औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों ने देश के परम्परागत उद्योगों को तहस-नहस कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने न तो इनको बनाने का कोई प्रयास किया और न ही उनके स्थान पर आधुनिक उद्योग की स्थापना के लिए कोई ठोस कदम उठाए। यही नहीं विदेशी सरकार ने तकनीकी शिक्षा, प्रशिक्षण, पूंजी एवं वित्त जैसी आवश्यक सुविधाओं की व्यवस्था में भी कोई सक्रिय
भाग नहीं लिया। यहां तक की सरकारी खरीद के सिलसिले में भी भारतीय उद्योगों को छोड़कर ब्रिटिश उद्योगों को प्राथमिकता दी जाती थी। ऐसी परिस्थितियों में देश में आधुनिक उद्योगों का विकास संभव नहीं था। ब्रिटिश काल में आर्थिक गति हीनता का मूल कारण यह था कि सरकार ने आर्थिक क्षेत्र में अपना आवश्यक योगदान नहीं दिया। जहां अन्य देशों में वहां की सरकारें विभिन्न ढंग
से आर्थिक विकास क्षेत्र में जुटी हुई थी। भारत में विदेशी सरकार ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के लिए देश की अर्थव्यवस्था को अपनी वैश्विक अर्थव्यवस्था का रूप देकर अनेक प्रकार से इसका शोषण कर रही थी। रेल निर्माण और शिक्षा आदि के क्षेत्र में जो कुछ कदम उठाए गए, उसका उद्देश्य देश का आर्थिक विकास नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था के उन क्षेत्रों को मजबूत करना था जिससे कि ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के लिए इसका और सही ढंग से शोषण संभव हो सके। इसका परिणाम यह हुआ कि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत को कमजोर औद्योगिक
आधार, अल्पविकसित आधारित संरचना तथा गतिहीन अर्थव्यवस्था विरासत में मिली। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत का औद्योगिक ढांचा एक अल्पविकसित अर्थव्यवस्था का औद्योगिक ढांचा था। दुर्गति से देश के आर्थिक विकास के लिए औद्योगिक विकास आवश्यक शर्त है। उद्योगों के समुचित विकास के बिना लोगों की आय में अर्थपूर्ण एवं नियमित रूप से वृद्धि लाना संभव नहीं हो सकता। वास्तव में विभिन्न प्रकार के उद्योगों के अभाव में किसी भी देश का आर्थिक विकास अवरुद्ध हो सकता है। इसके आधार पर देश के लिए औद्योगिकरण की आवश्यकता या महत्व
की कल्पना आसानी से की जा सकती है। औद्योगिक विकास की आवश्यकता के पक्ष में निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
भारत में औद्योगिक विकास की आवश्यकता
:
उपरोक्त तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि देश के विकास अथवा लोगों के उच्च जीवन स्तर के लिए औद्योगिक विकास कितना आवश्यक है किंतु आज की परिस्थितियों में जबकि हमारी आय का स्तर बहुत नीचा है। देश में बेकारी की समस्या है। कृषि पर असहय बोझ लदा हुआ है और जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। इससे यह और भी आवश्यक बन गया है। इससे देश की संप्रभुता और सुरक्षा ठीक ढंग से हो सकेगी और अर्थव्यवस्था को ऊंचे स्तर पर ले जाकर उसमें उचित संतुलन लाना संभव हो सकेगा। यही कारण है कि सत्ता प्राप्ति के बाद से ही देश के औद्योगिक विकास पर बल दिया जा रहा है।
भारत में औद्योगिक विकास की समस्याएं :
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारतीय अर्थव्यवस्था अत्यंत जर्जर अवस्था में थी। उद्योगों का विकास न के बराबर था और जो उद्योग अस्तित्व में थे, उनकी समृद्धि दर बहुत कम थी। इसका मूल कारण यह था कि विदेशी शासनकाल में देश के उद्योग में न तो सरकार ने
सक्रिय रूप से भाग लिया और न आवश्यक सुविधाओं की समुचित व्यवस्था द्वारा इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए लोगों को प्रोत्साहित किया। तकनीकी जानकारी, पूंजी एवं आवश्यक साज-सामान की कमी तथा विदेशी प्रतियोगिता के कारण देश के औद्योगिक विकास में जो भी कठिनाइयां पैदा हो रही थी। इनको दूर करने के लिए समय पर और संवाद रूप में कोई व्यवस्थित प्रयास नहीं किया गया।
फलस्वरुप स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश की औद्योगिक अर्थव्यवस्था पिछड़ी हुई दशा में थी। किंतु जहां आजादी के समय औद्योगिक ढांचा कृषि पर आधारित था, वहां अब यह अत्यंत विस्तृत और जटिल हो चुकी है। भारत अब उच्च कोटि की तकनीक वाले औद्योगिक व्यवस्था बना सकने में सक्षम है। परंतु अभी भी कुछ समस्याएं ऐसी हैं, जिनका सामना औद्योगिक क्षेत्र को करना पड़ता है और जिन पर सिर्फ शीघ्र ध्यान देने की जरूरत है। यह समस्याएं निर्मित है।
- लक्ष्यों और उपलब्धियों में भारी असमानता
- सार्वजनिक क्षेत्र का निष्पादन
- आधारिक ढांचे में कमी
- क्षेत्रीय असमानताओं में वृद्धि
- औद्योगिक अस्वास्थता
- भविष्य में संभावित चुनौतियां
औद्योगिक विकास की रणनीति :
उद्योगों का पिछड़ापन अल्पविकसित अर्थव्यवस्था का द्योतक होता है। किसी भी अल्पविकसित अर्थव्यवस्था के समुचित विकास के लिए सरकारी हस्तक्षेप और सहयोग अथवा उपयुक्त सरकारी औद्योगिक नीति अनिवार्य है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत को जो औद्योगिक ढांचा सौंपा गया, उस पर प्रगति विरोधी औद्योगिक नीति की स्पष्ट छाप थी।
अतः भारत सरकार के समक्ष औद्योगिक विकास एक चुनौती के रूप में विराजमान था जिसके लिए रणनीति बनाना आवश्यक था। भारत सरकार ने औद्योगिक क्षेत्र के विकास के संबंध में अपना दृष्टिकोण सर्वप्रथम
1948 में जारी औद्योगिक नीति प्रस्ताव में स्पष्ट किया। इस प्रस्ताव को न केवल नीति की रूपरेखा परिभाषित की गई, बल्कि औद्योगिक विकास में एक उद्यमी और प्राधिकारी के रूप में सरकार की भूमिका तय हुई। देश में औद्योगिक नीति की ठोस रूप रेखा 1956 में प्रस्तुत की गई। 1956 की औद्योगिक नीति प्रस्ताव से अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र को महत्वपूर्ण भूमिका मिली। साथ ही इस नीति में सरकारी उद्यमों के साथ-साथ निजी क्षेत्र के विकास की व्यवस्था भी की गई थी।
सरकार ने 1980 में एक नई नीति की घोषणा की जिसमें 1956 की नीति के मूल तत्व को पुनः स्थान दिया गया और साथ ही औद्योगिक विकास के लिए कुछ नए निर्देशकों का भी समावेश किया गया। आगे चलकर 1985 और 1990 में कुछ और परिवर्तन लाए गए जिनका मुख्य उद्देश्य उद्योगों के नियंत्रण व्यवस्था में ढील व छूट देना था। इस प्रक्रिया में सबसे क्रांतिकारी कदम 1991 में नई औद्योगिक नीति की घोषणा के साथ उठाए गए।
औद्योगिक नीति, 1948 :
स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्रीय सरकार की औद्योगिक नीति का प्रथम औद्योगिक प्रतिपादन 6 अप्रैल, 1948 को किया गया। इस नीति में सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र दोनों के महत्व को स्वीकार किया गया। इस नीति के द्वारा देश के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था की संकल्पना और उसके तत्वों को इस नीति में पहली बार खुलासा किया गया। इस औद्योगिक नीति में लघु एवं कुटीर उद्योग के महत्व को भी स्वीकार किया गया, क्योंकि इन उद्योगों की स्थापना स्थानीय साधनों के उपयोग और रोजगार प्रदान करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। 1948 की औद्योगिक नीति क्रियान्वित करने और उद्योगों के नियमन तथा विकास के लिए अक्टूबर 1951 में उद्योग (विकास तथा विनियमन) अधिनियम पास किया गया। इस अधिनियम में औद्योगिक क्षेत्र के संबंध में सरकारी नियंत्रण की समुचित व्यवस्था की गई जिससे सरकार देश के उद्योगों को ऐसे ढंग से विकसित करा सके कि आयोजन द्वारा निर्धारित लक्ष्य पूरे हो सके। परंतु इस नीति में कुछ बातें साफ व निश्चित नहीं थी। राष्ट्रीयकरण की धमकी से निजी क्षेत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा था। वस्तुतः इस नीति पर विभाजन के बाद उत्पन्न हुई समस्याओं तथा छुटपुट आयोजन की छाप थी और इस कारण इसमें अनेक कमियों का मौजूद होना स्वाभाविक था।
किंतु इसकी कमियों के बावजूद यह नीति दो बातों के कारण उल्लेखनीय हैं और भारत के औद्योगिक विकास के इतिहास में इसका महत्वपूर्ण स्थान रहेगा। पहली बात तो यह कि इसने पिछली परंपराओं को पूर्ण रूप से तोड़ दिया और राष्ट्रीय हित में उद्योगों के विकास के उद्देश्य से औद्योगिक नीति के नियम तथा विनियमन बनाए गए। दूसरी बात यह कि उद्योग के विकास के संदर्भ में इसने सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका को समझा और उसे उसकी जिम्मेदारी सौंपी।
इस नीति के अंतर्गत उद्योगों को 4 श्रेणियों में विभाजित किया गया।
(1) राज्य के एकाधिकार वाले उद्योग – इस श्रेणी के अंतर्गत तीन उद्योग रखे गए।
- अस्त्र-शस्त्र युद्ध संबंधी
- परमाणु ऊर्जा
- रेल परिवहन
(2) मिश्रित क्षेत्र के उद्योग – इस क्षेत्र में 6 उद्योग रखे गए जिनकी इकाइयों की स्थापना का उत्तरदायित्व सरकार द्वारा निश्चित किया गया, परंतु पुरानी इकाईयों को निजी क्षेत्र में ही बने रहने दिया गया। ये उद्योग थे।
- कोयला
- लोहा तथा इस्पात
- वायुयान निर्माण
- जलयान निर्माण
- टेलीफोन, टेलीग्राम तथा वायरलेस के यंत्रों तथा उपकरणों का निर्माण
- खनिज तेल
(3) सरकारी नियंत्रण का क्षेत्र – इस श्रेणी में राष्ट्रीय महत्व के 18 उद्योगों को शामिल किया गया। इनके विकास का उत्तरदायित्व सरकार ने अपने ऊपर नहीं लिया, परंतु जिन पर काफी नियंत्रण रखा गया। इस वर्ग में रखे जाने वाले उद्योगों में विशेष रूप शामिल थे।
- मशीन टूल्स
- चीनी
- कागज
- सीमेंट
- ऊनी और सूती वस्त्र तथा
- रसायन आदि
(4) निजी क्षेत्र के उद्योग – उपर्युक्त उद्योगों के अतिरिक्त अन्य सभी उद्योग निजी क्षेत्र द्वारा स्थापित और विकसित किए जा सकते थे, परंतु उद्योग विशेष की प्रगति असंतोषजनक होने पर सरकार को इस क्षेत्र में भी हस्तक्षेप करने का अधिकार था।
औद्योगिक नीति, 1956 :
30 अप्रैल, 1956 को भारत सरकार ने दूसरा औद्योगिक नीति प्रस्ताव स्वीकार किया। इसने 1948 की औद्योगिक नीति का स्थान ग्रहण किया। 1948 से 1956 के बीच 8 वर्षों में राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति में काफी परिवर्तन आया था और विकास कार्य भी आगे बढ़ गया।
संसद ‘समाजवादी ढंग से समाज’ को आधारभूत सामाजिक और आर्थिक नीतियों के रूप में स्वीकार कर चुके थी। इसके औद्योगिक आधार के लिए 1956 में जो औद्योगिक नीति लाई गई, उसके उद्देश्य निम्नलिखित थे।
- आर्थिक विकास की गति को तेज करना और औद्योगीकरण की प्रक्रिया में तेजी लाना
- सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार
- सहकारी क्षेत्र का विकास
- मशीन बनाने वाली भारी उद्योगों कु देश में स्थापना तथा विकास
- संपत्ति तथा आय के वितरण की असमानताओं को कम करना
- आर्थिक शक्ति के केंद्रीयकरण को रोकने के लिए निजी एकाधिकारियों की स्थापना को नियंत्रित करना।
1956 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव में राष्ट्र के विकास के पहलू से कुटीर तथा लघु उद्योगों के विकास को भी स्वीकार किया गया। क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने के बात की गई। इस दिशा में सफलता प्राप्त करने के लिए पिछड़े क्षेत्रों में शक्ति के साधनों और परिवहन सुविधाओं के विस्तार को आवश्यक बताया गया। इस औद्योगिक नीति में उद्योगों को 3 वर्गों में विभाजित किया गया।
- केंद्रीय सरकार के एक अधिकार क्षेत्र वाले उद्योग
- सार्वजनिक तथा निजी उद्यम के मिश्रित क्षेत्र
- निजी क्षेत्र के उद्योग
नई औद्योगिक नीति, 1991 :
1956 की औद्योगिक नीति के बाद 1980, 1985 और 1990 में तीन औद्योगिक नीतियों को कार्यान्वित किया गया, हालांकि इन नीतियों का आधार 1956 की नीति ही बनी रही। इसके बावजूद देश की आर्थिक परिस्थितियों में कोई विशेष बदलाव नहीं आया। अनुकूल परिस्थितियों की बात तो दूर रही 1990-91 में देश में स्थिती नियंत्रण से बाहर हो गई। अनियंत्रित आर्थिक परिस्थितियों को नियंत्रण में लाने के लिए आर्थिक क्षेत्र में क्रांतिकारी कदम उठाने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी।
अन्ततः बिगड़ती आर्थिक परिस्थितियों में सुधार लाने के लिए 24 जुलाई, 1991 को नई औद्योगिक नीति की घोषणा की गई।
मुख्य उद्देश्य :
इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय औद्योगिक अर्थव्यवस्था को अनावश्यक नौकरशाही नियंत्रण की जकड़ से मुक्त कराकर भारतीय अर्थव्यवस्था में उदार प्रवृत्तियों को लागू करना था, ताकि इसका विश्व अर्थव्यवस्था से एकीकरण स्थापित किया जा सके। साथ ही इसका उद्देश्य प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में लगे हुए प्रतिबंधों को हटाना था और देश देसी उद्यम कर्ताओं को एकाधिकार एवं प्रतिबंधात्मक व्यापार कानून द्वारा लगाई गई रुकावटों से मुक्त करना था।
इसके अतिरिक्त ऐसे सार्वजनिक उद्यम जो घाटे में चल रहे थे, उनके दायित्व से मुक्त होना था।
भारत सरकार ने उपरोक्त सभी उद्देश्यों को दृष्टि में रखते हुए निम्नलिखित क्षेत्रों में सुधार के लिए क्रांतिकारी कदम उठाए।
- औद्योगिक लाइसेंस प्रणाली से मुक्ति
- विदेशी निवेश एवं विदेशी प्रौद्योगिकी को प्रोत्साहन
- सार्वजनिक क्षेत्र के महत्व में कमी
- MRTP कानून में बदलाव
- उद्योग स्थान-निर्धारण नीति का उदारीकरण
उपलब्धियां :
नई औद्योगिक नीति में क्रांतिकारी कदम उठाते हुए सरकार ने औद्योगिक लाइसेंसिंग नीति, विदेशी निवेश नीति, विदेशी प्रौद्योगिकी समझौते तथा एकाधिकारी और प्रतिबंधक व्यापार अधिनियम (MRTP Act) आदि में ऐसे परिवर्तन किए हैं ताकि सरकार से पूर्व अनुमोदन या स्वीकृति लेने में विलंब न हो अथवा उसकी जरूरत ही न पड़े।
इस नीति में नियंत्रण और लाइसेंस प्रणाली को बहुत हद तक समाप्त कर दिया गया है जिससे बाजार तंत्र बहुत महत्वपूर्ण बन गया है। परिणामस्वरूप बहुत बड़ी सीमा तक बाजार-उन्मुखी होकर अर्थव्यवस्था ने खुला रूप धारण कर लिया है। भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ गई है जिससे स्पर्धा को बहुत बढ़ावा मिला है। विदेशी निवेश नीति को उदार बनाया गया है जिससे अधिकांश क्षेत्रों में 100% विदेशी निवेश संभव है। विदेशी निवेश की सतत समीक्षा की जाती है। पिछले 2 वर्षों (2007-08) में इस नीति को उदार बनाने के लिए जो उपाय बनाए गए हैं उनमें घरेलू विमान कंपनियों और दूरसंचार क्षेत्र में विदेशी निवेश शामिल है।
सार्वजनिक क्षेत्र में किए गए सुधारों से उत्पादन पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है। MRTP अधिनियम में लाए गए सुधारों से एकाधिकारी तथा अल्प अधिकारिक प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने में सहायता मिली है जिसका औद्योगिक उत्पादन पर अनुकूल
प्रभाव पड़ा है।
नई उद्योग नीति की सीमाएं अथवा कमियां :
- औद्योगिक विकास में अस्थिरता
- उत्पादन संरचना में विसंगतियां
- विदेशी प्रतिस्पर्धा से खतरा
- व्यवसायिक उपनिवेशवाद का खतरा
- रोजगार सृजन के लिए समुचित ध्यान का अभाव
- लघु उद्योगों की उपेक्षा
नई औद्योगिक नीति के अंतर्गत जो कदम उठाए गए, उनका उद्देश्य देश की पिछली औद्योगिक उपलब्धियों को मजबूती प्रदान करना और भारतीय उद्योगों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाने की प्रक्रिया में तेजी लाना था। इस नीति के अंतर्गत उद्योग की शक्ति परिपक्वता की पहचान की गई और उसे गति प्रदान करने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक रूप से प्रेरित किया गया।
इन कदमों में व्यापार व्यवस्थाओं के व्यापक उपयोग तथा विदेशी निवेश कर्ताओं और तकनीकी के आपूर्तिकर्ताओं के साथ गतिशील बनाने के जरिए घरेलू और विदेशी प्रतिस्पर्धा बढ़ाने पर जोर दिया गया। सुधार की प्रक्रिया निरंतर जारी है। वर्तमान में भारत सरकार ने विदेशी कंपनियों का प्रतिशत बढ़ाने का निर्णय लिया है ताकि देश में रोजगार से संबंधित समस्याओं का समाधान किया जा सके।