करते थे। उन्होंने अपने की मृत्यु पर अपनी पुत्रवधू से सभी क्रिया-कर्म करवाए। वे समाज में प्रचलित मान्यताओं को नहीं मानते थे। उन्होंने पुत्रवधू को पुनर्विवाह के लिए उसके घर भेज दिया था। वे अपने निजी स्वार्थ के लिए कुछ नही करते थे। उनके सभी कार्य परहित में होते थे। वे अंत तक अपने बनाए नियमों में विश्वास करते हुए जीते रहे थे। उन्होंने आत्मा के वास्तविक रूप को पहचान लिया था। अंत में आत्मा का परमात्मा से मिलन हो जाता है इसलिए उसका मोह व्यर्थ है। व्यक्ति को अपनी मुक्ति के लिए परमात्मा से प्रेम करना चाहिए।
इस पाठ के माध्यम से लेखक लोगों को पाखंडी साधुओं से सचेत करना चाहता है। वास्तविक साधु वही होते हैं जो समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत करें और समाज को पुरानी सड़ी-गली परंपराओं से मुक्त कराएं।

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“ऊपर की तस्वीर से यह नहीं माना जाए कि बालगोबिन भगत साधु थे।” क्या साधु की पहचान पहनावे के आधार पर की जानी चाहिए? आप किन आधारों पर यह सुनिश्चित करेंगे कि अमुक व्यक्ति ‘साधु’ है?

‘साधु’ की पहचान उसके पहनावे से नहीं उसके व्यवहार से करनी चाहिए। हर भगवे कपड़े पहनने वाला व्यक्ति साधु नहीं होता अपितु परिवार में रहने वाला व्यक्ति भी साधु हो सकता है। साधु व्यक्ति की पहचान निम्न आधारों पर की जा सकती है:
(i) दृढ़ निश्चयी - साधु का स्वभाव दृढ़ निश्चयी होंना चाहिए। उसे अपनी कथनी और करनी में अंतर नहीं करना चाहिए। वह अपने लिए जो नियम बनाए उसका दृढ़ता से पालन करना चाहिए तभी दूसरे व्यक्ति भी उन नियमों का पालन करेंगे।
(ii) सीमित आवश्यकताएं- व्यक्ति की निजी आवश्यकताएं सीमित होनी चाहिएं। साधु बने व्यक्ति को माया जाल में नहीं फंसना चाहिए।
(iii) सरल स्वभाव- साधु व्यक्ति का स्वभाव सरल होना चाहिए। उसके मन में किसी के प्रति भेद-भाव नहीं होना चाहिए।
(iv) मधुर वाणी- साधु व्यक्ति की वाणी मधुर होनी चाहिए। उसे सुनने वाले व्यक्ति उसकी वाणी सुनकर प्रभावित हुए बिना न रह सकें।
(v) सामाजिक कुरीतियों से दूर - साधु व्यक्ति को समाज में फैली कुरीतियों से दूर रहना चाहिए और उसके संपर्क में आने वाले लोगों को उन कुरीतियों के अवगुणों से अवगत कराना चाहिए।
जिस व्यक्ति में उपरोक्त विशेषताएं हों वह गृहस्थी होते हुए भी साधु है लेकिन भगवे कपड़े पहनकर, पूजा-पाठ का दिखावा करने वाला व्यक्ति साधु होते हुए भी साधु नहीं है।

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धान की रोपाई के समय समूचे माहौल को भगत की स्वर लहरियाँ किस तरह चमत्कृत कर देती थी? उस माहौल का शब्द चित्र प्रस्तुत करें।

आषाढ़ की फुहार पड़ते ही सारा गाँव खेतों में दिखाई देने लगता था। वह मौसम धान की रोपाई का होता है। खेतों में कहीं हल चल रहे हैं और कहीं धान के पौधों की रोपाई हो रही है। घर की औरतें आदमियों के लिए भोजन लेकर खेतों की मंडेर पर बैठी होती हैं। बच्चे पास में खेल रहे होते हैं। खेतों में ठंडी-ठंडी हवा चलती है। उसी समय सबके कानों में ठंडी-की हवा के साथ मधुर स्वर लहरियाँ पड़ने लगती है। यह स्वर बालगोबिन भगत का होता है। वे भी अपने खेत में धान की रोपाई कर रहे होते हैं। उनका सारा शरीर खेत की गीली मिट्‌टी से लथ-पथ है। जिस प्रकार उनकी अँगुलिया धान के पौधों को एक-एक करके पंक्तिबद्‌ध रूप दे रही थीं उसी प्रकार उनका कंठ उनकी संगीत शब्दावली को स्वरों के ताल से ऊपर-नीचे कर रहा था। ऐसे लग रहा था जैसे कि संगीत के कुछ स्वर ऊपर स्वर्ग की ओर जा रहे हैं और कुछ स्वर धरती पर खेतों में काम करने वाले लोगों के कानों में जा रहे हैं। उनका संगीत सुनकर खेतों में काम करने वाले लोगों के तन में लय पैदा कर देता है जिससे वहाँ का सारा वातावरण संगीतमय हो जाता है।

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पाठ के आधार पर बताएँ कि बालगोबिन भगत की कबीर पर श्रद्धा किन-किन रूपों में प्रकट हुई है?

लेखक के अनुसार बालगोबिन भगत कबीर के भगत थे। वे कत्पीर को ‘साहब’ कहते थे। वे कबीर के बताए नियमों का दृढ़ता से पालन करते थे। उनके अनुसार उनकी सब चीजें ‘साहब’ की देन हैं। उनके खेत में जो भी पैदावार होती थी, उसे सिर पर लादकर ‘साहब’ के दरबार में पहुँचाते थे। वह सब कुछ भेंट स्वरूप दरबार में रख देते थे। वापसी में जो कुछ भी ‘प्रसाद’ के रूप में मिलता उससे अपना निर्वाह करते थे।
बालगोबिन भगत कबीर की तरह ही भगवान के निराकार रूप को मानते थे। वे मृत्यु को दुःख का नहीं आनंद मनाने का अवसर मानते थे। कबीर जी ने आत्मा को परमात्मा की प्रेमिका बताया है जो मृत्यु उपरांत अपने प्रियतम से जा मिलती है। बालगोबिन भगत ने कबीर की वाणी का पालन करते हुए अपने पुत्र के मृत शरीर को फूलों से सजाया और पास में दीपक जलाया। वे स्वयं भी पुत्र के मृत शरीर के पास बैठकर पिया मिलन के गीत गाने लगे। उन्होंने अपनी पुत्रवधू को भी रोने के लिए मना कर दिया था। इससे पता चलता है कि बालगोबिन भगत की कबीर पर अगाध श्रद्धा थी। वे कबीर के पद इस ढंग से गाते थे जैसे सभी जीवित हो जाएंगे।

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कुछ मार्मिक प्रसंगों के आधार पर यह दिखाई देता है कि बालगोबिन भगत प्रचलित सामाजिक मान्यताओं को नहीं मानते थे। पाठ के आधार पर उन प्रसंगों का उल्लेख कीजिये

बालगोबिन भगत समाज में प्रचलित मान्यताओं को नहीं मानते थे। वे जाति-पाति में विश्वास नहीं रखते थे। सब लोगों को एक समझते थे। वे भी भगवान के निराकार रूप को मानते थे। भगत मृत्यु को भी आनंद मनाने का अवसर मानते हैं। जब उनके इकलौते बेटे की मृत्यु होती है तो वे अपने बेटे के मृत शरीर को फूलों से सजाते हैं और गीत गाते हैं। उनके अनुसार आज आत्मा रूपी प्रेमिका परमात्मा रूपी प्रेमी से मिल गई हैं उसके मिलन पर आनंद मनाना चाहिए अफसोस नहीं। भगत ने अपने बेटे का क्रिया-कर्म अपनी पुत्रवधू से कराया। उनकी पुत्रवधू ने ही अपने पति की चिता को अग्नि दी थी। उनकी जाति में विधवा के पुनर्विवाह को अनुचित नहीं मानते थे परंतु उनकी पुत्रवधू इसके लिए तैयार नहीं थी। वह उन्हीं के पास रहकर उनकी सेवा करना चाहती थी लेकिन उन्होंने उसे यौवन की ऊँच-नीच का ज्ञान करवाया और पुनर्विवाह के लिए तैयार किया। इससे हम कह सकते हैं कि बालगोबिन पुरानी सामाजिक मान्यताओं के समर्थक नहीं थे। वे अपने स्वार्थ की अपेक्षा दूसरों के हित का ध्यान रखते थे।

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भगत के व्यक्तित्व और उनकी बेशभूषा का अपने शब्दों में चित्र प्रस्तुत कीजिए।

बालगोबिन भगत मँझोलेकद के गोरे-चिट्‌टे व्यक्ति थे जिनकी आयु साठ वर्ष से अधिक थी। उनके बाल सफेद थे। वे दाढ़ी तो नहीं रखते थे पर उनके चेहरे पर सफेद बाल जगमगाते ही रहते थे। वे कपड़े बिलकुल कम पहनते थे। कमर में एक लंगोटी और सिर पर कबीर पंथियों जैसी कनफटी टोपी पहनते थे। जब सरदियां आतीं तो एक काली कमली ऊपर से ओढ़ लेते थे। माथे पर सदा चमकता रामानंदी चंदन, जो नाक के एक छोर से ही, औरतों के टीके की तरह शुरू होता था। अपने गले में तुलसी की जड़ों की एक बेडौल माला बाँधे रहते थे। उनमें साधुओं वाली सारी बातें थीं। वे कबीर को ‘साहब’ मानते थे, उन्हीं के गीत गाते रहते थे और उन्हीं के आदेशों पर चलते थे। कभी झूठ नहीं बोलते थे और सदा खरा न्यवहार करते थे। हर बात साफ-साफ करते थे और किसी से व्यर्थ झगड़ा नहीं करते थे। किसी की चीज को तो कभी छूते नहीं थे। वह दूसरों के खेत में शौच तक के लिए नहीं बैठते थे। उनके खेत में जो कुछ पैदा होता उसे सिर पर रख कर चार कोस दूर कबीर पंथी मठ में ले जाते थे और प्रमाद रूप में कुछ वापिस ले आते थे।

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बालगोबिन भगत पाठ से हमें क्या संदेश मिलता है?

व्यक्ति का अपने नियमों पर दृढ़ रहना, निजी आवश्यकताओं को सीमित करना, सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए प्रयत्नशील होना तथा मोह-माया के जाल से दूर रहने वाला व्यक्ति ही साधु हो सकता है। बालगोबिन भगत भगवान के निराकार रूप को मानते थे। उनके अनुसार उनका जो भी है वह मालिक की देन है उस पर उसी का अधिकार है।

बाल गोविन्द भगत पाठ हिंदी साहित्य की कौन सी विधा है?

बालगोबिन भगत एक रेखाचित्र अर्थात स्केच है। ये साहित्य की आधुनिक विधा है और इस रेखाचित्र के माध्यम से रामवृक्ष बेनीपुरी ने एक ऐसे विलक्षण चरित्र का उद्घाटन किया है जो मनुष्यता ,लोक संस्कृति और सामूहिक चेतना का प्रतीक है। सन्यास का आधार जीवन के मानवीय सरोकार होते हैं।

बालगोबिन भगत क्या है?

बालगोबिन भगत कबीर के पक्के भक्त थे। वे कभी झूठ नहीं बोलते थे और हमेशा खरा व्यवहार करते थे। वे किसी की चीज का उपयोग बिना अनुमति माँगे नहीं करते थे। उनकी इन्हीं विशेषताओं के कारण वे साधु कहलाते थे।

बालगोबिन भगत के गायन की क्या विशेषता है?

बालगोबिन भगत के मधुर गायन की विशेषता यह थी कि कबीर के सीधे-सादे पद उनके कंठ से निकल कर सजीव हो उठते थे, जिसे सुनकर लोग-बच्चे-औरतें इतने मंत्र-मुग्ध हो जाते थे कि बच्चे झूम उठते थे, औरतों के होंठ स्वाभाविक रूप से कॅप-कॅपाने लगते थे, हल चलाते हुए कृषकों के पैर विशेष क्रम-ताल से उठने लगते थे, उनके संगीत की ध्वनि-तरंग ...

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