सभी को अपने नाम का विरोधाभास लेकर जीना पड़ता है पाठ में ऐसा क्यों कहा गया है अंतर हो सकता है? - sabhee ko apane naam ka virodhaabhaas lekar jeena padata hai paath mein aisa kyon kaha gaya hai antar ho sakata hai?

महादेवी जी इस पाठ में हिरनी सोना, कुत्ता वसंत, बिल्ली गोधूलि आदि के माध्यम से पशु-पक्षी को मानवीय संवेदना से उकेरने वाली लेखिका के रूप में उभरती हैं। उन्होंने अपने घर में और भी कई पशु-पक्षी पाल रखे थे तथा उन पर रेखाचित्र भी लिखे हैं। शिक्षक की सहायता से उन्हें ढूँढकर पढ़ें। जो मेरा परिवार नाम से प्रकाशित है।

महादेवी वर्मा ने पशु-पक्षियों के बारे में रेखाचित्र लिखे हैं। उनमें से एक हिरण-शावक ‘सोना ‘ पर लिखा रेखाचित्र प्रस्तुत है-

लेखिका को एक दिन अपने परिचित डॉ. धीरेंद्र नाथ बसु की पौत्री सुस्मिता का पत्र मिला। उसने लिखा था कि उसे गत वर्ष अपने पड़ोसी से एक हिरण का बच्चा मिला था। अब वह बड़ा हो गया है। उसे घूमने को अधिक स्थान चाहिए। वह उसे रख पाने में असमर्थ है, परंतु ऐसे व्यक्ति को देना चाहती है जो उसके साथ अच्छा व्यवहार करे। सुस्मिता को विश्वास था कि लेखिका उसकी देखभाल उचित प्रकार से कर सकेगी।

पत्र को पढ़कर लेखिका को ‘सोना’ की याद आती है। ‘सोना’ एक हिरणी थी। उसकी मृत्यु के बाद लेखिका ने हिरण न पालने का निश्चय किया था, परंतु अब उस निश्चय को तोड़े बिना उस कोमल प्राणी की रक्षा संभव न थी।

‘सोना’ भी अपनी शैशवावस्था में इसी भांति लेखिका के संरक्षण में आई थी। उसका छोटा-सा शरीर सुनहरी रेशमी लच्छों की गांठ के समान था। उसका मुँह छोटा-सा तथा आँखें पानीदार थीं। उसके कान लंबे तथा टाँगें पतली तथा सुडौल थीं। सभी उससे बहुत प्रभावित हुए। उसे सोना, सुवर्ण तथा स्वर्णलेखा नाम दिये गये। बाद में उसका नाम ‘सोना’ ही हो गया।

जिन लोगों ने हरे-भरे वनों में छलांग लगाते हुए हिरणो को देखा है वही उनके अद्भुत गतिमान सौंदर्य के बारे में सोच सकते हैं। लेखिका को आश्चर्य है कि शिकारी उस सौंदर्य को क्यों नही देख पाते। वे कैसे इन निरीह प्राणियों को मारकर अपना मनोरंजन करता है? मनुष्य मृत्यु को असुंदर तथा अपवित्र मानता है। फिर वह इन सुंदर प्राणियों के प्राण कैसे ले लेता है? यह बात लेखिका की समझ में नहीं आती।

आकाश में उड़ते तथा वृंदगान करते रंग-बिरंगे पक्षी फूलों की घटाओं जैसे लगते हैं। मनुष्य उन्हें अपनी बदूक का निशाना बनाकर प्रसन्न होता है। मनुष्य पक्षियों का ही नहीं, पशुओं का भी विनाश करता है। हिरण सुंदरता में अद्वितीय है परंतु मनुष्य इसमें सौंदर्य नहीं देख पाता। मानव जो स्वयं जीवन का सर्वश्रेष्ठ रूप है, जीवन के दूसरे रूपों में जीवन के प्रति उदासीन तथा उनकी मृत्यु के प्रति इतना आसक्त क्यों है?

‘सोना’ भी मनुष्य की इसी निष्ठुर मनोरंजनप्रियता के कारण आई थी। वन के शांत वातावरण में मृग समूह विचरण कर रहा था। तभी एक मृगी ने ‘सोना’ को जन्म दिया था। अचानक शिकारियों के आने पर मृग समूह भाग गया, परंतु ‘सोना’ और उसकी माँ न भाग सके। शिकारी मृगी को मारकर ‘सोना’ को भी ले गए। उनके परिवार की किसी दयालु महिला ने उसे पानी मिला दूध पिलाकर दो-चार दिन रखा। फिर मरणासन्न सोना को कोई बालिका लेखिका के पास छोड़ गई।

लेखिका ने उसे स्वीकार कर उसके लिए दूध पिलाने की बोतल, ग्लूकोज तथा बकरी के दूध का प्रबंध किया। उसका मुँह छोटा होने के कारण उसमें निपल नहीं आता था। उसे निपल से दूध पीना भी नहीं आता था, लेकिन धीरे-धीरे उसे सब आ गया। वह भक्तिन को पहचानने लगी। रात को वह लेखिका के पलंग के पास जा बैठती। छात्रावास की लड़कियाँ पहले तो उसे कौतुक से देखतीं, लेकिन फिर वे उसकी मित्र बन गईं।

नाश्ते के बाद सोना कंपाउंड में चौकड़ी भरती, फिर छात्रावास का निरीक्षण-सा करती। वहाँ कोई छात्रा उसके कुमकुम लगाती तो कोई प्रसाद खिलाती। मेस में सब उसे कुछ-न-कुछ खिलाते। इसके बाद वह घास के मैदान मैं लेटती और भोजन के समय लौटकर लेखिका से सटकर चावल-रोटी और कच्ची सब्जियाँ खाती। घंटी बजते ही प्रार्थना के मैदान में पहुँच जाती।

बच्चे उसे ‘सोना, सोना’ कहकर पुकारते। वह उनके ऊपर से छलांग लगाती रहती। यह क्रम घंटों चलता। वह लेखिका के ऊपर से होकर छलांग लगाकर अपना स्नेह प्रदर्शित करती। कभी वह उनके पैरों से अपना शरीर रगड़ती। बैठे रहने पर वह उनकी साड़ी का छोर मुँह में भर लेती या चोटी चबा डालती। डाँटने पर गोल-गोल चकित और जिज्ञासा भरी नजरों से देखती। कालिदास ने अपने नाटकों में मृगी तथा मृग शावकों को जो महत्त्व दिया है, उसका महत्त्व मृग पालकर ही जाना जा सकता है।

कुत्ता स्वामी सेवक का अंतर तथा स्वामी के स्नेह और क्रोध को समझता है। हिरन यह अंतर नहीं जानता। वह पालने वाले के क्रोध से डरता नहीं बल्कि उसकी दृष्टि से दृष्टि मिलाकर खड़ा रहेगा। लेखिका के अन्य पालित जंतुओं में बिल्ली गोधूली कुत्ते हेमंत-वसंत तथा कुतियाँ फ्लोरा ने पहले तो ‘सोना’ को नापसंद किया, परंतु वे शीघ्र ही मित्र बन गए। एक वर्ष बीत जाने पर ‘सोना’ शावक से हिरणी में परिवर्तित होने लगी। अन्य शारीरिक परिवर्तनों के साथ उसकी आँखों में नीलम के बल्बों का सा विद्युतीय स्फुरण आ गया। वह किसी की प्रतीक्षा-सी करती लगती। इसी बीच फ्लोरा ने चार बच्चों को जन्म दिया। एक दिन फ्लोरा के बाहर जाने पर ‘सोना’ उन बच्चों के मध्य लेट गई और वे आँखें मींच कर उसके उदर में दूध खोजने लगे फिर उसका वह नित्यकर्म बन गया। फ्लोरा भी उस पर विश्वास करती थी।

उसी वर्ष ग्रीष्मावकाश में लेखिका बद्रीनाथ की यात्रा पर गईं। वह फ्लोरा को भी साथ ले गईं। छात्रावास बंद था। ग्रीष्मावकाश समाप्त करके दो जुलाई को लेखिका के लौटने पर ‘सोना’ को न पाकर, उन्होंने पूछताछ की तो सेवकों ने बताया कि लेखिका की अनुपस्थिति तथा छात्रावास के सन्नाटे से ऊबकर ‘सोना’ कुछ खोजती-सी कंपाउंड से बाहर चली जाती थी। कोई उसे मार न दे इसलिए माली ने उसे लंबी रस्सी से बाँधना शुरू कर दिया। एक दिन जोर से उछलने पर वह मुँह के बल गिरी तथा स्वर्ग सिधार गई। उसे गंगा में प्रवाहित कर दिया गया। ‘सोना’ की करुण कथा सुनकर लेखिका ने हिरणी न पालने का निश्चय किया था, परंतु संयोग से उन्हें फिर हिरण पालना पड़ रहा है।

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