मानव संसाधन हमारे लिए क्यों महत्वपूर्ण है? - maanav sansaadhan hamaare lie kyon mahatvapoorn hai?

राज्यपाल सह कुलाधिपति सैयद सिब्ते राी ने कहा है कि किसी भी देश के लिए केवल उसका भौगोलिक क्षेत्र या प्राकृतिक संसाधन महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि उसका मानव संसाधन सबसे महत्वपूर्ण है। बीआइटी जसे संस्थान इसी मानव संसाधन को तैयार करते हैं।ड्ढr गुरुवार को बीआइटी मेसरा के 18वें दीक्षांत समारोह में अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा कि दुनिया की अर्थव्यवस्था बड़ी तेजी से बदल रही है। ग्लोबलाइजेशन और तकनीकी विकास ने हमार उद्योगों और कामगारों को इतना बदल दिया है, जिसकी एक दशक पहले हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे। भारत के संदर्भ में हमें सोचना चाहिए कि ग्लोबल संगठन हमार देश में लागत के लिए आये। वे यहां गुणवत्ता के लिए रुक गये। अब वे शोध और खोज के लिए निवेश कर रहे हैं। इसलिए हमें गुणवत्ता और शोध पर अधिक ध्यान देना होगा।ड्ढr राज्यपाल ने कहा कि बीआइटी जसे संस्थानों से निकले छात्रों को शोध की तरफ भी ध्यान देना होगा। देश और समाज को उनसे ढेरों अपेक्षाएं हैं। उन्हें इन पर खरा उतरना होगा। तभी उनकी शिक्षा की सार्थकता सिद्ध होगी। राी ने कहा कि आज विश्व की अर्थव्यवस्था उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। इस परिदृश्य में वही सफल होगा, जो सबसे मजबूत होकर उभरगा।ड्ढr कुलपति प्रो बीके बरहई ने अतिथियों का स्वागत किया और संस्थान के कार्यकलापों की रिपोर्ट पेश की। दीक्षांत समारोह में कुल 2453 छात्र-छात्राओं को विभिन्न उपाधियां प्रदान की गयीं।ड्ढr बेस्ट प्लेयर बने गौरवड्ढr बीआइटी मेसरा के दीक्षांत समारोह में संस्थान के छात्र स्वर्गीय अभिषेक मिश्र के नाम पर बेस्ट स्पोर्ट्समैन अवार्ड देने की घोषणा की गयी। यह अवार्ड बायोटेक्नोलॉजी विभाग के छात्र राहुल गौरव को दिया गया। इस अवसर पर स्वर्गीय अभिषेक मिश्रा के पिता डॉ एचसी मिश्रा और माता उपस्थित थे।

मानव संसाधन विकास का उद्देश्य मानवीय श्रम का सदुपयोग करना है जिसमें जनशक्ति विकास भी शामिल है। जनशक्ति का अर्थ सभी प्रकार के संगठित और असंगठित श्रमिक, नियोक्ता और पर्यवेक्षक प्रबन्धक एवं कर्मचारी से है। यह शब्द श्रम के बहुत निकट है सभी व्यक्ति जो कार्य पर लगे हुए हैं या कार्य करने योग्य हैं किन्तु अभी कार्यरत नहीं है, मानव संसाधन कहलाते हैं। 


मानव संसाधन विकास आयोजन का अर्थ ऐसे कार्यक्रम से है जिसमें नियोक्ता द्वारा संस्था कर्मचारियों की प्राप्ति विकास अनुरक्षण और उपयोग संभव है। मानव संसाधन का मूल्यांकन उसका पूर्वानुमान तथा उपलब्धि के स्रोतो की खोज आदि भी मानव संसाधन विकास की विषय-वस्तु है। जिस प्रकार आर्थिक आयोजन उत्पादकीय का उद्देश्य साधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करता है उसी प्रकार मानव संसाधन विकास उद्देश्य जनशक्ति का विवेकपूर्ण उपयोग है।

आज मानव संसाधन विकास का अर्थ व्यापक होता जा रहा है। मानव संसाधन विकास ऐसी पद्धति है जिसमें सभी वर्गों के तथा सभी स्तरों पर काम करने वाले व्यक्तियों के लिए कार्य उपलब्ध करने तथा उनकी शक्ति का पूर्ण उपयोग संभव करने की दृष्टि से योजनाबद्ध कार्यवाही की जाती है।

आधुनिक युग में जब श्रमिक एवं कार्मिक अपने हितों के प्रति जागरूक हो रहे हैं तथा मानवीय समस्याएं एवं आकांक्षाएं बढ़ती जा रही है, मानव संसाधन विकास का महत्व भी बढ़ता जा रहा है। अत्यधिक प्रतिस्पर्धा के युग में उचित मानव संसाधन विकास के माध्यम से ही न्यूनतम प्रयासों द्वारा अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है।

मानव संसाधन विकास एक नवीन अवधारणा है जिसका प्रयोग व्यष्टि (Micro) एवं समष्टि (Macro) दो स्तरों पर किया जाता है जहां प्रथम स्तर पर इसके प्रयोग से अभिप्राय एक संगठन में कार्मिकों एवं प्रबंधकों के विकास से है जिससे गुणवत्ता एवं उत्पादन दोनों में वृद्धि हो। वहाँ द्वितीय स्तर पर इसका अर्थ है एक राष्ट्र की सम्पूर्ण जनसंख्या का चहुमुखी विकास करना।

मानव संसाधन विकास का महत्व 

P. Subba Rao एवं T. N. Chabbra के अनुसार मानव संसाधन विकास के महत्व का निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत अध्ययन किया जा सकता है।
  1. कार्मिकों को वर्तमान एवं परिवर्तित भविष्य में कृत्य की अनिवार्यताओं एवं चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार करता है।
  2. कार्मिकों को संगठन एवं कार्य के लिए अनुपयुक्त एवं अवांछित होने से बचाता है।
  3. कार्मिकों में रचनात्मक योग्यता एवं प्रतिभा विकसित करता है।
  4. कार्मिकों को उच्च स्तर के कृत्यों के लिए तैयार करता है।
  5. नव नियुक्त कार्मिकों में मानव संसाधन विकास की मूलभूत प्रतिभा एवं ज्ञान प्रदान करता है।
  6. अगले उच्च पद के लिए कार्मिकों में क्षमता विकसित करता है।
  7. सम्पूर्ण गुणवत्ता प्रबंधन में सहायता प्रदान करता है।
  8. व्यक्तिगत एवं सामूहिक मनोबल में विकास करना तथा उत्तरदायित्व की भावना सहयोगी दृष्टिकोण एवं अच्छे पारस्परिक संबंध स्थापित करना।
  9. यह कार्मिकों के एकीकृत विकास में सहायक है।
  10. यह कार्मिकों की अपनी कमियों एवं शक्तियों को पहचानने में सहायक होता है जिससे कार्मिक एवं संगठन दोनों के निष्पादन में सुधार होता है।
  11. यह संगठन में एक ऐसा वातावरण तैयार करता है जहां पारस्परिकता, विश्वास, सहयोग, खुलापन पनपता है। जिससे कार्मिकों को ऐसे अवसर सुलभ होते है जहां वे अपनी प्रतिभा का खुलकर प्रयोग कर सकते हैं।
  12. यह कार्मिक कार्यों के विषय में वैध तथ्य उपलब्ध कराता है जैसे प्रशिक्षण, स्थापन, चयन, पदोन्नति आदि।
  13. यह उच्च अधिकारियों द्वारा अधीनस्थ कर्मचारियों को सूचना एवं मार्गदर्शन पर जोर देता है ताकि उनके निष्पादन में सुधार हो सके।
  14. साथ ही यह सांगठनिक प्रभाविकता की ओर ले जाता है।
  15. वरिष्ठ प्रबंधकों के विचारों में विस्तार के लिए संगठन के अन्दर एवं बाहर सुविधाएं उपलब्ध कराना।
  16. संगठन के सही एवं प्रभावी कार्य के लिए आश्वासन।
  17. मानव संसाधन विकास  के लिए विस्तृत ढांचा तैयार करना।
  18. संगठन की क्षमताओं में वृद्धि।
  19. व्यक्तिगत एवं सांगठनिक उद्देश्यों के लिए एक पर्यावरण का निर्माण एवं कार्मिकों को अपनी प्रतिभाएं पहचानने, विकसित करने प्रयोग करने योग्य बनाना।
  20. कार्मिकों में व्यक्तिगत आत्मनिर्भरता, लचीलापन एवं अनुशासन, चुनौती स्वीकार करना, सहनशीलता आदि भावनाओं को आपूरित करना निश्चय ही मानव संसाधन विकास कार्मिक एवं संगठन के लिए एक महत्वपूर्ण विषय है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि, आज के प्रतियोगिता एवं चुनौतीपूर्ण समय में कोई भी संगठन अपने कार्मिकों के विकास के बिना अपना विकास एवं अस्तित्व को कायम नहीं रख सकता। यद्यपि कार्मिक नीतियां कार्मिकों का मनोबल एवं प्रोत्साहन उच्च बनाए रखने में सहायक है लेकिन केवल ये प्रयास किसी संगठन को गतिमान बनाने एवं उच्च शिखर तक पहुंचाने में पर्याप्त नहीं हो सकते। कार्मिक क्षमता को निरन्तर प्रखर किया जाना चाहिए एवं इसका लगातार प्रयोग होते रहना चाहिए जिसके लिए मानव संसाधन विकास गतिविधियां एवं प्रोग्राम आवश्यक है जो कि कार्मिकों के कार्य जीवन में सुधार करते हैं तथा उन्हें नीरसता से उबार सही संचार, सही कार्य दिशाएं प्रदान करती हैं फलस्वरूप सभी कार्मिकों की रचनात्मकता पूर्ण रूप से उभर कर बाहर आती है। जिससे कार्मिकों का सामूहिक रूप से विकास होता है और अपनी कमियों एवं शक्तियों को पहचान पाते हैं, फलस्वरूप कार्मिक एवं संगठन दोनों के निष्पादन में वृद्धि होती है। किसी भी संगठन एवं राष्ट्र में मानव संसाधन विकास अनेक प्रकार से उपयोगी हो सकता है।

भारत में मानव संसाधन का महत्व

अनेक प्रकार की शासन व्यवस्थाओं तथा प्रशासनिक प्रणालियों में ‘मानव विकास’ को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया जाता है। आधुनिक लोक कल्याणकारी राज्यों का दर्शन, चिन्तन तथा प्रयास, पूर्णत: मानव संसाधन विकास को समर्पित है क्योंकि मनुष्य के सर्वांगीण विकास के बिना राज्य के विकास या सरकार के अस्तित्व की कल्पना करना व्यर्थ है। जैसा कि पूर्व पृष्ठों पर बताया जा चुका है कि मानव संसाधन विकास की अवधारणा व्यावहारिक रूप में दो स्तरों पर प्रवर्तित है।
  1. सामुदायिक स्तर पर मानव संसाधन विकास
  2. संगठनात्मक स्तर पर मानव संसाधन विकास
जहां तक सामुुदायिक स्तर पर मानव संसाधन को विकसित करने का प्रश्न है, उसमें चिकित्सा, स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, शिक्षा, आवास, रोजगार, शुद्ध पेयजल, परिवहन, समता, न्याय, मानवाधिकार, सुरक्षा सहित जीवन की सभी मूलभूत आवश्यकताओं की सुनिश्चितता सम्मिलित है। आधुनिक लोक प्रशासन जो कि प्रशासकीय राज्य के रूप में कार्य कर रहा है, का मूल उद्देश्य मानव संसाधन विकास ही है। समाज कल्याण के रूप में दी जाने वाली ऐसी सेवाएं जो कि वृद्धों, महिलाओं, बच्चों, असहायों, नि:शक्तजनों, निर्धनों, श्रमिकों, पिछड़े वर्गों तथा अन्य भेदभावग्रस्त व्यक्तियों से सम्बन्धित हैं, का प्रत्यक्ष प्रभाव किसी भी समाज के मानव संसाधन सूचकांक पर पड़ता है। हाल ही के वर्षों में लिंग आधारित भेदभाव को समाप्त करने के लिए किए गए जेण्डर संवेदनशीलता प्रयासों को भी मानव संसाधन विकास के मूलभूत आधारों में गिना जाता है। 


संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की मानव विकास रिपोर्ट की तर्ज पर भारत की प्रथम मानव विकास रिपोर्ट, योजना आयोग द्वारा दिनांक 23 अप्रैल, 2002 को जारी की गई, जिसे भारतीय लोकतंत्र का महत्वपूर्ण दस्तावेज बताते हुए कहा जा सकता है कि इसके आधार पर राज्यों की योजना का आकार निश्चित किया जा सकता है। रिपोर्ट के अनुसार देश में उदारीकरण के दस वर्षों (1991-2001) में समग्र मानव विकास सूचकांक में बेहतर सुधार हुआ है। सन् 1983-93 के दौरान मानव विकास सूचकांक में 2.6 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि दर बनी हुई थी जबकि सन् 1993.94 से सन् 2000.01 की अवधि में यह दर 3 प्रतिशत से भी अधिक रही। 


सन् 1981 से सन् 2001 तक दो दशकों में केरल (प्रथम), पंजाब (द्वितीय), हरियाणा (पांचवें), पश्चिम बंगाल (आठवें) तथा बिहार पन्द्रहवें) के स्थान में कोई अंतर नहीं आया जबकि तिमलनाडु ने सातवें से तीसरे तथा राजस्थान ने बारहवें से नवें स्थान पर आकर अपनी स्थिति सुधारी है। सर्वाधिक पतन असम राज्य का हुआ है जिसकी स्थिति दसवें स्थान से खिसक कर चौहदवें स्थान पर चली गई है।

  1. व्यक्ति के कल्याण के बिना समाज का विकास असंभव है।
  2. यद्यपि बढ़ती जनसंख्या मानव विकास में बाधक है किन्तु यह भी सत्य है कि मानव विकास के बिना जनसंख्या नियंत्राण संभव नहीं है।
  3. किसी भी समाज एवं राष्ट्र की एकता, समरसता तथा प्रगति प्रमुख रूप से मानव विकास पर निर्भर करती है।
  4. सम्पूर्ण आर्थिक, तकनीकी, राजनीतिक तथा भौगोलिक विकास का आधार उसी स्थिति में सुदृढ़ होता है जबकि मानव विकास हो चुका हो।
  5. प्रशासनिक तंत्र, राजनीति, उद्योग, रक्षा तथा न्याय सहित सभी प्रमुख क्षेत्रों में कार्यरत मानव संसाधन वही है जो समाज में उपलब्ध है अत: संगठनात्मक स्तर पर मानव संसाधन विकास से पूर्व यह आवश्यक है कि सामुदायिक स्तर पर मानव विकास हो चुका हो ताकि संगठनात्मक स्तर पर श्रेष्ठ कार्मिकों की प्राप्ति सुनिश्चित हो सके।
संगठनात्मक स्तर पर मानव संसाधन विकास से तात्पर्य निजी या सरकारी विभागों, उपक्रमों या कार्यालयों में कार्यरत कार्मिकों के विकास से है जिसे स्थूल रूप से ‘‘कार्मिक प्रशासन’’ का पर्याय भी समझा जाता है। स्पष्ट है संगठन में भर्ती, पद वर्गीकरण, प्रशिक्षण, वेतन, भत्ते, पदोन्नति, पदस्थापन, स्थानान्तरण, पुरस्कार, वृत्तिका विकास निष्पादन मूल्यांकन, आचार संहिता, अनुशासनात्मक कार्यवाही, आनुषंगिक लाभ, सेवानिवृत्ति तथा अन्य कार्मिक कल्याण के प्रयास, इसमें सम्मिलित हैं। 


भारत में अभी तक मानव संसाधन विकास को गंभीरता से नहीं लिया है। इसी का दुष्परिणाम है कि सरकारी तंत्र में कार्यरत लोक सेवक न तो कार्य के प्रति समर्पित एवं प्रतिबद्ध हैं, न कार्यकुशल हैं और न ही संगठन तथा राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों के प्रति संवेदनशील हैं। संगठन के उद्देश्यों के साथ कार्मिकों को संवेदनशील तथा आस्थावान बनाना एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है किन्तु उच्चाधिकारी तथा निम्न कर्मचारी के मध्य प्राधिकार तथा सुविधाओं की खाई बहुत गहरी एवं चौड़ी है। किसी भी स्तर पर विश्वास तथा समर्पण का भाव परिलक्षित नहीं हो रहा हैं न्यूनतम तथा अधिकतम वेतनमान में भारी असमानता के साथ-साथ अन्य कई प्रकार के भेदभाव भी निम्न स्तरीय कार्मिकों के कार्यकरण को प्रभावित करते है। 


उदाहरण के लिए किसी ग्रामीण अंचल में स्थित क्षेत्रीय कार्यालय के उच्चाधिकारी को दिल्ली यात्रा के लिए प्रतिदिन 150 रुपए महंगाई भत्ता मिलता है तो उसी कार्यालय के लिपिक को दिल्ली यात्रा के लिए मात्रा 60 रुपए मिलें तो स्वाभाविक रूप से कुंठा तथा निराशा उत्पन्न होती है। प्रश्न यह उठता है कि क्या निम्न पदधारक को भूख कम लगती है या उसे कम गुणवत्ता का ही भोजन खाना चाहिए? संगठनात्मक स्तर पर इस प्रकार की भेदभावपूर्ण नीतियां मानव संसाधन को विकसित नहीं कर सकती हैं।

बहुत-सी सेवाओं में सेवाकालीन प्रशिक्षण की सुस्पष्ट नीति नहीं है तो कतिपय सेवाओं में पदोन्नति की स्थिति उत्साहजनक नहीं है। इस प्रकार के वातावरण में कार्मिक वर्ग निराशा से घिरा रहता है। सामान्यत: भारत में यह शिकायत भी की जाती है कि केन्द्र सरकार के कार्मिक, राज्य सरकारों के कार्मिकों की तुलना में अधिक सेवा सुविधाएं भोगते हैं। मानव संसाधन के विकास के लिए केवल शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को ही नहीं बल्कि मानसिक पक्ष को पर्याप्त गंभीरता से विश्लेषित किया जाना चाहिए। दरअसल भारतीय प्रशासन में कार्यरत लोक सेवकों का सरकारी तंत्र या राष्ट्रीय संसाधनों के साथ अपनत्व से परिपूर्ण रिश्ता स्थापित नहीं हो पाया है अत: न तो लोक सेवक की प्रतिबद्धता नजर आती है और न ही राष्ट्रप्रेम का जज्बा दिखाई देता है। लोक सेवाओं में वृत्तिका विकास के भी पर्याप्त अवसर दिखाई नहीं देते हैं अत: कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन में मानव संसाधन विकास की दिशा में उतने सार्थक प्रयास नहीं हुए हैं जितने कि प्रतिष्ठित निजी उपक्रमों में दिखाई देते हैं।

संगठनात्मक स्तर पर मानव संसाधन विकास का महत्व यह है कि-

  1. इससे संगठन के लक्ष्यों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता मिलती है।
  2. मानव संसाधन विकास का अंतिम परिणाम कार्मिक की संतुष्टि तथा कुशल कार्य निष्पादन के रूप में सामने आता है।
  3. राज्य स्वयं को श्रेष्ठ नियोक्ता सिद्ध कर सकता है।
  4. मानव संसाधन विकास के पर्याप्त अवसर तथा व्यावहारिक नीतियां सामने आने पर योग्य एवं कुशल कार्मिक संगठन को मिलते हैं।
  5. इससे संगठन की छवि, प्रतिष्ठा तथा सामाजिक उपादेयता में वृद्धि होती है।
  6. संगठन के भीतर अनुशासन तथा विकास का पर्यावरण पल्लवित होता है।
  7. कार्मिकों के अभिप्रेरणा तथा मनोबल सम्बन्धी पक्ष को मजबूती मिलती है।
  8. कार्मिकों में नवीन तथा आकस्मिक परिस्थितियों का सफलतापूर्वक सामना करने की क्षमता उत्पन्न होती है।
  9. लोक प्रशासन में मानव संसाधन विकास का प्रत्यक्ष प्रभाव राष्ट्रीय विकास पर पड़ता है।

मानव संसाधन विकास का एकीकृत दृष्टिकोण

मानव सभ्यता एवं संस्कृति की विकास यात्रा, मनुष्य की श्रेष्ठ शारीरिक संरचना तथा उसके बौद्धिक चातुर्य का परिणाम है। इसीलिए आधुनिक प्रबन्ध विज्ञानों में कहा जाता है कि पूंजी, सामग्री, तकनीक तथा प्रक्रियाओं इत्यादि संसाधनों का पूर्णरूपेण कुशलतापूर्वक उपयोग हेतु संगठन में कार्यरत कार्मिकों की कुशलता एवं प्रतिबद्धता का उच्चस्तरीय होना आवश्यक है। यद्यपि विश्व के विकसित राष्ट्रों में मानव संसाधन विकास (एच0आर0डी0) की अवधारणा नई नहीं है तथापि भारत में मानव संसाधन विकास की संकल्पना आज भी सीमित, संकीर्ण तथा अपेक्षाकृत नई प्रतीत होती हैं यदि ध्यान से देखा जाए तो हम पाते हैं कि हमारे संविधान में वर्णित नीति निदेशक तत्व मानव संसाधन विकास की अवधारणा से ओत-प्रोत हैं।

मानव संसाधन विकास से तात्पर्य उस प्रक्रिया तथा अवधारणा से है जो मनुष्य को एक संसाधन मानते हुए इसके सम्पूर्ण पक्षों को उन्नत एवं परिवर्धित करने की ओर बल देती है ताकि कार्य-परिणामों का स्तर भी उच्च बन सके। प्राचीन भारतीय राजनीतिक एवं प्रशासनिक चिंतकों में अग्रणी कौटिल्य ने अपनी विश्वप्रसिद्ध पुस्तक ‘अर्थशास्त्रा’ में लिखा है कि राजा के अधीन कार्य करने वाले सेवकों के कल्याण एवं विकास के बिना राज्य के उत्कर्ष की कल्पना करना व्यर्थ है। अत: कहा जा सकता है कि निष्कृष्ट कार्मिक, श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ संगठन को रसातल में पहुंचा सकते हैं जबकि श्रेष्ठ कार्मिक निष्कृष्टतम संगठन को भी उन्नत बना सकते है। यही कारण है कि आधुनिक प्रशासन व्यवस्थाओं में मानव संसाधन अर्थात कार्मिकों के विकास हेतु नाना प्रकार की नीतियां एवं नियम प्रतिपादित किए जा रहे हैं।

संकींर्ण दृष्टिकोण

भारत में मानव संसाधन विकास की दिशा में बहुत कम एकीकृत प्रयास विगत दो-तीन दशकों में किए गए हैं। यह प्रयास मुख्यत: निजी क्षेत्रों में अग्रणी प्रतिष्ठानों, लोक उपक्रमों तथा कतिपय सरकारी विभागों में परिलक्षित हुए हैं। विडम्बना यह है कि आज भी भारत में मानव संसाधन विकास की व्याख्या निजी या सरकारी संगठनों में कार्यरत कर्मचारियों अधिकारियों के कार्मिक विकास के रूप में की जाती है जबकि देश के करोड़ों नागरिकों की श्रमशक्ति को पूर्णतया भूला दिया जाता है। भारत की वर्तमान 104 करोड़ आबादी विश्व की कुल जसंख्या का छठा हिस्सा है जबकि उत्पादन एवं विकास की दृष्टि से हमारा स्थान सौवें स्थान से भी नीचे है। 


वस्तुत: भारत में उपलब्ध प्राकृतिक, जैविक, मशीनी तथा मानवीय संसाधनों के मध्य पूर्ण समन्वय स्थापित नहीं किया जा सकता है। एक और प्राकृतिक संसाधनों (भूमि, पशु, खनिज) का समुचित दोहन नहीं हो रहा है तो दूसरी ओर 4 करोड़ व्यक्ति बेरोजगारी से ग्रस्त हैं। गैर सरकारी सूत्रों के अनुसार देश में 62.2 प्रतिशत व्यक्ति कृषि क्षेत्र में, 17.2 प्रतिशत औद्योगिक क्षेत्र में तथा 20.6 प्रतिशत व्यक्ति सेवा क्षेत्र में रोजगार प्राप्त हैं। स्पष्ट है आज भी भारत की अर्थव्यवस्था का आधार कृषि है जबकि कृषकों के विकास हेतु नीतियां निष्प्रभावी हैं। कुल 36 लाख केन्द्रीय लोक सेवकों, 14 लाख सैनिकों तथा राज्य सरकारों के लोक सेवकों सहित भारत में लगभग 2.5 करोड़ सरकारी नौकर हैं जबकि इनसे कहीं अधिक 13 करोड़ व्यक्ति कृषि क्षेत्र से आय अर्जित करते हैं तथा 70 लाख व्यक्ति स्वयं के धन्धों से और 15 करोड़ व्यक्ति मजदूरी से पेट पालते हैं। 

मानव के लिए संसाधन क्यों महत्वपूर्ण है?

संसाधनों का महत्त्व इस बात से है कि इनकी प्राप्ति के लिए मनुष्य कठिन-से-कठिन परिश्रम करता है| साहसिक यात्राएँ करता है| फिर अपनी बुद्धि| प्रतिभा| क्षमता| तकनीकी ज्ञान और कुशलताओं का प्रयोग करके उनके उपयोग की योजना बनाता है| उन्हें उपयोग में लाकर अपना आर्थिक विकास करता है। इसलिए मनुष्य के लिए संसाधन बहुत आवश्यक है।

मानव संसाधन कितने प्रकार के होते हैं?

संसाधन दो प्रकार के होते हैं- प्राकृतिक संसाधन और मानव निर्मित संसाधन

मानव संसाधन से आप क्या समझते हैं?

मानवीय संसाधन का अर्थ किसी देश में निवास करने वाली जनसंख्या से लगाया जाता है। किसी देश के आर्थिक विकास में उसके मानवीय संसाधनों (जनसंख्या) की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। मानवीय संसाधन के अन्तर्गत देश की जनसंख्या के आकार के अतिरिक्त उसकी कुशलता, शिक्षा, उत्पादकता तथा दूरदर्शिता को सम्मिलित किया जाता है।

मानव संसाधन का क्या कार्य है?

कर्मचारियों में मधुर सम्बन्ध बनाये रखने की दृष्टि से अनुकूल नीतियों का निर्माण करना। नेतृत्व विकास के लिये समुचित कार्य करना। सामूहिक सौदेबाजी, समझौता, संविदा प्रशासन तथा परिवाद निवारण करना।

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