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सत्य और असत्य की पहचान करना आज के कलयुग में बड़ा ही कठिन हो गए आए फिर भी सत्य की हमेशा विजय की होती है और असत्य कभी ना कभी सामने आई जाता है जो सच्चाई के रास्ते पर चलता है वही सच्चा व्यक्ति होता है जो झूठ के सहारे पर चलता है वह ज्यादा दिन तक नहीं टिकता है तो यही पहचान होती है सत्य की हमेशा विजय होती है और असत्य की
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Question
सत्य की पहचान हम कैसे करें? कविता के संदर्भ में स्पष्ट कीजिए।
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Solution
कविता के अनुसार सत्य हमारे अंतकरण में विद्यमान होता है। उसे खोजने के लिए हमें अपने भीतर झाँकना आवश्यक है। सत्य के प्रति हमारे मन में संशय उत्पन्न हो सकता है परन्तु यह संशय हमारे भीतर व्याप्त सत्य को धूमिल नहीं कर पाता। हमें सदैव परिस्थिति, घटनाक्रमों को ध्यान में रखते हुए सत्य को पहचानना चाहिए। मनुष्य परिस्थिति तथा घटनाक्रमों के अनुसार सत्य-असत्य के मध्य फंसा रहता है। जो स्वयं को इस स्थिति से निकालकर सत्य के स्वरूप को पहचान कर अडिग होकर इस मार्ग पर चलता है, वही सत्य के समीप पहुँच पाता है। सत्य का स्वभाव स्थिर नहीं है,उसे हमारे द्वारा स्थिरता प्रदान की जाती है। हम यदि उसे संकल्प पूर्वक अपने जीवन में व्यवहार में लाते हैं, तो इसका तात्पर्य है कि हमने सत्य को पहचान लिया है।
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प्राणी के साथ सत्य सतत गतिमान रहता है चूंकि प्राणी सदैव सत्य में ही रहता है इसलिए उसकी उपस्थिति को महसूस नहीं कर पाता है । स्वयं सत्य स्वरूप होते हुये भी सत्य से विलग महसूस करता है । जबकि प्राणी परमात्मा का अंश है वह तो स्वयं ही सत्य है फिर भी नासमझी के कारण भ्रमित रहता है। इस को हम ऐसे भी समझ सकते हैं जैसे कि जब तक हमारे पास जो वस्तु रहती है हमें उसकी क़दर नहीं रहती और जैसे ही वो चीज़ हमारे जीवन से लुप्त हो जाती है हमें उसकी कमी महसूस होने लगती है। सत्य की पहचान भी कुछ ऐसी ही है चूंकि
वो हमें नित्य प्राप्त है इसलिये उसकी ज़रूरत महसूस नहीं होती पर जैसे ही कहीं मन आहत होता है तत्काल सत्य की सार्थकता की समझ महसूस होती है।
शरीर और चेतना के मिलने से प्राणी का निर्माण होता है पर ये दोनों सर्वथा असंग हैं किसी कवि ने इसी प्रसंग को कुछ इन लव्जो़ं में बयान किया है….
अजीब रिश्ता है इस जिस्म का रूह के साथ,
ताउम्र साथ रहे फिर भी तआरूफ़ न हुआ …
हम स्वयं को समझ ही नहीं पाते हैं कि वास्तव में हम हैं क्या ? हम शरीर को ही स्वयं समझते हैं । शरीर को ही पहचानते हैं। प्रथमदृष्टया व्यक्ति जिसे देख रहा है वो उसे ही ,स्वयं को ,समझ रहा होता है और जो दिखाई नहीं दे रहा है , जो अदृश्य है उससे वो अंजान है । उसे जो दिखाई दे रहा है उसे वही सत्य भासता है। चूंकि दृश्य दिख रहा है इसलिए सच लग रहा है। जगत दृश्य है इसलिये सत्य प्रतीत हो रहा है वो स्वयं सत्य स्वरूप होते हुये भी प्यासा भटक रहा है। सत्य सागर में रहते हुये भी प्यासा है । मात्र दृश्य से संतुष्टी कैसे मिल सकती है? उसके लिये तो थोड़ा भीतर दृष्टा में आना होगा ,स्वयं से परिचित होना होगा।
हमारे चारों तरफ सत्य बिखरा हुआ है फिर भी हम सत्यता से कितनी दूर हैं । ऐसी ही स्थिति हम सब की है। मन नित नये कर्म कर तृप्त होना चाहता है , वह नित नये कर्म से श्रमित और भ्रमित होता रहता है सदैव अतृप्त रहता है कारण सिर्फ यही है कि हमारा मन असत्य को सत्य समझने की भूल कर रहा है ।
हम सब की यही स्थिति है ,चाहते हैं कि तृप्ति मिले इसलिये स्वभावतः सच सुनना, सच कहना और सच में रहना पसंद करते हैं किन्तु असत्य को ही सत्य समझने की भूल के कारण अतृप्त रहते हैं और व्यर्थ में श्रमित होते हैं ।
सद्गुरू शरण में आते ही हमारा असत्य का भ्रम टूट जाता है
क्योंकि हम लोग जिसे सच समझ कर व्यवहृत कर रहे थे वो तो असत्य था तभी अतृप्त थे ।
वास्तव में शरीर सत्य भी है और असत्य भी है । सत्य इसलिये क्योंकि वह चैतन्य स्वरूप है और असत्य इसलिए क्योंकि विनाशी है। उसकी एक सीमित अवधि है ,सीमित अवधि में अनन्त इच्छाओं की पूर्ति कर पाना किसी के लिये भी संभव नहीं है। मन को तृष्णा सदैव ही असंतुष्ट रखती है अच्छे या बुरे कार्य में उलझाती है, शंकायुक्त मन भी तृप्ति की लालसा में कुछ न कुछ करना चाहता है और अन्त में छूछा का छूछा ही रह जाता है ।प्यासा व्यक्ति सत्य की अन्वेषणा में इधर से उधर भटकता रहता है।
“न माया मिली न राम” की स्तिथि में खिन्न मन विचलित और निराश होने लगता है और तभी उसके भीतर बैठे परमात्मा,उसकी पहचान किसी परम ऊर्जा से ओत प्रोत कामिल मुर्शिद से कराते हैं ।
जब उसके जीवन में सद्गुरू का पदार्पण होता है तब उसके मलिन मन की समझ विकसित होती है । उसे सही दिशा मिलती है और भीतर ही भीतर एक गहरा विश्वास पनपने लगता है कि परमात्मा तो है कहीं ज़रूर जो दिखाई तो नहीं दे रहा है पर आपको देख अवश्य रहा है । तभी तो आपकी आत्मा को परम सत्य की अनुभूति होती है स्वतः संतुष्टि मिलने लगती है ।
मैंने तो महसूस किया है कि जीवन में सद्गुरू होना अपने आप में बहुत बड़ा सौभाग्य है क्योंकि संसार में भटकाव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है…संत मीरा बाई के शब्द ऐसे ही नहीं उनके अस्तित्व से मुखर हुये होंगे, कितनी कशिश है अक्षरशः कितनी सच्चाई है इन पंक्तियों में…..
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो
वस्तु अमौलिक दियो मेरे सतगुरू
किरपा कर अपनायो …..
सद्गुरू के जीवन में पदार्पण के पूर्व भी हम थे पर स्वयं से बेखुद, बेसुध और असंतुष्ट , और अब मेरी समझ में, मेरे दृष्टिकोण में बहुत बड़ी उपलब्धि है, आत्मसंतोष है ,जो पहले नहीं था। पहले भी ,जब सब कुछ था तब, सत्य की ही चाहत थी, पर मन फिर भी असंतुष्ट था। और अभी भी सभी कुछ है पर ,सत्य की पहचान से ,एक समझ है जिससे मन तृप्त है। मेरी समझ से आत्मसंतुष्टि ही सत्य की पहचान है,परम शांति ही परम विश्राम है ।
ऊँ आनन्दम्