प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन क्या है? - praacheen bhaarateey raajaneetik chintan kya hai?

प्राचीन भारतीय विचारक, महान कूटनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ तथा मगध राज्य के भाग्य-निर्माता कौटिल्य का नाम ‘अर्थशास्त्रा के प्रणेता के रूप में प्रसिद्ध है। कौटिल्य ;375ऋ300 र्इ0 पू0) को उसके जन्म के नाम विष्णुगुप्त तथा चाणक्य के नाम से भी जाना जाता है। वह मगध नरेश चन्द्रगुप्त मौर्य का महामंत्राी था। तत्कालीन भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। कौटिल्य ने अपनी राजनीतिक व कूटनीतिक कला व सूझबूझ से इन्हें एक सूत्रा में बाँधकर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना मेें योगदान दिया।

कौटिल्य का ग्रन्थ ‘अर्थशास्त्रा ;।तजीेंीेंजतंद्ध आ£थक विषयों पर लिखा गया ग्र्रंथ नहीं है, बलिक यह राज्य की प्रÑति तथा शासन की कला में सम्बनिधत है। कौटिल्य के अनुसार मनुष्यों से बसी हुर्इ भूमि ‘अर्थ है तथा भूमि की प्रापित, रक्षा तथा संवर्धन की कला ‘राजशास्त्रा है। अत: राजशास्त्रा से सम्बनिधत हेाते हुए भी कौटिल्य ने इसका नाम ‘अर्थशास्त्रा रखा। राजनीतिक व आ£थक विषयों के अलावा इसमें नैतिकता, शिक्षा, सैन्य प्रबन्ध, राजा व प्रजा के कत्र्तव्य, प्रशासन जन-कल्याण तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है। वस्तुत: कौटिल्य ने राजनीतिशास्त्रा के मूल सिद्धांतों की चर्चा करने के बजाय प्रशासन के व्यवहारिक पक्ष पर अधिक èयान केनिद्रत किया है।

राज्य की अवधारणा: राज्य की उत्पत्ति के संदर्भ में कौटिल्य ने स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा किन्तु कुछ संयोगवश की गर्इ टिप्पणियों से स्पष्ट होता है कि वह राज्य के दैवी सिद्धांत के स्थान पर सामाजिक समझौते का पक्षधर था। हाब्स, लाक तथा रूसो की तरह राज्य की उत्पत्ति से पूर्व की प्राÑतिक दशा को वह अराजकता की संज्ञा देता है। राज्य की उत्पत्ति तब हुर्इ जब मत्स्य न्याय के कानून से तंग आकर लोगों ने मनु को अपना राजा चुना तथा अपनी Ñषि उपज का छठा भाग तथा स्वर्ण का दसवा भाग उसे देना स्वीकार किया। इसके बदले में राजा ने उनकी सुरक्षा तथा कल्याण का उत्तरदायित्व सम्भाला। कौटिल्य राजतंत्रा का पक्षधर है।

राज्य के तत्त्व : सप्तांग सिद्धांत- कौटिल्य ने पाश्चात्य राजनीतिक चिन्तकों द्वारा प्रतिपादित राज्य के चार आवश्यक तत्त्वाें-भूमि, जनसंख्या, सरकार व सभ्प्रभुता का विवरण न देकर राज्य के सात तत्त्वों का विवेचन किया है। इस सम्बन्ध में वह राज्य की परिभाषा नहीं देता किन्तु पहले से चले आ रहे साप्तांग सिद्धांत का समर्थन करता है। कौटिल्य ने राज्य की तुलना मानव-शरीर से की है तथा उसके सावयव रूप को स्वीकार किया है। राज्य के सभी तत्त्व मानव शरीर के अंगो के समान परस्पर सम्बनिधत, अन्तनिर्भर तथा मिल-जुलकर कार्य करते हैं-

1. स्वामी (राजा) शीर्ष के तुल्य है। वह कुलीन, बुद्धिमान, साहसी, धैर्यवान, संयमी, दूरदर्शी तथा युद्ध-कला में निपुण होना चाहिए।

2. अमात्य (मंत्राी) राज्य की आँखे हैं। इस शब्द का प्रयोग कौटिल्य ने मंत्राीगण, सचिव, प्रशासनिक व न्यायिक पदाधिकारियों के लिए भी किया है। वे अपने ही देश के जन्मजात नागरिक, उच्च कुल से सम्बंधित, चरित्रावान, योग्य, विभिन्न कलाओं में निपुण तथा स्वामीभक्त होने चाहिए।

 3. जनपद (भूमि तथा प्रजा या जनसंख्या) राज्य की जंघाएँ अथवा पैर हैं, जिन पर राज्य का असितत्व टिका है। कौटिल्य ने उपजाऊ, प्राÑतिक संसाधनों से परिपूर्ण, पशुधन, नदियों, तालाबों तथा वन्यप्रदेश प्रधान भूमि को उपयुक्त बताया है।

जनसंख्या में Ñषकों, उधमियों तथा आ£थक उत्पादन में योगदान देने वालीे प्रजा समिमलित है। प्रजा को स्वामिभक्त, परिश्रमी तथा राजा की आज्ञा का पालन करने वाला होना चाहिए।

4. दुर्ग (किला) राज्य की बाहें हैं, जिनका कार्य राज्य की रक्षा करना है। राजा को ऐसे किलों का निर्माण करवाना चाहिए, जो आक्रमक युद्ध हेतु तथा रक्षात्मक दृषिटकोण से लाभकारी हों। कौटिल्य ने चार प्रकार के दुगो±-औदिक (जल) दुर्ग, पर्वत (पहाड़ी) दुर्ग, वनदुर्ग (जंगली) तथा धन्वन (मरुस्थलीय) दुर्ग का वर्णन किया है।

5. कोष (राजकोष) राजा के मुख के समान है। कोष को राज्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना गया है, क्योंकि राज्य के संचालन तथा युद्ध के समय धन कीे आवश्यकता होती है। कोष इतना प्रचुर होना चाहिए कि किसी भी विपत्ति का सामना करने में सहायक हो। कोष में धन-वृद्धि हेतु कौटिल्य ने कर्इ उपाय बताए हैं। संकटकाल में राजस्व प्रापित हेतु वह राजा को अनुचित तरीके अपनाने की भी सलाह देता है।

6. दण्ड (बल, डण्डा या सेना) राज्य का मसितष्क हैं। प्रजा तथा शत्राु पर नियंत्राण करने के लिए बल अथवा सेना अत्यधिक आवश्यक तत्त्व है। कौटिल्य ने सेना के छ: प्रकार बताए हैं। जैसे-वंशानुगत सेना, वेतन पर नियुक्त या किराए के सैनिक, सैन्य निगमों के सैनिक, मित्रा राज्य के सैनिक, शत्राु राज्य के सैनिक तथा आदिवासीे सैनिक। संकटकाल में वैश्य तथा शूद्रों को भीे सेना में भर्ती किया जा सकता है। सैनिकों को धैर्यवान, दक्ष, युद्ध-कुशल तथा राष्ट्रभक्त होना चाहिए। राजा को भी सैनिकों की सुख-सुविधाओं का èयान रखना चाहिए। कौटिल्य ने दण्डनीति के चार लक्ष्य बताए हैं- अप्राप्य वस्तु को प्राप्त करना, प्राप्त वस्तु की रक्षा करना, रक्षित वस्तु का संवर्धन करना तथा संव£धत वस्तु को उचित पात्राों में बाँटना।

7. सâदय (मित्रा) राज्य के कान हैं। राजा के मित्रा शानित व युद्धकाल दोनों में ही उसकी सहायता करते हैंं। इस सम्बन्ध में कौटिल्य सहज (आदर्श) तथा Ñत्रिम मित्रा में भेद करता है। सहज मित्रा Ñत्रिम मित्रा से अधिक श्रेष्ठ होता है। जिस राजा के मित्रा लोभी, कामी तथा कायर होते हैं, उसका विनाश अवश्यम्भावी हो जाता है।

इस प्रकार कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत राज्य के सावयव स्वरूप ;व्तहंदपब वितउद्ध का निरूपण करते हुए सभी अंगो (तत्त्वों) की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालता है। यधपि यह सिद्धांत राज्य की आधुनिक परिभाषा से मेल नहीं खाता, किन्तु कौटिल्य के राज्य में आधुनिक राज्य के चारों तत्त्व विधमान हैं। जनपद भूमि व जनसंख्या है, अमात्य सरकार का भाव है तथा स्वामी (राजा) सम्प्रभुत्ता का प्रतीक है। कोष का महत्त्व राजप्रबन्ध, विकास व संवर्धन में है तथा सेना आन्तरिक शानित व्यवस्था तथा बाहरी सुरक्षा के लिए आवश्यक है। विदेशी मामलों में मित्रा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, किन्तु दुर्ग का स्थान आधुनिक युग में सुरक्षा-प्रतिरक्षा के अन्य उपकरणाें ने ले लिया है।

राज्य का कार्य: प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन का अनुकरण करते हुए कौटिल्य ने भी राजतंत्रा की संकल्पना को अपने चिंतन का केन्द्र बनाया है। वह लौकिक मामलों मेें राजा की शकित को सर्वोपरि मानता है, परन्तु कत्र्तव्यों के मामलों में वह स्वयं धर्म में बँधा है। वह धर्म का व्याख्याता नहीं, बलिक रक्षक है। कौटिल्य ने राज्य को अपने आप में साèय मानते हुए सामाजिक जीवन में उसे सर्वोच्च स्थान दिया है। राज्य का हित सर्वोपरि है जिसके लिए कर्इ बार वह नैतिकता के सिद्धांतो को भी परे रख देता है।

कौटिल्य के अनुसार राज्य का उíेश्य केवल शानित-व्यवस्था तथा सुरक्षा स्थापित करना नहीं, वरन व्यकित के सर्वोच्च विकास में योगदान देना है। कौटिल्य के अनुसार राज्य के कार्य हैं-  

1. सुरक्षा सम्बन्धी कार्य: वाá शत्राुओं तथा आक्रमणकारियों से राज्य को सुरक्षित रखना, आन्तरिक व्यवस्था न्याय की रक्षा तथा दैवी (प्राÑतिक आपदाओं) विपत्तियाें- बाढ़, भूकंप, दु£भक्ष, आग, महामारी, घातक जन्तुओं से प्रजा की रक्षा राजा के कार्य हैं।

2. स्वधर्म का पालन कराना: स्वधर्म के अन्तर्गत वर्णाश्रम धर्म (वर्ण तथा आश्रम पद्धति) पर बल दिया गया है। यधपि कौटिल्य मनु की तरह धर्म को सर्वोपरि मानकर राज्य को धर्म के अधीन नहीं करता, किन्तु प्रजा द्वारा धर्म का पालन न किए जाने पर राजा धर्म का संरक्षण करता है।

3. सामाजिक दायित्व: राजा का कत्र्तव्य सर्वसाधारण के लिए सामाजिक न्याय की स्थापना करना है। सामाजिक व्यवस्था का समुचित संचालन तभी संम्भव है, जबकि पिता-पुत्रा, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य आदि अपने दायित्वों का निर्वाह करें। विवाह-विच्छेद की सिथति में वह स्त्राी-पुरुष के समान अधिकारों पर बल देता है। स्त्राीवध तथा ब्राह्राण-हत्या को गम्भीर अपराध माना गया है।

4. जनकल्याण के कार्य: कौटिल्य के राज्य का कार्य-क्षेत्रा अत्यन्त व्यापक है। वह राज्य को मानव के बहुमुखी विकास का दायित्व सौंपकर उसे आधुनिक युग का कल्याणकारी राज्य बना देता है। उसने राज्य को अनेक कार्य सौंपे हैं। जैसे- बाँध, तालाब व सिंचार्इ के अन्य साधनों का निर्माण, खानों का विकास, बंजर भूमि की जुतार्इ, पशुपालन, वन्यविकास आदि। इनके अलावा सार्वजनिक मनोरंजन राज्य के नियंत्राण में था। अनाथाें निर्धनों, अपंगो की सहायता, स्त्राी सम्मान की रक्षा, पुन£ववाह की व्यवस्था आदि भी राज्य के दायित्व थे।

इस प्रकार कौटिल्य का राज्य सर्वव्यापक राज्य है। जन-कल्याण तथा अच्छे प्रशासन की स्थापना उसका लक्ष्य है, जिसमें धर्म व नैतिकता का प्रयोग एक साधन के रूप में किया जाता है। कौटिल्य का कहना है, ”प्रजा की प्रसन्नता में ही राजा की प्रसन्नता है। प्रजा के लिए जो कुछ भी लाभकारी है, उसमें उसका अपना भी लाभ है। एक अन्य स्थान पर उसने लिखा है। ”बल ही सत्ता है, अधिकार है। इन साधनों के द्वारा साèय है प्रसन्नता। इस सम्बन्ध में सैलेटोरे का कथन है, ”जिस राज्य के पास सत्ता तथा अधिकार है, उसका एकमात्रा उíेश्य अपनी प्रजा की प्रसन्नता में वृद्धि करना है। इस प्रकार कौटिल्य ने एक कल्याणकारी राज्य के कायो± को उचित रूप में निर्देषित किया है।

कूटनीति तथा राज्यशिल्प: कौटिल्य ने न केवल राज्य के आन्तरिक कार्य, बलिक वाá कायो± की भी विस्तार से चर्चा की है। इस सम्बन्ध में वह विदेश नीति, अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों तथा युद्ध व शानित के नियमों का विवेचन करता है। कूटनीति के सम्बन्धों का विश्लेषण करने हेतु उसने मण्डल सिद्धांत प्रतिपादित किया है-

मण्डल सिद्धांत: कौटिल्य ने अपने मण्डल सिद्धांत में विभिन्न राज्यों द्वारा दूसरे राज्यों के प्रति अपनार्इ नीति का वर्णन किया। प्राचीन काल में भारत में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का असितत्व था। शकितशाली राजा युद्ध द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करते थे। राज्य कर्इ बार सुरक्षा की दृषिट से अन्य राज्यों में समझौता भी करते थे।

कौटिल्य के अनुसार युद्ध व विजय द्वारा अपने साम्राज्य का विस्तार करने वाले राजा को अपने शत्राुओं की अपेक्षाÑत मित्राों की संख्या बढ़ानी चाहिए, ताकि शत्राुओं पर नियंत्राण रखा जा सके। दूसरी ओर निर्बल राज्यों को शकितशाली पड़ोसी राज्यों से सतर्क रहना चाहिए। उन्हें समान स्तर वाले राज्यों के साथ मिलकर शकितशाली राज्यों की विस्तार-नीति से बचने हेतु एक गुट या ‘मंडल बनाना चाहिए। कौटिल्य का मंडल सिद्धांत भौगोलिक आधार पर यह दर्शाता है कि किस प्रकार विजय की इच्छा रखने वाले राज्य के पड़ोसी देश (राज्य) उसके मित्रा या शत्राु हो सकते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार मंडल के केन्द्र में एक ऐसा राजा होता है, जो अन्य राज्यों को जीतने का इच्छुक है, इसे ”विजीगीषु कहा जाता है। ”विजीगीषु के मार्ग में आने वाला सबसे पहला राज्य ”अरि (शत्राु) तथा शत्राु से लगा हुआ राज्य ”शत्राु का शत्राु होता है, अत: वह विजीगीषु का मित्रा होता है। कौटिल्य ने ”मèयम व ”उदासीन राज्याें का भी वर्णन किया है, जो सामथ्र्य होते हुए भी रणनीति में भाग नहीं लेते।    

कौटिल्य का यह सिद्धांत यथार्थवाद पर आधारित है, जो युद्धों को अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की वास्तविकता मानकर संधि व समझौते द्वारा शकित-सन्तुलन बनाने पर बल देता है।

छ: सूत्राीय विदेश नीति: कौटिल्य ने विदेश सम्बन्धाें के संचालन हेतु छ: प्रकार की नीतियों का विवरण दिया है-

1. संधि-शानित बनाए रखने हेतु समतुल्य या अधिक शकितशाली राजा के साथ संधि की जा सकती है। आत्मरक्षा की दृषिट से शत्राु से भी संधि की जा सकती है। किन्तु इसका लक्ष्य शत्राु को कालान्तर निर्बल बनाना है।

2. विग्रह या शत्राु के विरुद्ध युद्ध का निर्माण।

3. यान या युद्ध घोषित किए बिना आक्रमण की तैयारी,

4. आसन या तटस्थता की नीति,

5. संश्रय अर्थात आत्मरक्षा की दृषिट से राजा द्वारा अन्य राजा की शरण में जाना,

6. द्वैधीभाव अर्थात एक राजा से शानित की संधि करके अन्य के साथ युद्ध करने की नीति।

कौटिल्य के अनुसार राजा द्वारा इन नीतियों का प्रयोग राज्य के कल्याण की दृषिट से ही किया जाना चाहिए।

कूटनीति आचरण के चार सिद्धांत: कौटिल्य ने राज्य की विदेश नीति के संदर्भ में कूटनीति के चार सिद्धांतों साम (समझाना, बुझाना), दाम (धन देकर सन्तुष्ट करना), दण्ड (बलप्रयोग, युद्ध) तथा भेद (फूट डालना) का वर्णन किया। कौटिल्य के अनुसार प्रथम दो सिद्धांतों का प्रयोग निर्बल राजाओं द्वारा तथा अंतिम दो सिद्धांतों का प्रयोग सबल राजाआें द्वारा किया जाना चाहिए, किन्तु उसका यह भी मत है कि साम दाम से, दाम भेद से और भेद दण्ड से श्रेयस्कर है। दण्ड (युद्ध) का प्रयोग अनितम उपाय के रूप में किया जाए, क्योंकि इससे स्वयं की भी क्षति होती है।

गुप्तचर व्यवस्था: कौटिल्य ने गुप्तचरों के प्रकारों व कायो± का विस्तार से वर्णन किया है। गुप्तचर विधार्थी गृहपति, तपस्वी, व्यापारी तथा विष-कन्याओं के रूप में हो सकते थे। राजदूत भी गुप्तचर की भूमिका निभाते थे। इनका कार्य देश-विदेश की गुप्त सूचनाएँ राजा तक पहुँचाना होता था। ये जनमत की सिथति का आंकलन करने, विद्रोहियों पर नियंत्राण रखने तथा शत्राु राज्य को नष्ट करने में योगदान देेते थे। कौटिल्य ने गुप्तचरों को राजा द्वारा धन व मान देकर सन्तुष्ट रखने का सुझाव दिया है।

मूल्यांकन: कौटिल्य का राज्य-सिद्धांत भारतीय राजनीतिक चिन्तन हेतु महत्त्वपूर्ण देन है। उसने राजनीतिक शास्त्रा को धा£मकता की ओर अधिक झुके होने की प्रवृत्ति से मुक्त किया। यधपि वह धर्म व नैतिकता का विरोध नहीं करता, किन्तु उसने राजनीति को साधारण नैतिकता के बन्धनों से मुक्त रखा है। इस दृषिट से उसके विचार यूरोपीय दार्शनिक मैक्यावली के विचारों का पूर्व संकेत प्रतीत होते हैं। इस आधार पर उसे ”भारत का मैकयावली भी कहा जाता है। सेलीटोर का मत है कि कौटिल्य की तुलना अरस्तु से करना उचित होगा, क्योंकि दोनाें ही सत्ता हस्तगत करने के स्थान पर राज्य के उíेश्यों को अधिक महत्त्व देते हैं। यथार्थवादी होने के नाते कौटिल्य ने राज्य के व्यवहारिक पक्ष पर अधिक èयान केनिद्रत किया है। कौटिल्य का राज्य यधपि सर्वाधिकारी है

प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन से आप क्या समझते हैं?

प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन में राजा के संबंध में विस्तार से विचार किया गया हैंप्राचीन भारतीय राजशास्त्र में राजा के पद को अत्यधिक ऊँचा स्थान प्रदान किया गया हैं। प्रायः सभी लेखकों ने राजपद को दैवी-माना और राजा में दैवी गुणों का समावेश किया। लेकिन राजा सर्वोपरि नहीं हुआ करता था।

प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन की सबसे प्रमुख विशेषता क्या है?

राजनीतत का मुख्य ध्येय लोगो को मोक्ष की ओर पि-प्रदतशित करना िा।

राजनीतिक चिंतन क्या है Hindi?

राजनीतिक चिंतन एक सामान्यीकृत मुहावरा है, जिसमें राज्य तथा राज्य से संबंधित प्रश्नों पर किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह या समुदाय के सभी चिंतनों, सिद्धान्तों और मूल्यों का समावेश होता है।

प्राचीन भारतीय चिंतन के स्रोत कौन कौन से हैं?

प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन का एक सबसे प्रमुख स्त्रोत प्राचीन भारतीय साहित्य हैं। इनमे सर्वप्रथम वैदिक साहित्य आता हैं। वेदो में, और विशेष रूप से ऋग्वेद में हमें तत्कालीन समाज, सभ्यता और संस्कृति की जानकारी प्राप्त होती हैं

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