वर्ण व्यवस्था क्या है (varna vyavastha ka arth)
varna vyavastha meaning in hindi;वर्ण-व्यवस्था का सैद्धांतिक अर्थ हैः गुण, कर्म अथवा व्यवसाय पर आधारित समाज का चार मुख्य वर्णों मे विभाजन के आधार पर संगठन।
वर्ण का शाब्दिक अर्थ वरण करना या चयन करना है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि प्राचीन भारतीय सामाजिक व्यवस्था मे व्यवसाय के चयन के पश्चात ही उसका "वर्ण" निश्चित किया जाता था।
होकाटे के अनुसार " वर्ण तथा जाति की प्रकृति तथा कार्य समान है। दोनों मे नाम का अंतर है। पर प्रो. हट्टन ऐसा नही मानते। उन्होंने वर्ण तथा जाति को पृथक माना है।
सांख्य दर्शन के अनुसार " वर्ण का अर्थ रंग भी बताया गया है। वैदिक युग मे आर्यों का विभाजन, सम्भवतः " आर्य वर्ण " तथा दास वर्ण रहा था।
वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति संबंधी सिद्धांत निम्नलिखित हैं--
1. ॠग्वेद का सिद्धांत
ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है। ऋग्वेद मे वर्ण-व्यवस्था से सम्बंधित निम्न श्लोक है--
"ब्राह्राणोडस्य मुखमासीद् बाहू राजन्म कृतः।
उरू तदस्य यद्वैश्य पदभ्यां शुद्रोडजायत्।।"
इस श्लोक का अर्थ यह है कि विराट पुरूष (ईश्वर) के मुखारबिन्द से ब्राह्मण की उत्पत्ति हुई है। बाहु से क्षत्रिय, जंघाओं से वैश्य तथा पैरों से शुद्रों की उत्पत्ति हुई है। मुख का कार्य पढ़ाना, प्रवचन करना या भाषण देना है। अतः ब्राह्मणों का कार्य वेदों का पढ़ना तथा पढ़ना माना गया है। चूंकि क्षत्रियों की उत्पत्ति बाहुओं से मानी गयी है, अतः क्षत्रियों का धर्म युद्ध करना बताया गया है। जंघाओं से उत्पत्ति मानी जाने के कारण वैश्यों का कार्य उत्पादन करना है। अतः वैश्यों का कार्य कृषि तथा व्यापार करना बताया गया है। शुद्रों की उत्पत्ति पैरों से हुई मानी गयी है। पैरों का कार्य शरीर की सेवा करना है। इस प्रकार शुद्रों का कार्य तीनों वर्णों की सेवा करना है।
2. उपनिषदों का सिद्धांत
उपनिषदों मे भी वर्ण-व्यवस्था का सिद्धांत मिलता है। परन्तु उपनिषदों मे वर्णित वर्ण-व्यवस्था का सिद्धांत ऋग्वेदिक सिद्धांत से भिन्न है। उपनिषदों के अनुसार वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति देवताओं से हुई है। सबसे प्रथम ब्राह्मण उत्पन्न हुए। ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्म नामक देवता से हुई थी। क्षत्रियों की उत्पत्ति रूद्र, इन्द्र, वरूण तथा यम देवताओं के संयोग से हुई मानी गई है। वैश्यों की उत्पत्ति, वसु, मारूत, रूद्ध तथा उदित देवताओं से मानी गयी है। शुद्रों की उत्पत्ति पूशन देवता से हुई मानी गयी है।
3. महाकाव्यों का सिद्धांत </p><p>वर्ण की उत्पत्ति का उल्लेख महाभारत के "शान्ति वर्व" मे मिलता है। महाभारत के अनुसार, ब्रह्म ने सर्वप्रथम ब्राह्मणों को उत्पन्न किया था। ब्राह्मण धर्मानुसार आचारण करते थे। परन्तु कुछ समय पश्चात इन ब्राह्मणों मे अलग-अलग गुणों तथा रंगों का विकास प्रारम्भ हो गया। ब्राह्मणों का इन्हीं गुणों के आधार पर अनेक वर्णों मे विभाजन कर दिया गया। यही वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र कहलाए। वर्णों का विभाजन चार रंगों अर्थात् श्वेत, लाल, पीला तथा काले के आधार पर किया गया। इन रंगों का सम्बन्ध व्यक्ति के कर्म तथा गुणों से है। ब्राह्मणों का रंग श्वेत, क्षत्रियों का रंग लाल, वैश्यों का रंग पीला तथा शुद्रों का रंग काला माना गया है। ये रंग अलग-अलग वर्णों के प्रतीक है। श्वेत पवित्रता का लाल रंग क्रोध का, पीला रंग रजोगुण तथा तमोगुण का मिश्रण कहा गया है। काला रंग तमोगुण का द्योतक है।</p><p><b>4. स्मृतियों का सिद्धांत&nbsp;</b></p><p>मनुस्मृति के अनुसार " वर्ण " का सम्बन्ध " कर्म " से है। कर्म के कारण ही ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। क्षत्रियों का स्थान ब्राह्मणों के पश्चात आता है। शुद्रों का स्थान सबसे नीचा माना गया है। इसी कारण सब वर्णों की सेवा करना उनका " धर्म " बताया गया है। मनु से सभी वर्णों के कार्य निश्चित किए है।</p><h2 style="text-align:left"><script async src="//pagead2.googlesyndication.com/pagead/js/adsbygoogle.js"> <ins class="adsbygoogle" data-ad-client="ca-pub-4853160624542199" data-ad-format="fluid" data-ad-layout="in-article" data-ad-slot="3525537922" style="display:block;text-align:center"></ins> <script> (adsbygoogle = window.adsbygoogle || []).push({});
वर्ण व्यवस्था का महत्व अथवा गुण निम्नलिखित हैं--
1. वैयक्तिक उन्नति का अवसर
वर्ण व्यवस्था बहुत खुली व्यवस्था है जिसमे एक व्यक्ति को अपनी क्षमता व गुणों के आधार पर अपनी स्थिति उच्च करने का अधिकार और अवसर होता है।
2. शक्तियों का विकेन्द्रीकरण
सामाजिक जीवन मे चार प्रमुख शक्तियाँ कार्य करती है-- ज्ञान शक्ति, राज्य शक्ति, अर्थ शक्ति और श्रम श्रक्ति। समाज मे चारों शक्तियों के केन्दीयकरण का अर्थ होता है- निरंकुशता और शोषण। इनके अधिक बिखराव से सामाजिक संगठन और प्रगति मे बाधा पहुँचाने लगती है। आवश्यकता इस बात की होती है कि समाज मे इन शक्तियों के केन्द्रीयकरण को रोका जाय और इनके अधिक बिखराव को भी। दूसरे शब्दों मे, वैयक्तिक और सामूहिक दोनों दृष्टियों से अधिक हितकर यह है कि समाज मे इन शक्तियों का एक ऐसा विकेन्द्रीकरण हो जिसमे इनके बीच एक अपेक्षित मात्रा तक सामंजस्य, संगठन और समन्वय बना रहे। वर्ण व्यवस्था मे यह मे यह देखने को मिलता है।
3. श्रम विभाजन और विशेषीकरण
वर्ण-व्यवस्था सामाजिक श्रम विभाजन का एक अच्छा आदर्श प्रस्तुत करती है। अध्ययन व अध्यापन, सुरक्षा व प्रशासन, उत्पादन व व्यापार तथा इन सभी कार्यों मे आवश्यक शरीरिक श्रम सम्पादन के रूप मे वर्ण व्यवस्था समाज को क्रमशः चार प्रमुख वर्णों, बुद्धिजीवी, शासक, व्यापारी और शारीरिक श्रमजीवी मे विभाजत करती है।
4. समाज मे संघर्षों को मिटना
वर्ण व्यवस्था के कारण समाज मे सघर्ष की सम्भावना नही होती। इसका कारण यह है कि प्रत्येक वर्ण के कार्य निश्चित होते है। सभी व्यक्ति अपने लिए निर्धारित कार्य करते रहते है। अतः सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहती है।
5. सामाजिक अनुशासन
वर्ण व्यवस्था मे हर एक वर्ण के लिए पृथक धर्म का प्रावधान है, जिसका अनुसरण करना प्रत्येक व्यक्ति का आवश्यक कर्तव्य होता है। इससे समाज मे अनुशासन रहता है।
वर्ण व्यवस्था के कारण जब समाज चार भागों मे विभक्त हो गया तो लोगों की सामुदायिक भावना संकुचित हो गई और राष्ट्रीय एकता के मार्ग मे बाधाएं उत्पन्न हुई। फलस्वरूप विदेशियों ने देश को गुलाम बनाकर सैकड़ों वर्षों तक शासन किया। इस व्यवस्था ने समाज मे एक बहुत बड़े भाग (शुद्र वर्ण) को विकास के समुचित अवसर नही दिए गए।
वर्ण व्यवस्था ने ही समाज मे अस्पृश्यता और शोषण को जन्म दिया।
आज एक ही वर्ण से सम्बंधित विभिन्न जातियां राजनीतिक स्वार्थों के लिए संगठित होकर प्रजातंत्र के स्वस्थ विकास मे बाधा पैदा कर रही है।
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