दधीचि की हड्डियों से क्या क्या बना था? - dadheechi kee haddiyon se kya kya bana tha?

पुराणों में दधीचि ऋषि का उल्लेख मिलता है। वे एक महान तपस्वी ऋषि थे। उनके पिता का नाम अथर्वा, माता का नाम चित्ति, पत्नी का नाम गभस्तिनी और पुत्र का नाम पिप्पलाद ऋषि था। कुछ जगहों पर इनकी पत्नी का नाम शांति बताया गया है तो कर्दम ऋषि की पुत्री थीं। दधीच जंयती भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनाई जाती है।

कहा जाता है कि वृत्रासुर नामक राक्षस ने इंद्रलोक पर अधिकार कर लिया था और उसने सभी देवताओं को देवलोक से बाहर निकाल दिया था। सभी देवताओं ने ब्रह्माजी से इस समस्या का निदान करने को कहा। ब्रह्माजी ने कहा कि पृथ्वीलोक में दधीचि नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जा सकेगा और उस वज्र की शक्ति से ही वृत्तासुर का वध हो सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं है।

देवराज इंद्र महर्षि दधीचि के पास जाना नहीं चाहते थे, क्योंकि इन्द्र ने एक बार दधीचि ऋषि की तपस्या भंग करने का प्रयास किया था और उनका अपमान भी किया था। दरअसल, महर्षि दधिची ब्रह्म विद्या जानते थे और इंद्र उनसे यह विद्या सीखना चाहता था परंतु दधीचि ऋषि ने यह करकर इनकार कर दिया था कि तुम इस योग्य नहीं हो। यह सुनकर इंद्र ने कहा कि यदि तुम किसी ओर को यह विद्या दोगे तो मैं तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दूंगा। महर्षि दधीचि ने कहा कि यदि कोई योग्य व्यक्ति मेरे पास आएगा तो मैं उसे जरूर यह विद्या दूंगा।

कुछ समय बाद अविश्वन कुमार उनसे यह विद्या सीखने के लिए पहुंचे तो महर्षि दधीचि ने कहा कि मैं तुम्हें यह विद्या जरूर ‍सिखाऊंगा परंतु इंद्र ने मेरा सिर धड़ से अलग करने की धमकी दी है। यह सुनकर अश्विनीकुमारों ने महर्षि दधीचि के धड़ पर अश्व का सिर लगाकर ब्रह्म विद्या प्राप्त कर ली। जब यह बात इंद्र को पता चली तो उन्होंने महर्षि दधीचि का सिर धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद अश्विनीकुमारों ने महर्षि के असली सिर को फिर से धड़ से लगा दिया। यह देखकर इंद्र ने अश्विनीकुमारों को स्वर्ग से निकाल दिया।... इसी घटना के कारण इंद्र महर्षि दधीचि के पास जाने से कतरा रहे थे।

फिर जब वृत्तासुर का अत्याचार बड़ने लगा तो आखिरकार इंद्र को महर्षि दधीचि के पास जाना ही पड़ा और उन्होंने उनसे अपनी अस्थियां देने की प्रार्थना की। देवताओं के कल्याण और असुरों के वध के लिए दधीचि ने वज्र के निर्माण हेतु अपनी अस्थियां दान कर दी थीं। बाद में जब दधीचि की पत्नी गभस्तिनी को यह पता चला तो वह सती होने लगी तो देवताओं ने उसे रोका और कहा कि तुम तो गर्भवती हो। परंतु गभस्तिनी नहीं मानी तब देवताओं ने उसके गर्भ को निकालकर पीपल को उसका लालन-पालन करने का दायित्व सौंपा। पीपल ने ही उस गर्भ को पाला। इसी के कारण दधीचि के पुत्र का नाम पिप्पलाद हुआ।

देवताओं ने दधीचि की रीढ़ की हड्डी से एक हथियार बनाया जिसका नाम वज्र रखा गया। वृत्रासुर एक शक्तिशाली असुर था जिसने देवताओं के नगरों पर कई बार आक्रमण करके उनकी नाक में दम कर रखा था। अंत में इन्द्र ने मोर्चा संभाला और उससे उनका घोर युद्ध हुआ जिसमें वृत्रासुर का वध हुआ। इन्द्र के इस वीरतापूर्ण कार्य के कारण चारों ओर उनकी जय-जयकार और प्रशंसा होने लगी थी।

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आपका प्रश्न है दधीचि की हड्डियों से कुल कितने अस्त्र बने थे महर्षि दधीचि की हड्डियों से देवों ने अनेकों अस्त्र बनाए थे लेकिन उनमें से चार प्रमुख अतिथि पहला था भगवान इंद्र कवच जिससे उन्होंने वृत्रासुर का वध किया था उसके बाद गांधी जो अर्जुन का धनुष पिनाक जो शिवजी का धनुष था जिन्हें राम कीरतपुर दिया था और सारंग जो भगवान श्री विष्णु का धनुष था इसके अलावा दधीचि की हड्डियों से बहुत सारे अंकित अस्त्र शस्त्र बनाए गए थे जो देवताओं ने ससुर के खिलाफ इस्तेमाल किए थे

aapka prashna hai dadhichi ki haddiyon se kul kitne astra bane the maharshi dadhichi ki haddiyon se Devon ne anekon astra banaye the lekin unmen se char pramukh atithi pehla tha bhagwan indra kavach jisse unhone vritrasur ka vadh kiya tha uske baad gandhi jo arjun ka dhanush pinak jo shivaji ka dhanush tha jinhen ram kiratpur diya tha aur sarang jo bhagwan shri vishnu ka dhanush tha iske alava dadhichi ki haddiyon se bahut saare ankit astra shastra banaye gaye the jo devatao ne sasur ke khilaf istemal kiye the

दधीच वैदिक ऋषि थे। इनके जन्म के संबंध में अनेक कथाएँ हैं। यास्क के मतानुसार ये अथर्व के पुत्र हैं। पुराणों में इनकी माता का नाम 'शांति' मिलता है। इनकी तपस्या के संबंध में भी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। इन्हीं की हड्डियों से बने वज्र से इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया था। कुछ लोग आधुनिक मिश्रिखतीर्थ (बिहार के सिवान जिले) को इनकी तपोभूमि बताते हैं। इनका प्राचीन नाम 'दध्यंच' कहा जाता है।

दधीचि

  • कुल: ब्राह्मण
  • पिता: अथर्वा
  • विवाह: गभस्तिनी
  • संतान: पिप्पलाद
  • विशेष: दधीचि द्वारा देह त्याग देने के बाद देवताओं ने उनकी पत्नी के सती होने से पूर्व उनके गर्भ को पीपल को सौंप दिया था, जिस कारण बालक का नाम 'पिप्पलाद' हुआ था।


यास्क के मतानुसार दधीचि की माता 'चित्ति' और पिता 'अथर्वा' थे, इसीलिए इनका नाम 'दधीचि' हुआ था। किसी पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या 'शांति' के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र थे। दधीचि प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्यातिप्राप्त महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम 'गभस्तिनी' था। महर्षि दधीचि वेद शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था। जो भी अतिथि महर्षि दधीचि के आश्रम पर आता, स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी अतिथि की पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे। यूँ तो 'भारतीय इतिहास' में कई दानी हुए हैं, किंतु मानव कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले मात्र महर्षि दधीचि ही थे। देवताओं के मुख से यह जानकर की मात्र दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र द्वारा ही असुरों का संहार किया जा सकता है, महर्षि दधीचि ने अपना शरीर त्याग कर अस्थियों का दान कर दिया।

लोक कल्याण के लिये आत्म-त्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। यास्क के मतानुसार दधीचि की माता 'चित्ति' और पिता 'अथर्वा' थे, इसीलिए इनका नाम 'दधीचि' हुआ था। किसी पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या 'शांति' के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र थे। अन्य पुराणानुसार यह शुक्राचार्य के पुत्र थे। महर्षि दधीचि तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। भगवान शिव के प्रति अटूट भक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।

कहा जाता है कि एक बार इन्द्रलोक पर 'वृत्रासुर'(दधीचि के मास से भगवान विष्णूका सुदर्शन चक्रभी बना हैl) नामक राक्षस ने अधिकार कर लिया तथा इन्द्र सहित देवताओं को देवलोक से निकाल दिया। सभी देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा, विष्णु व महेश के पास गए, लेकिन कोई भी उनकी समस्या का निदान न कर सका। बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक में 'दधीचि' नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाये। उस वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज़ है, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं है।

देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास जाना नहीं चाहते थे, क्योंकि इन्द्र ने एक बार दधीचि का अपमान किया था, जिसके कारण वे दधीचि के पास जाने से कतरा रहे थे। माना जाता है कि ब्रह्म विद्या का ज्ञान पूरे विश्व में केवल महर्षि दधीचि को ही था। महर्षि मात्र विशिष्ट व्यक्ति को ही इस विद्या का ज्ञान देना चाहते थे, लेकिन इन्द्र ब्रह्म विद्या प्राप्त करने के परम इच्छुक थे। दधीचि की दृष्टि में इन्द्र इस विद्या के पात्र नहीं थे। इसलिए उन्होंने इन्द्र को इस विद्या को देने से मना कर दिया। दधीचि के इंकार करने पर इन्द्र ने उन्हें किसी अन्य को भी यह विद्या देने को मना कर दिया और कहा कि- "यदि आपने ऐसा किया तो मैं आपका सिर धड़ से अलग कर दूँगा"। महर्षि ने कहा कि- "यदि उन्हें कोई योग्य व्यक्ति मिलेगा तो वे अवश्य ही ब्रह्म विद्या उसे प्रदान करेंगे।" कुछ समय बाद इन्द्रलोक से ही अश्विनीकुमार महर्षि दधीचि के पास ब्रह्म विद्या लेने पहुँचे। दधीचि को अश्विनीकुमार ब्रह्म विद्या पाने के योग्य लगे। उन्होंने अश्विनीकुमारों को इन्द्र द्वारा कही गई बातें बताईं। तब अश्विनीकुमारों ने महर्षि दधीचि के अश्व का सिर लगाकर ब्रह्म विद्या प्राप्त कर ली। इन्द्र को जब यह जानकारी मिली तो वह पृथ्वी लोक में आये और अपनी घोषणा के अनुसार महर्षि दधीचि का सिर धड़ से अलग कर दिया। अश्विनीकुमारों ने महर्षि के असली सिर को फिर से लगा दिया। इन्द्र ने अश्विनीकुमारों को इन्द्रलोक से निकाल दिया। यही कारण था कि अब इन्द्र महर्षि दधीचि के पास उनकी अस्थियों का दान माँगने के लिए आना नहीं चाहते थे। वे इस कार्य के लिए बड़ा ही संकोच महसूस कर रहे थे।

दधीचि द्वारा अस्थियों का दान[संपादित करें]

देवलोक पर वृत्रासुर राक्षस के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे। वह देवताओं को भांति-भांति से परेशान कर रहा था। अन्ततः देवराज इन्द्र को इन्द्रलोक की रक्षा व देवताओं की भलाई के लिए और अपने सिंहासन को बचाने के लिए देवताओं सहित महर्षि दधीचि की शरण में जाना ही पड़ा। महर्षि दधीचि ने इन्द्र को पूरा सम्मान दिया तथा आश्रम आने का कारण पूछा। इन्द्र ने महर्षि को अपनी व्यथा सुनाई तो दधीचि ने कहा कि- "मैं देवलोक की रक्षा के लिए क्या कर सकता हूँ।" देवताओं ने उन्हें ब्रह्मा, विष्णु व महेश की कहीं हुई बातें बताईं तथा उनकी अस्थियों का दान माँगा। महर्षि दधीचि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियों का दान देना स्वीकार कर लिया। उन्होंने समाधी लगाई और अपनी देह त्याग दी। उस समय उनकी पत्नी आश्रम में नहीं थी। अब देवताओं के समक्ष ये समस्या आई कि महर्षि दधीचि के शरीर के माँस को कौन उतारे। इस कार्य के ध्यान में आते ही सभी देवता सहम गए। तब इन्द्र ने कामधेनु गाय को बुलाया और उसे महर्षि के शरीर से मांस उतारने को कहा। कामधेनु ने अपनी जीभ से चाट-चाटकर महर्षि के शरीर का माँस उतार दिया। अब केवल अस्थियों का पिंजर रह गया था।

महर्षि दधीचि ने तो अपनी देह देवताओ की भलाई के लिए त्याग दी, लेकिन जब उनकी पत्नी 'गभस्तिनी' वापस आश्रम में आई तो अपने पति की देह को देखकर विलाप करने लगी तथा सती होने की जिद करने लगी। तब देवताओ ने उन्हें बहुत मना किया, क्योंकि वह गर्भवती थी। देवताओं ने उन्हें अपने वंश के लिए सती न होने की सलाह दी। लेकिन गभस्तिनी नहीं मानी। तब सभी ने उन्हें अपने गर्भ को देवताओं को सौंपने का निवेदन किया। इस पर गभस्तिनी राजी हो गई और अपना गर्भ देवताओं को सौंपकर स्वयं सती हो गई। देवताओं ने गभस्तिनी के गर्भ को बचाने के लिए पीपल को उसका लालन-पालन करने का दायित्व सौंपा। कुछ समय बाद वह गर्भ पलकर शिशु हुआ तो पीपल द्वारा पालन पोषण करने के कारण उसका नाम 'पिप्पलाद' रखा गया। इसी कारण दधीचि के वंशज 'दाधीच' कहलाते हैं। ।

दधीचि हड्डी से क्या बना?

इन्हीं की हड्डियों से बने वज्र से इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया था।

दधीचि के हड्डियों से कितने धनुष बने?

दिव्य धनुष और तरकश : दधीचि ऋषि ने देश के हित में अपनी हड्डियों का दान कर दिया था। उनकी हड्डियों से 3 धनुष बने- 1. गांडीव, 2. पिनाक और 3.

दधीचि ने क्या त्याग किया था?

इस दौरान उन्होंने कहा कि वैसे तो भारतीय इतिहास में कई दानी हुए। कितु मानव कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले मात्र महर्षि दधीचि ही थे। देवताओं के मुख से यह जानकर की मात्र दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र से ही असुरों का संहार किया जा सकता है। महर्षि दधीचि ने अपना शरीर त्याग कर अस्थियों का दान कर दिया था

दधीचि ने क्या दान दिया था?

महर्षि दधीचि को भगवान शिव से अस्थि वज्र का वरदान प्राप्त था। परोपकार की भावना वे दधीच ने अपनी अस्थियों को दान करना स्वीकार किया और अंत में दैत्य वृत्तासुर का वध हुआ।

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