संभावना वक्र से क्या अभिप्राय है? - sambhaavana vakr se kya abhipraay hai?

उत्पादन संभावना वक्र (PRODUCTION POSSIBILITY CURVE)

उत्पादन संभावना वक्र अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता को दर्शाताहै। अर्थात् यह इस बात की व्याख्या करता है कि अर्थव्यवस्था में  उपलब्ध संसाधनों तथा उत्पादन की तकनीक की सहायता से उत्पादित होने वाली वस्तुओं की अधिकतम उत्पादन कितना संभव है ? इसकी सहायता से अर्थव्यवस्था की केंद्रीय समस्याओं की भी व्याख्या की जा सकती है। 

             एक उत्पादन संभावना वक्र दो वस्तुओं के वैसे वैकल्पिक संयोगों को दर्शाता है जिनका अधिकतम उत्पादन अर्थव्यवस्था में उपलब्ध संसाधनों के कुशलतम प्रयोग से संभव होता है। यहां कुशलतम प्रयोग से आशय है कि उपलब्ध सभी संसाधन पूर्णतः रोजगार में लगे हैं तथा अपनी क्षमता के अनुरूप उत्पादन कर रहे हैं।

                उत्पादन संभावना वक्र की व्याख्या करने के पूर्व उन मान्यताओं पर विचार कर लेना आवश्यक है जिनपर यह संकल्पना आधारित है

  • केवल दो वस्तुओं का उत्पादन होता है।
  • दिए हुए संसाधन स्थिर होते हैं।
  • संसाधनों में विशिष्टता का गुण नहीं पाया जाता, अर्थात संसाधनों को एक वस्तु के उत्पादन से हटाकर दुसरी वस्तु के उत्पादन में लगाया जा सकता है।
  • उत्पादन के तकनीक में कोई परिवर्तन नहीं होता।
  • पूर्णरोजगार की स्थिति पाई जाती है।
  • संसाधनों का प्रयोग दक्षता से होता है।

एक उत्पादन संभावना वक्र की व्याख्या निम्न तालिका से की जा सकती है।

                 उत्पादन संभावना तालिका

 उत्पादन

संभावना

चावल

(क्विंटलमें)

गन्ना

(क्विंटल में)

A

0

140

B

50

100

C

100

70

D

150

45

E

200

25

F

250

10

G

300

0

उत्पादित हो सकने वाली दो वस्तुओं के विभिन्न वैकल्पिक संयोगों को दर्शाने वाली तालिका उत्पादन संभावना तालिका कहलाती है।
तालिका पर विचार कीजिए। उत्पादन संभावना ‘A’ पर आप पायेंगे कि अगर अर्थव्यवस्था सभी संसाधनों को गन्ना के उत्पादन में लगाये तो गन्ने का अधिकतम उत्पादन 140 क्विंटल होगा तथा चावल का शून्य। संभावना ‘B’ को देखिए अब अर्थव्यवस्था 50 क्विंटल चावल का उत्पादन करने का विचार कर रही है। उसे गन्ने के उत्पादन में लगे कुछ संसाधनों को चावल के उत्पादन में लगाना होगा, जिससे गन्ना के उत्पादन में कमी होगी। तालिका में गन्ने का उत्पादन 100 क्विंटल है, जो पहले से कम है। इसी प्रकार जब अर्थव्यवस्था सभी संसाधनों को चावल के उत्पादन में लगा दे तो चावल का अधिकतम उत्पादन 300 क्विंटल एवं गन्ने का उत्पादन 0 क्विंटल होगी। (संभावना ‘G’ )
तालिका से स्पष्ट है कि यदि अर्थव्यवस्था को किसी एक वस्तु के उत्पादन में वृद्धि करने के लिए दुसरी वस्तु के उत्पादन में कमी करना होगा

यह मानते हुए कि एक अर्थव्यवस्था उपलब्ध सभी संसाधनों का कुशलतम प्रयोग करते हुए केवल दो वस्तुओं X तथा Y का उत्पादन करती है। चित्र में वक्र PQ उत्पादन संभावना वक्र है। मान लिया जाए कि एक अर्थव्यवस्था PPC के बिंदू A पर उत्पादन कर रही है। इस बिंदू पर वस्तु X की ox तथा वस्तु Y की oy मात्रा का उत्पादन हो रहा है। PPC के बिंदू B पर वस्तु X की ox1 तथा वस्तु Y की oy1 मात्रा का उत्पादन होता है। यदि अर्थव्यवस्था वस्तु X के उत्पादन में वृद्धि करना चाहती है तो उसे PPC के बिंदू B पर उत्पादन करना होगा जहाँ वस्तु Y के उत्पादन में कमी हो रही है। 

उत्पादन संभावना वक्र की विशेषताएँ 

  1.   उत्पादन संभावना वक्र की ढाल ऋणात्मक होती है।  

       उत्पादन संभावना वक्र की ढाल ऋणात्मक होती है। इस कथन से तात्पर्य है कि जब अर्थव्यवस्था एक वस्तु के उत्पादन में वृद्धि करना चाहती है तो उसे दुसरी वस्तु के उत्पादन में कमी करनी होगी।

  2. उत्पादन संभावना वक्र मूल बिंदु की ओर अवतल होता है।
उत्पादन संभावना वक्र मूल बिंदु की ओर अवतल होता है। इस कथन से तात्पर्य है कि एक वस्तु के उत्पादन में प्रत्येक वृद्धि के साथ दुसरी वस्तु की त्याग की जाने वाली मात्रा क्रमशः अधिक होती जाती है। अर्थात् सीमांत अवसर लागत बढ़ती जाती है। इसका कारण है कि संसाधन दोनो वस्तु के उत्पादन में समान रूप से अनुकूल नहीं होते।

उत्पादन संभावना वक्र में विवर्तन के कारण

1. उत्पादन की तकनीक में उन्नति - 

उत्पादन के कोई नई तकनीक की खोज होने से दोनों वस्तुएँ पूर्व की तुलना में अधिक मात्रा में उत्पादित होंगी।PPC में विवर्तन दायीं ओर होगा। जैसा कि  चित्र से स्पष्ट है।

2.संसाधनों का विकास 

पहले से उपलब्ध संसाधनों में वृद्धि (श्रम शक्ति में वृद्धि, पूँजी निर्माण में वृद्धि आदि) या कुछ नये संसाधनों की खोज (जैसे नये खनिजों का पता लगना) होने पर दोनों वस्तुओं को अधिक मात्रा में उत्पादन किया जा सकता है। परिणामतः उत्पादन संभावना वक्र अपनी मूल स्थिति से दायीं ओर विवर्तित हो जायेगा।

जैसा कि  चित्र से स्पष्ट है।

 THANKS 

P.K.PATHAK

R.K.+2 HIGH SCHOOL RAMNA

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

केन्द्रीय बैंक- अर्थ, परिभाषा और कार्य

केन्द्रीय बैंक- अर्थ, परिभाषा और कार्य     केन्द्रीय बैंक का अर्थ किसी भी देश की बैंकिंग व्यवस्था में उस देश के केन्द्रीय बैंक का एक अहम स्थान होता है। केन्द्रीय बैंक देश की पूरी मौद्रिक एवं बैंकिंग व्यवस्था का नियंत्रण करता है। पूरी बैंकिंग व्यवस्था में केन्द्रीय बैंक का सर्वोच स्थान प्राप्त है। यह बैंकों के लिए मित्र , दार्शनिक और पथ प्रदर्शक  का कार्य करता है। यह सरकार की ओर से मौद्रिक नीति का निर्माण और क्रियान्वयन करता है। प्रत्येक देश में एक केन्द्रीय बैंक होता है। इंग्लैंड में बैंक ऑफ इंग्लैंड , अमेरिका में फेडरल रिजर्व सिस्टम तथा भारत में भारतीय रिजर्व बैंक आदि केन्द्रीय बैंक हैं। आरबीआई की स्थापना 1 अप्रैल 1935 ई. में भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम 1934 के तहत हुई।      एक केन्द्रीय बैंक को ऐसी वित्तीय संस्था के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसे राष्ट्र या राष्ट्रों  के  समूह के लिए धन सृजन एवं ऋण प्रदान करने के लिए विशेषाधिकार दिया जाता है। विश्व में केन्द्रीय बैंक का विकास v     विश्व का सबसे पुराना केन्द्रीय बैंक बैंक ऑफ स्वीडन है जिसकी स्थापना 1668 ई. में डच व्यापारियों की

मुद्रा पूर्ति निर्धारण का सिद्धांत

मुद्रा पूर्ति के निर्धारण का सिद्धांत मुद्रा पूर्ति के निर्धारण के संबंध में दो सिद्धांत हैं।-    पहले  सिद्धांत  के  अनुसा र  अर्थव्यवस्था  में  मुद्रा  की  पूर्ति  का  निर्धारण  केन्द्रीय  बैंक  के  द्वारा बहिर्जात रूप से होता है। प्रायः प्रत्येक देश का केन्द्रीय बैंक उस  देश की  मुद्रा का निर्गमन करता है। भारत में मुद्रा निर्गमन का कार्य भारतीय रिजर्व बैंक को आवंटित है। आरबीआई एक रुपया के नोट को छोड़कर सभी मूल्य के नोटों का निर्गमन करता है। एक रुपया के नोट तथा 1, 2 और 5 रुपये मूल्य के सिक्के वित्त विभाग के द्वारा जारी किए जाते हैं तथा इनका वितरण आरबीआई के द्वारा होता है। आरबीआई ने मुद्रा निर्गमन के लिए न्यूनतम आवश्यक रिजर्व सिद्धांत का पालन करता  है। यह   इसके लिए न्यूनतम 115 करोड़ रुपये का सोना तथा 85 करोड़ रुपये का विदेशी विनिमय रिजर्व आवश्यक रूप से रखता है    दूसरे सिद्धांत के अनुसार मुद्रा की पूर्ति का निर्धारण आर्थिक क्रियाओं में परिवर्तन के द्वारा अन्तर्जात रूप से होता है। इस सिद्धांत के अनुसार मुद्रा की पूर्ति का निर्धारण बैंकिंग प्रणाली की क्रियाविधि के द्वारा होता है। ब

संबंधित पोस्ट

Toplist

नवीनतम लेख

टैग