मानव अधिकारों की अवधारणा लिखिए तथा मानव कर्तव्यों का वर्णन कीजिए - maanav adhikaaron kee avadhaarana likhie tatha maanav kartavyon ka varnan keejie

परिचय

मानव अधिकार विश्व भर में मान्य व्यक्तियों के वे अधिकार हैं जो उनके पूर्ण शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यावश्यक हैं इन अधिकारों का उदभव मानव की अंतर्निहित गरिमा से हुआ है। विश्व निकाय ने 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को अंगीकार और उदघोषित किया। इस उदघोषणा में अनुसार प्रत्येक व्यक्ति और समाज का प्रत्येक अंग इन अधिकारों और स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान जागृत करेगा और अधिकारों की विश्वव्यापी एवं प्रभावी मान्यता और उनके पालन को सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।

मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के पश्चात मानव अधिकारों की अभिवृद्धि और पालन के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक प्रसंविदा, अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक और सास्कृतिक अधिकार प्रसंविदा 1966 और अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक अधिकार पर प्रसंविदा के वैकल्पिक प्रोटोकॉल को अंगीकार किया।

मानव अधिकारों के अतिक्रमण के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उपचारों के भी प्रावधान हैं। मानव अधिकार आयोग, मानव अधिकारों के मानकों को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर  रहा है।  अतः शान्ति बनाए रखने, अन्तर्राष्ट्रीय स्थिरता को बढ़ाने, आर्थिक व सामाजिक विकास में सहायता करने के लिए इन अधिकारों को महत्वपूर्ण बनाने पर दृढ़तापूर्वक कार्य करना आवश्यक है।

मानव अधिकार के विभिन्न अर्थ

मानव अधिकारों का शब्दकोशीय अर्थ है, दृढ़तापूर्वक रखे गये दावे, अथवा वे  जो होने चाहिए, अथवा कभी-कभी उनको भी कहा जाता है जिनकी विधिक रूप से मान्यता है और उन्हें संरक्षित किया गया है जिनका प्रयोजन प्रत्येक व्यक्ति के लिए व्यक्तित्व आध्यात्मिक, नैतिक और अन्य स्वतंत्रता का अधिक से अधिक पूर्ण और स्वंतंत्र विकास सुनिश्चित करने को है। मानव अधिकार का संरक्षण अधिनियम, 1993 मानव अधिकार को निम्न प्रकार से परिभाषित करता है-

मानव अधिकार से प्राण, स्वतंत्रता, समानता और व्यक्ति की गरिमा से संबंधित ऐसे अधिकार अभिप्रेत हैं जो संविधान द्वारा प्रत्याभूत किये गए हों या अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदाओं में सन्निविष्ट और भारत में न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय हैं

संक्षेप में, मानव अधिकार विश्व भर में मान्य व्यक्तियों के वे अधिकार हैं जो उनके पूर्ण शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए बहुत बुनियादी माने गये हैं। ये अधिकार मानव शरीर में अंतर्निहित गरिमा और महत्व से निकाले गये हैं।

इन अधिकारों की मान्यता मानव मूल्यों को चरितार्थ करने के लिए मनुष्य के लंबे संघर्ष के बाद हुई है। मानव अधिकार का विचार अनेक विधिक प्रणालियों में पाया जा सकता है। प्राचीन भारतीय विधिक प्रणाली, जो विश्व की सबसे प्राचीन विधिक प्रणाली है, इन अधिकारों की संकल्पना नहीं थी, केवल कर्तव्यों को ही अधिकथित किया गया था। यहाँ के विधि शास्त्रियों  की मान्यता थी कि यदि सभी व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करने तो सभी के अधिकार संरक्षित रहेंगे। प्राचीन भारत के धर्मसूत्रों एवं धर्म्शास्स्त्रों की विशाल संख्या में लोगों के कर्तव्यों का ही उल्लेख है। धर्म एक  ऐसा शब्द है जिसका अर्थ बहुत विस्तृत है किन्तु उसका एक अर्थ कर्तव्य भी है। इस प्रकार सारे धर्मशास्त्र धर्मसंहिताएँ हैं, अर्थात कर्तव्य संहिताएँ हैं। इसलिए मनुस्मृति  को मनु की संहिता भी कहा गया है। मनुस्मृति के अध्यायों के शीर्षकों को देखने से ही ज्ञात हो जाएगा कि वे राजा को सम्मिलित करते हए समाज के विभिन वर्गों एवं व्यक्तियों के कर्तव्यों का उल्लेख करते हैं।

इस प्रकार प्राचीन भारतीय विधिनिर्माताओं ने केवल कर्तव्यों की ही बात सोची और अधिकार के बारे में उन्होंने कदाचित ही कुछ कहा। उन्होंने कर्तव्य पालन को स्वयं के विकास के लिए अनिवार्य बनाकर, कर्तव्य की कठोरता को समाप्त कर दिया।

अधिकार के दावे का, अंतिम विश्लेषण में यह अर्थ होगा कि ऐसा कार्य जो किसी अन्य के हित के अनुरूप न होगा।

इस बात पर प्राचीन भारतीय विधि शास्त्रियों और कतिपय आधुनिक विधिशास्त्रियों की विचारों में बड़ी समानता पायी जाती है। विधि की समाजशास्त्रियों विचारधारा के एक बड़े पश्चात् चिंतक ड्यूगिट महोदय प्राइवेट अधिकारों के अस्तित्व को अस्वीकार करते हैं। कॉमटे की तरह उनका भी यह कथन है-

एकमात्र अधिकार जो किसी मनुष्य का हो सकता है, वह सदैव अपना कर्तव्य करने का अधिकार है। किसी भी हैसियत में कार्य करने वाले व्यक्ति एक ही सामाजिक संगठन के भाग हैं और प्रत्येक को उसी लक्ष्य अर्थात सामजिक समेकता की पूर्ति के लिए अपनी भूमिका निभानी होती है।

उसी प्रकार विधि के विशुद्ध सिद्धांत के प्रवर्तक के महान विधिशास्त्री केल्सन ने भी यह मत व्यक्त किया है, यद्यपि वे एक भिन्न आधार- भूमि से इस निष्कर्ष पर पहुंचते है। केल्स के अनुसार भी विधि में व्यक्तिगत अधिकार जैसी कोई वस्तु नहीं ही। विधिक कर्तव्य ही ‘विधि का सार’  है। विधि सर्वदा होना चाहिए की एक प्रणाली है। अधिकार की संकल्पना किसी विधिक प्रणाली के लिए मूलतः अनिवार्य नहीं है। विधिक अधिकार उसकी पूर्ति की अपेक्षा करने के हकदार व्यक्ति की दृष्टि, में केवल कर्तव्य के रूप में है।

पश्चिम में मनुष्यों के अधिकार का विचार प्राक्रतिक विधि की संकल्पना से उदभूत हुआ। यूनान के लघु नगर राज्यों में राजनीतिक संस्थाओं के अस्थिरता और सरकारों का जल्दी-जल्दी परिवर्तन और विधि में मनमानापन तथा निरंकुश्ता से दार्शनिकों को कुछ अपरिवर्तणीय और सार्वदेशिक सिद्धांतों के बारे में  सोचने और उसकी बात करने को प्रेरित किया। उन्होंने सामाजिक यथास्थिति को व्यवस्थित  रूप से चलाने और सामाजिक संस्थाओं की सुरक्षा की आवश्यकता की बात कही और राजनितिक रूप से संगठित’ एक आर्दश समाज में किसी प्रमाणिक सिद्धांत को निकालने का प्रयत्न किया। उनहोंने के आदर्श प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया जो संबंधों के तालमेल का और नियमों एवं सिद्धांतों द्वार आचरण करने को व्यवस्थ्ति करने का प्रयोजन पूरा करने और उनके ऊपर जो नियमों को लागू करेंगे और उनके ऊपर जो उनके अधीन थे, युक्ति का एक बंधन लगाए। उनके द्वारा कल्पित अपरिवर्तनीय और सार्वदेशिक सिद्धांत जिसे उन्होंने राज्य की वही ऊपर माना प्राकृतिक विधि कहलाए। बाद में रोम के और  अन्यंत्र दार्शनिकों ने प्राकृतिक विधि  का भिन्नप्रकार से अर्थ निकाला। तथापि, राज्य की विधि की ऊपर एक विधि मान्य की गई। परवर्ती काल के राजनितिक दार्शनिकों के हाथों में प्राकृतिक विधि मनुष्यों के अधिकारों का मुख्य आधार बनी। धर्म ने भी मनुष्यों के अधिकारों के विकास में योगदान किया। यहूदी दर्शन ने व्यक्ति के महत्व के विचार को विकसित किया। इसने मनुष्य को एक ऐसे व्यक्ति  एक रूप में माना जिसे पूरा करने के लिए जीवन में उसका अपना एक लक्ष्य है। धर्म ग्रंथों ने एक नैतिक संहिता निर्धारित की । इसने मनुष्यों के भातृत्व के सिद्धांत को रखा और इसमें व्यक्तिगत संस्थाओं के प्रति निर्देश है। इसाई धर्म ने इस दर्शन को और आगे बढ़ाया। इसने यह सीख दी कि सभी मनुष्य बराबर हैं और प्रत्येक व्यक्ति महत्वपूर्ण हैं प्रत्येक मनुष्य का एक अनंत भविष्य है और उसके लिए असीमित  उपलब्धियाँ हैं ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता का एक बड़ा उपहार दिया है और उसकी पूर्ण उन्नति और विकास की उसकी  इच्छा है। ये सिद्धांत दस समादेशों एवं अन्य धर्मग्रन्थों में अंतर्विष्ट है। कुछ ये सिद्धांत जो मानव प्राणियों की एकता की सीख देते हैं इस प्रकार हैं तुम अपने पड़ोसी को वैसा ही प्यार करोगे जैसा अपने को करते हो। वह अजनबी जो तुम्हारे साथ रहता है वह तुम्हारे बीच उत्पन्न हुआ कोई क हो सकता है और तुम वैसा प्यार करोगे जैसा अपने से करते हो।

ईसाई धर्म के प्रसार के साथ मनुष्यों की समता और व्यक्ति के महत्व के विचार को बोध सारे यूरोप में हुआ। यहूदी- ईसाई धर्म ग्रंथों के नये विचारों से रोमन साम्राज्य का पतन हुआ। मध्यकाल के कैथोलिक दार्शनिकों और धर्माचार्यों ने प्राक्रतिक विधि के अपने सिद्धातों का प्रतिपादन किया।  थोमस एक्विनस ने, जिनके विचारों को प्रतिनिधि रूप में माना जा सकता है, कहा कि राज्य की केवल सिमित शक्तियां होती हैं। मानव विधि अथवा मनुष्य द्वारा बनाई गयी विधि केवल वहाँ तक विधिमान्य है जहाँ तक एक प्राकृतिक  विधि या  शास्वत विधि की अनुरूपता में है। तथापि उसने कह की इसके अनुचित होने पर भी मनुष्य के इसका पालन करना चाहिए। इस प्रकार मध्य काल में शासक की शक्ति पर सीमाओं की जोरदार हिमायत की गिया। एक ओर इस विचार की बढ़ती हुई लोकप्रियता और दूसरी ओर मध्य काल में राष्ट्र राज्यों का अभ्युदय और तानाशाही शासनों की स्थापना से राष्ट्र की सीमाओं के भीतर यूरोप में मनुष्यों के अधिकार के लिए संघर्ष प्रांरभ हुआ और आगे चलकर मनुष्य के कतिपय अधिकारों को मान्यता मिली।

मैगना कार्टा (1215) वह पहला दस्तावेज है जो व्यक्तियों को कतिपय बुनियादी स्वतंत्रताएं और संरक्षाएं प्रदान करता है। यद्यपि वह वैरनों के दबाव कर करण प्रदान किया गया था किन्तु समाज के सारे वर्गों के लोब इसके पीछे थे। यद्यपि इसमें प्रधान रूप से वैरनों के लिए अधिकारों की घोषणा की गयी थी अनेक तरह के लोगों के अधिकारों के अल्पीकरण के रूप में था किन्तु समाज के सभी वर्गों की शिकायतों को दूर करने का प्रयत्न किया गया था। यह अपराध और अपराधी के अनुपात में युक्तियुक्त जुर्माने के लिए कहता है। यह न्याय के अधिकार के रूप में होने, इसके बेचे न जाने, इसके स्वच्छ साफ-सुथरे होने और विलम्ब न किए जाने की घोषणा करताहै। यह सम्पत्ति की सुरक्षा, इसके राजा के प्रयोजनों के लिए प्राचीन रूढ़िगत अदायगी के बिना न लिए जाने की घोषणा करता है और यह शरीर की संरक्षा की घोषणा करता है। कसी स्वतंत्र व्यक्ति को कारावास, निर्वासन, गैर कानूनी करार देना या दंडित नहीं किया जा सकता या उसके स्थापित विशेषाधिकारों के बिना एक विधिपूर्ण निर्णय या विधि के अनुसार कार्रवाई के अलावा उसे वंचित नहीं किया जा सकता है। पशिचम में मैगन कार्टा ने पहली बार राजा की शक्तियों को सीमित किया एवं एक संवैधानिक सरकार स्थापित करने का प्रयत्न किया।

मैगन कार्टा द्वारा प्रदान किये गए अधिकार और अधिक अधिकारों का दावा करने के आधार बने। बाद के शासन कालों में लोगों ने अपना संघर्ष जारी रखा और कालक्रम से राजा की शक्ति पर और सीमाएं लगायीं गयी। मैगना कार्टा द्वारा गारंटीकृत अधिकारों का अतिक्रमण और व्यक्तियों के अधिकारों के बारे में लोगों में सामान्य जागृति और उनके द्वारा उन पर दृढ़ता से अदने के कारण 1688 में गौरवशाली क्रांति हुई। नए रजा को उसके द्वारा बिल ऑफ़ राइट्स पर हस्ताक्षर करने के पश्चात ही गद्दी पर बैठाया गया। बिल ऑफ़ राइट्स में मैगन कार्टा के गांरटीकृत अधिकारों को पुनकथिक किया गया और राजा द्वारा मैगना कार्टा के पूर्व के किए अनेक अतिक्रमणों को उल्ल्लिखित किया गया।

जब ब्रिटिश उपनिवेशी अमेरिका में बसने के लिए गये तो ऊपर कथित अधिकार उनके साथ वहाँ गये। उनके चार्टरों में यह अधिकार घनिष्ठता से जुड़े थे। बहुत से राज्य जो अमेरिका के स्वंतन्त्रता के युद्ध के पूर्व अस्तित्व में आ गए थे उन्होंने मनुष्यों के अधिकारों की गारंटी को अंगीकार किया। वर्जीनिया ने सबसे पहले इन अधिकारों को अंगीकार किया जिसका अन्य अनेक राज्यों द्वार अनुसरण किया गया। वर्जिनिया द्वारा अंगीकार किये गये मनुष्यों के अधिकारों की कुछ विशेष बातें थीं। ऐसी एक विशेष बात यह थी कि एन अधिकारों से संबधित प्रावधानों को अधिकारों की घोषणा का नामा देकर पृथक रखा गया। इनका अन्य महत्वपूर्ण वैश्ष्टीय यह था कि वे विधानमंडल पर भी आबद्धकर थे।

मध्य काल में राष्ट्र राज्यों के उदभव और तानाशाही शासनों की स्थापना के साथ यूरोप में स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर प्रारंभ हुआ।

रिफामरेशियों और रेनेसा ने व्यक्ति के अधिकारों की मांग, उसके आधार और सरकार की शक्तियों को सिमित करने में नए आयामों को जोड़ा। ज्ञान की नयीं शाखाओं और विज्ञान की खोजों ने स्थापित मूल्यों के आधार क धवस्त कर दिया। तर्कनावाद नए युग का एक पंथ बन गया।

सामाजिक संविदा सिद्धांत जिसका बहुत पहले प्रतिपादन हुआ था, इसे नया तत्व और अर्थ दिया गया। लाक और रूसो ने इस सिद्धांत को व्यक्ति की स्वतन्त्रता और सिमित सरकार का अर्थ देने वाला कहा। लाक ने सिविल गवर्नमेंट पर दो कृतियाँ रची जिनका ध्येय 1988 की गौरवशाली क्रांन्ति को उचित ठहराना था और अधिकारों की घोषणा और बिल ऑफ़ राइट्स के भाव को स्पष्ट करना था। रूसो ने अपने प्राकृतिक विधि और सामाजिक संविदा सिद्धांतों के अर्थन्वयन में लोगों की सम्प्रभुता पर जोर दिया। इसका अर्थ मनुष्यों की स्वतंत्रता और समता है। लाक और रूसो ने समकालीन चिन्तन पर भारी प्रभाव डाला और फ्रांसीसी और अमरीकी राज्य क्रांतियों को प्रेरित किया।

अमरीकी स्वंत्रता की घोषणा स्वतन्त्रता के अधिकार की दृढ़क्ति थी। फ्रांस की मनुष्य और नागरिक के अधिकारों की घोषणा ने मनुष्यों के प्राकृतिक और  अहरणीय अधिकारों की घोषणा की। राज्यों द्वारा अमेरिका के संविधान के अनुसमर्थन क्र पूर्व मनुष्यों के अधिकार को दस संशोधन के रूप में संविधान में सम्मिलित किया गया था जिन्हें बिल ऑफ़ राइट्स कहा जाता है। बाद में बुनियादी स्वतंत्राओं से संबधित और अधिक संशोधन अंगीकार किए गये। अब उनकी संख्या उन्नीस है।

यह उल्लेखनीय है कि अमरीकी बिल ऑफ़ राइट्स फ्रांसीसी संविधान में यथा सम्मिलित की गयी सिविल स्वंतत्रताओं से महत्वपूर्ण रूप से भिन्न है। कुछ उल्लेखनीय अंतर है फ्रांसीसी घोषणा सरकार के बारे में एक कृति है। यह बताता है कि ये अधिकार क्यों रखे गये हैं।

अमरीकी संविधान विनिदृष्टि अधिकारों को उल्लिखित करता है। फ्रांसीसी घोषणा पत्र में अधिकारों को लागू करने के लिए किसी तंत्र का प्रावधान नहीं किया गया है। अमरीकी बिल ऑफ़ राइट्स न्यायालय द्वारा लागू किये जाने योग्य है।

मनुष्यों की स्वतंत्रताएं बाद के अनेक संविधानाओं में अपनाई गयी विशेष रूप से लातिनी अमरीकी देशों में यद्यपि वहाँ से उतनी प्रभावी नहीं है न ही उस रूप में संरक्षित है जैसा अमरीकी संविधान में।

संयुक्त राष्ट्र और मानव अधिकार

अपने वर्तमान रूप में मानव अधिकार की संकल्पना गत शताब्दी में विकसित हुई है और जब समकालीन अंतरराष्ट्रीय संबंधों का एक बहुत महत्वपूर्ण पहलू बन गयी है। सम्प्रति मानव अधिकार भारी अंतर्राष्ट्रीय दिलचस्पी के विषय हो गये हैं। मानव अधिकारों के निरूपण और  संरक्षण की वर्तमान चिंता दो विश्वयुद्धों में उनके घोर अतिक्रमण का परिमाण है। विश्व समुदाय द्वारा यह अनुभव किया गया कि मात्र राष्ट्रीय सरकारों से मानव अधिकारों के संरक्षण की आशा करना अयथार्थ है। यह अनुभव किया गया कि मानव अधिकारों के प्रभावी संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को भी कदम उठाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय शान्ति के लिए इसे एक आवश्यक शर्त माना गया।

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात बनाया गया। संयुक्त राष्ट्र प्राथमिक रूप से अंतरराष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को कायम रखने के लिए एक तंत्र कल्पित किया गया था। यह  बुनियादी मानव अधिकारों की सुरक्षा पर बहुत जोर देता है क्योंकि यह महसूस किया गया कि मानव अधिकारों की संरक्षण अंतरराष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा  से घनिष्ठ रूप से संबधित है। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के प्रयोजन और सिद्धांत के पैरा 3 में कहा गया है-

आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक या मानव कल्याण संबंधी अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को हल करने के लिए और मूल, वंश, लिंग, भाषा या धर्म के आधार पर विभेद किये बिना सभी के लिए मानव अधिकारों और मूल स्वंत्रताओं के प्रति सम्मान की अभिवृद्धि करने और उसे प्रोत्साहित करने  के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग उत्पन्न करना है।

इस प्रकार संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में मूल मानव अधिकारों और मानव की गरिमा और महत्व की पुष्टि की गयी और मानव अधिकारों एवं मूल स्वतंत्रताओं का उन्नयन करना या उनके प्रति सम्मान को प्रोत्साहित करने को विश्व निकाय का उत्तरदायित्व बनाया गया। चार्टर मानव अधिकारों के पालन किये जाने के बारे में सदस्य राज्यों पर एक बाध्य डालता है। इस प्रकार यह मानव अधिकारों एवं मूल स्वतंत्रताओं को अंतर्राष्ट्रीय विधि का एक महत्वपूर्ण मानक बनाता अहि। चार्टर के प्रभावी होने के पश्चात विश्व निकाय का एक पहला काम मानव अधिकारों के बारे में अपनी प्रतिबद्धता को पूरा करना था। अन्तः विश्व निकाय ने 1948 मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को अंगीकार किया और उदघोषित किया।

मावन अधिकारों की सार्वभौम घोषणा

मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा की उद्देशिका में कहा गया है-

मानव परिवार के सभी सदस्यों को अंतनिर्हित गरिमा और समान तथा अभेद्य  अधिकार विश्व में स्वतन्त्रता, न्याय और शांन्ति के आधार है,

मानव अधिकारों की अपेक्षा और अवमान के परिणामस्वरुप ऐसे बर्बर कार्य हुए हैं जिन्होंने मानव की की अंतरात्मा पर आघात किया है, ऐसे विश्व के निर्माण को जिसमें सभी मानव वाक्- स्वातंत्रय और विश्वास की स्वतंत्रता का तथा भय और आभाव से मुक्ति का उपभोग करेंगे जनसामान्य की उच्चतम आकांक्षा घोषित किया गया है।

यदि मनुष्य को अत्याचार और उत्पीड़न के विरुद्ध अंतिम अस्त्र के रूप में विद्रोह का अवलंब लने के लिए विवश नहीं किया जाना है तो यह आवश्यक है कि मानव अधिकारों का संरक्षण विधिसम्मत शासन द्वारा किया जाना चाहिए।

यह कि राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के विकास की वृद्धि करना आवश्यक है, संयुक्त राष्ट्र ने लोगों के चार्टर में मूल मानव अधिकारों में मानव देह की गरिमा और महत्व तथा पुरुषों और स्त्रियों के समान अधिकारों में अपने विश्वास की पुनः पुष्टि की है और सामाजिक प्रगति करने तथा अधिकाधिक स्वतंत्रता के साथ उत्कृष्ट जीवन  स्तर की प्राप्ति कराने का निर्णय किया है,

सदस्य राज्यों ने यह प्रतिज्ञा की है कि वे संयुक्त राष्ट्र के सहयोग से मानव अधिकारों और मूल स्वतन्त्रताओं के प्रति सार्वभौम सम्मान जागृत करेंगे और उनका पालन कराएंगें

इन अधिकारों और स्वतंत्रताओं की प्रति एक ही दृष्टि इस प्रतिज्ञा को पूरी तरह सफल बनाने के लिए अत्याधिक महत्वपूर्ण है, इसलिए,

महासभा मानव अधिकारों की इस सार्वभौम घोषणा को सभी लोगों और सभी राष्ट्रों के लिए इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक सामान्य मानक के रूप में उदघोषित करती है कि प्रत्येक व्यक्ति और समाज का प्रत्येक अंग, इस घोषणा को निरंतर ध्यान में रखते हुए, शिक्षा और संस्कार द्वारा इन अधिकारों और स्वतंत्रताओं के प्रति सम्मान जागृत करेगा और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय प्रगामी उपायों के द्वारा, सदस्य राज्यों के लोगों के बीच और उनकी अधिकारिता के अधीन राज्य क्षेत्रों के लोगों के बीच इन अधिकारों की विश्वव्यापी और प्रभावी मान्यता और उनके पालन को सुनिश्चित करने के लिए प्रयास करेगा।

सभी मनुष्य जन्म से ही गरिमा और अधिकारों की दृष्टि से स्वंतंत्र और समान हैं उन्हें बुद्धि और अतंश्चेतना प्रदान की गयी है। उन्हें परस्पर भातृत्व की भावना से कार्य करना चाहिए।

प्रत्येक व्यक्ति इस घोषणा में उपवर्णित सभी अधिकारों और स्वतंत्रताओं का हकदार है, इसमें मूल, वशं, वर्ण, लिंग, भाषा, धर्म, राजनितिक या अन्य विचार, राष्ट्रीय या सामाजिक मूल सम्पत्ति, जन्म या अन्य प्रस्थिति के आधार पर कोई विभेद नहीं किया जाएगा।

इसके अतिरिक्त, किसी देश यह राज्यक्षेत्र की चाहे वह स्वाधीन हो, न्याय के अधीन हो, अस्वशासी हो या सम्प्रभुता पर किसी सीमा के अधीन हो, राजनितिक, अधिकारिता-विषयक या अंतरराष्ट्रीय प्रास्थिति के आधार पर उस देश या राज्य क्षेत्र के किसी  व्यक्ति से  कोई विभेद नहीं किय जाएगा।

घोषणा में उल्लिखित मानव अधिकार में संक्षेप में निम्नलिखित है

दासता या गुलामी में न रखे जाने का अधिकार

यन्त्रणा, क्रूरता, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार या ऐसे दंड के विरुद्ध अधिकार

सर्वत्र विधि के समक्ष व्यक्ति के रूप में मान्यता का अधिकार

विधि के समक्ष समानता और किसी विभेद के बिना विधि के समान संरक्षण का अधिकार।

संविधान या विधि द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले कार्यों के विरुद्ध सक्षम राष्ट्रीय अधिकरणों द्वारा प्रभावी उपचार का अधिकार ।

मनमाने ढंग से गिरफ्तार, निरुद्ध या निर्वासन के विरुद्ध अधिकार

आपराधिक आरोप की अवधारणा मेंपूर्णतया समाना रूप से स्वतंत्र और निष्पक्ष अधिकरण द्वारा ऋजु और सार्वजनिक सुनवाई का अधिकार ।

दांडिक अपराध का आरोप होने पर तबतक निरपराध माने जाने का अधिकाफ़ जबतक कि उसे लोक विचारण, जिसमें उसे अपने प्रतिरक्षा के लिए आवश्यक सभी गारंटियां प्राप्त हों, विधि के अनुसार दोषी साबित नहीं कर दिया जाता।

किसी ऐसे कार्य या लोप के कारण, जो किये जाने के समय राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय विधि के अधीन दांडिक अपराध नहीं था, किसी दांडिक अपराध का दोषी अभिनिर्धारित नहीं किये जाने का धिकार तथा उस शास्ति से अधिकशास्ति अधिरोपित नहीं किये जाने का अधिकार जो उस समय लागू थी जब किया गया था।

एकांतता, कुटुंब घर या पत्र-व्यवहार में मनमाना हस्तक्षेप के विरुद्ध अधिकार

राज्य की सीमाओं के भीतर संचरण और निवास की स्वतन्त्रता का अधिकार, और अपने देश को या किसी देश को छोड़ने और अपने देश कें वापस आने का अधिकार।

उत्पीड़न के कारण अन्य देशों में शरण मांगने और लेने का अधिकार

राष्ट्रिकता का अधिकार

वयस्क पुरुषों और स्त्रियों को मूल, वंश, राष्ट्रीयता या धर्म के कारण किसी भी सीमा के बिना, विवाह करने और कुटुंब स्थापित करने अधिकार और विवाह के विषय में, विवाहित जीवन काल में और उसके विघटन का समान अधिकार।

अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर सम्पत्ति का स्वामी बनने का अधिकार सम्पत्ति से मनमाने ढंग से वंचित न किये जाने अधिकार ।

विचार, अंतःकरण और धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार। इस अधिकार के अंतर्गत अपने धर्म या विश्वास को परिवर्तित करने की स्वतन्त्रता और अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर तथा सार्वजनिक रूप से या अकेले शिक्षा, व्यवहार, पूजा और पालन में अपने धर्म या विश्वास को प्रकट करने और देने की स्वतन्त्रता।

अभिमत और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता। इस अधिकार के अंतर्गत हस्तक्षेप के बिना अभिमत रखने और किसी भी संचार माध्यम से और सीमाओं का विचार किये बिना जानकारी मांगने, प्राप्त करने और देने की स्वतन्त्रता।

अपने देश की लोक सेवा  में समान सुरक्षा का अधिकार

कार्य करने का, नियोजन के स्वतंत्र चयन का, कार्य की न्यायोचित और अनुकूल दशाओं का और बेरोजगारी के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार ।

किसी विभेद के बिना, समान कार्य के लिए समाना वेतन का अधिकार, अपने हितों के सरंक्षण  के लिए व्यवसाय संघ बनाने और उनमें सम्मिलित होने का अधिकार ।

विश्राम और अवकाश का अधिकार जिसके अतर्गत कार्य के घंटों की युक्तियुक्त सीमा और वेतन सहित आवधिक छुट्टियाँ का अधिकार है।

ऐसे जीवन स्तर का अधिकार जो स्वयं और उसके कुटुंब के स्वस्थ और कल्याण के लिए पर्याप्त है। इसके अंतर्गत भोजन, वस्त्र, मकान और चिकित्सा तथा आवश्यक सामजिक सेवाएँ भी हैं और बेरोज गारी रुग्णता, अशक्कता, वैधव्य वृद्धावस्था यह उसके नियन्त्रण के बाहर परिस्थितियों में जीवनयापन के आभाव की दशा में सुरक्षा का अधिकार है।

समुदाय के सास्कृतिक जीवन में मुक्त रूप से भाग लेने, कलाओं का आनन्द लेने और वैज्ञानिक प्रगति और उसके फायदों में हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार, और स्वनिर्मित वैज्ञानिक, साहित्यिक या कलात्मक करती के परिणामस्वरुप होने वाले नैतिक और भौतिक हितों की संरक्षण का अधिकार।

घोषणा को भारी महत्व की एक ऐतिहासिक घटना और  संयुक्त राष्ट्र की एक बहुत बड़ी उपलब्धि में रूप में प्रशंसित किया गया है। इसे एक ऐसी खान के रूप में माना गया है जिसमें से इन अधिकारों की सरक्षा करने वाले अन्य अभिसमय और साथ ही राष्ट्रीय निकाले हुए हैं और निकल रहे हैं।

मानव अधिकारों पर अभिसमय और प्रसंविदाएं

मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के पश्चात अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक अधिकार प्रसंविदा अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक और  सांस्कृतिक अधिकार प्रसंविदा 1966 और अंतरराष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक अधिकारों पर प्रसंविदा का वैकल्पिक प्राटोकोल अंगीकार किए गये हैं। ये दस्तावेज मानव अधिकारों के मूल अधिकार हैं। वे मानव अधिकारों की अभिवृद्धि और पालन के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ के बढ़े हुए कदम है।

मानव अधिकारों को मते तौर पर समझने के लिए इन दस्तावेजों में दिए  गये  मानव अधिकारों का संक्षिप्त उल्लेख आवश्यक है।

अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक अधिकार प्रसंविदा

अंतर्राष्ट्रीय  सिविल और राजनैतिक अधिकार प्रसंविदा की उद्देशिक में निम्नलिखित कथन किया गया अहि, जो प्रसंविदा के उद्देश्य को बताता है-

इस प्रसंविदा के पक्षकार राज्य ,

यह विचार करके की संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में उदघोषित सिंद्धांतों के अनुसार मानव परिवार के सभी सदस्यों की अंतनिर्हित गरिमा और समान तथा अन्य अभेद्य अधिकारों की मान्यता विश्व में स्वतन्त्रता, न्याय और शान्ति का आधार है,     
यह मानकर कि ये अधिकार मानव देह की अंतनिर्हित गरिमा से व्युत्पन्न है,

यह मानकर कि मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अनुसार, निर्भीक और स्वतंत्र मानव का आर्दश केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न की जाएँ जिनमें प्रत्येक व्यक्ति अपने सिविल और राजनैतिक अधिकारों तथा अपने आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का उपभोग कर सकें,

संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अधीन मानव अधिकारों और स्वतंत्रताओं के प्रति सार्वभौम सम्मान और उनके पालन कराने की राज्यों की बाध्यता का विचार करके,

यह अनुभव करके कि प्रत्येक व्यक्ति के अन्य व्यक्तियों के प्रति और अपने समुदाय के प्रति कर्तव्य हैं और इस प्रसंविदा में मान्यता दिए गये अधिकारों की अनुवृद्धि  और पालन के लिए प्रयास करना उसका  उत्तरदायित्व है,

सिविल और राजनैतिक अधिकार प्रसंविदा संक्षेप में राज्यों पर निम्नलिखित बाध्यता डालती है-

इस प्रसंविदा के पक्षकार राज्य इस प्रसंविदा में उपवर्णित सभी सिविल और राजनितिक अधिकारों का उपभोग करने के पुरुषों और स्त्रियों के समान अधिकार को सुनिश्चित करने का विचार देते हैं।

लोक आपात में जिसमें राष्ट्र के जीवन को खतरा है और जिसकी विद्यमानता की शासकीय रूप से उदघोषणा की गयी है,इस प्रसंविदा के पक्षकार राज्य स्थिति की अत्यावश्यकता द्वारा पूर्णतः अपेक्षित सीमा तक इस प्रसंविदा के अधीन अपनी बाध्यताओं  के अल्पीकरण में उपाय कर सकेंगे, परन्तु ऐसे उपाय अंतर्राष्ट्रीय विधि के अधीन उनकी अन्य बाध्यताओं से असंगत नहीं होंगे और उनमें केवल मूल, वंश, वर्ण, लिंग, भाषा, धर्म या सामजिक उदगम के आधार पर विभेद नहीं किया जाएगा।

इस प्रसंविदा के पक्षकार किसी राज्य में विधि, परंपरा विनियम या रूढ़ि के अनुसरण में मान्यतादिए गये या विद्यमान मूल मानव अधिकारों को, इस आधार पर कियह प्रसंविदा ऐसे अधिकारों को मान्यता नहीं देती है यह उन्हें कम सीमा तक मान्यता देती है, निर्बिधित या अल्पीकृत नहीं किया जाएगा।

प्रत्येक व्यक्ति को स्वतन्त्रता और शरीर की सुरक्षा का अधिकार है। कसी को भी मनमाने रूप से गिरफ्तार नहीं किया जाएगा या मनमाने रूप से निरुद्ध नहीं रखा जाएगा। किसी व्यक्ति को उसकी स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित आधारों पर और प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।

ऐसे व्यक्ति को जिसे गिरफ्तार किया गया है, गिरफ्तारी के समय गिरफ्तारी के कारणों से अवगत जाएगा और उसे उसके विरुद्ध आरोपों की तत्परता से सूचना दी जाएगी।

ऐसे व्यक्ति को जिसे दांडिक आरोप पर गिरफ्तार किया गया है या निरुद्ध रखा गया है तत्परता से किसी न्यायाधीश के समक्ष या विधि द्वारा न्यायिक शक्ति का प्रयोग करने के लिए प्राधिकृत किसी अधिकारी के समक्ष लाया जाएगा और  वह युक्तियुक्त समय के भीतर विचारण किए जाने या उन्मोचित किये जाने का हकदार होगा। ऐसा साधारण नियम नहीं होगा किविचारण की प्रतीक्षा करते हुए व्यक्तयों को अभिरक्षा में निरुद्ध रखा जाए, किन्तु उनकी उन्मुक्ति विचारण के लिए न्यायिक कार्यवाहियों के किसी अन्य प्रकार पर और यदि अवसर आए तो निर्णय के निष्पादन के लिए उपस्थित होने की गारंटी के अधीन की जा सकेगी।

ऐसे व्यक्ति को जो विधि विरुद्ध निरुद्ध या गिरफ्तार किया गया है, प्रतिकार का प्रवर्तनीय अधिकार होगा।

सभी व्यक्तियों के साथ मानवीय और मानव देह की अंतनिर्हित गरिमा के लिए ससम्मानजनक व्यवहार किया जाएंगा।

ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को जो किसी राज्य के राज्यक्षेत्र में विधिपूर्ण रूप से हैं उस राज्य क्षेत्र के भीतर संचरण की और अपने आवास का चयन करने की स्वतन्त्रता का अधिकार होगा।

प्रत्येक व्यक्ति किसी भी देश को, जिसके अंतर्गत स्वदेश भी, छोड़ने के लिए स्वतंत्र है। किसी व्यक्ति को अपने देश में प्रवेश करने के अधिकार से मनमाने ढंग से वंचित नहीं किया जाएगा। सभी व्यक्ति न्यायालयों और अधिकरणों के समक्ष समान होंगे, प्रत्येक व्यक्ति, अपने विरुद्ध किसी दांडिक आरोप के अवधारणा में या विधि में किसी वाद में अपने अधिकारों और बाध्यताओं के अवधारणा में, विधि द्वारा स्थापित किसी सक्षम, स्वतंत्र और निष्पक्ष अधिकरण द्वारा ऋजु और सार्वजनिक सुनवाई का हकदार होगा।

ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को जिस पर दांडिक अपराध का आरोप है, यह अधिकार होगा कि उसे तबतक निरपराध माना जाएगा जबतक कि उसे विधि के अनुसार दोषी साबित नहीं कर दिया जाता।

किसी व्यक्ति को किसी ऐसे कार्य या लोप के कारण जो किये जाने के समय राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय विधि के अधीन दांडिक अपराध नहीं था, किसी दांडिक अपराध का दोषी अभिनिर्धारित नहीं किया जाएगा। न ही उस अधिक शास्ति उस पर अधिरोपित की जाएगी जो उस समय अधिरोपित की जाती जब दांडिक अपराध किया गया था।

प्रत्येक व्यक्ति की एकान्तता, कुटुंब, घर या पत्र-व्यवहार के साथ मनमान या विधि विरुद्ध हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा, और उसके सम्मान और ख्याति पर विधि विरुद्ध आघात नहीं किया जाएगा।

प्रत्येक व्यक्ति को, अन्तःकरण और धर्म की स्वतन्त्रता का अधिकार होगा। इस अधिकार के अंतर्गत अपनी रूचि या धर्म या विश्वास मानने या अपनाने की स्वतन्त्रता और अकेले या अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर तथा सार्वजनिक रूप से या एकांत में उपासना, परिपालन, व्यवहार और उपदेश से अपने धर्म या विश्वास को प्रकट करने की स्वतन्त्रता भी है।

प्रत्येक व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार होगा, इस अधिकार के अंतर्गत, सीमाओं का ध्यान किए बिना, मौखिक, लिखित या मुद्रित रूप में, कला के रूप में या अपनी रूचि के किसी अन्य संचार माध्यम से सभी प्रकार के सूचना और विचारों की खोज करने, प्राप्त करने और प्रदान की स्वतन्त्रता भी है।

शांतिपूर्ण सम्मेलन के अधिकार को मान्यता दी जाएगी।

प्रत्येक व्यक्ति को अन्य  व्यक्तियों के साथ संगम की स्वतन्त्रता का अधिकार होगा, जिसके अंतर्गत  उसके हितों के संरक्षण के लिए व्यवसाय संघ बनाने और उनमें सम्मिलित होने का अधिकार भी है।

विवाह योग्य आयु के पुरुषों और स्त्रियों के विवाह करने और कुटुंब बनाने के अधिकार को मान्यता की जाएगी।

सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समान है, और, किसी विभेद के बिना विधि के समान संरक्षण के हकदार हो, इस संबंध में, विधि द्वारा प्रत्येक विभेद का प्रतिषेध किया जाएगा और मूल, वंश, वर्ण, लिंग, भाषा, धर्म, राजनैतिक या अन्य विचार राष्ट्रीय या सामजिक मूल, सम्पत्ति , जन्म या अन्य प्रास्थिति जैसे किसी आधार पर विभेद के विरुद्ध सभी व्यक्तियों को समान और प्रभावी संरक्षण की गारंटी दी जाएगी।

प्रसंविदा द्वारा मानव अधिकार समिति गठित करने का प्रावधान किया गया। प्रसंविदा में दिए गये मानव अधिकारों के उल्लंघन की शिकायत पर यह समिति जाँच कराती है और अपनी रिपोट देती है।

अंतरराष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार प्रसंविदा

अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक अधिकार प्रसंविदा की उद्देशिक में निम्नलिखित कथन किया गया है, जो प्रसंविदा के उद्देश्य को बताता है-

इस प्रसंविदा के पक्षकार राज्य , यह विचार करके की संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में उदघोषित सिंद्धांतों के अनुसार मानव परिवार के सभी सदस्यों की अंतनिर्हित गरिमा और समान तथा अन्य अभेद्य अधिकारों की मान्यता विश्व में स्वतन्त्रता, न्याय और शान्ति का आधार है,

यह मानकर कि ये अधिकार मानव देह की अंतनिर्हित गरिमा से व्युत्पन्न है,

यह मानकर कि मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अनुसार, निर्भीक और स्वतंत्र मानव का आर्दश केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न की जाएँ जिनमें प्रत्येक व्यक्ति अपने सिविल और राजनैतिक अधिकारों तथा अपने आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों का उपभोग कर सकें,

संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अधीन मानव अधिकारों और स्वतंत्रताओं के प्रति सार्वभौम सम्मान और उनके पालन कराने की राज्यों की बाध्यता का विचार करके,

यह अनुभव करके कि प्रत्येक व्यक्ति के अन्य व्यक्तियों के प्रति और अपने समुदाय के प्रति कर्तव्य हैं अरु इस प्रसंविदा में मान्यता दिए गये अधिकारों की अनुवृद्धि  और पालन के लिए प्रयास करने की  उत्तरदायित्व है,

प्रसंविदा में राज्यों पर निम्नलिखित बाध्यताएं डाली गयी है

कम करने का अधिकार को मान्यता।

प्रत्येक  व्यक्ति को काम की न्यायोचित और अनुकूल दशाओं के अधिकार की मान्यता।

प्रत्येक व्यक्ति का, अपने आर्थिक और सामाजिक हितों की प्रोन्नति और संरक्षण के लिए व्यवसाय संघ बनाने और अपनी इच्छानुसार व्यवसाय संघ में स्मीलित होने का अधिकार, जो केवल संबधित संगठनों के नियमों के अधीन होगा। इस अधिकार के प्रयोग पर विधि द्वारा विहित निर्बधनों से भिन्न कोई निर्बधन नहीं लगाए जा सकेंगे जो प्रजातंत्र, राष्ट्रीय सुरक्षा या लोक व्यवस्था के हित में या अन्य व्यक्तियों  के अधिकारों और स्वतन्त्रता के संरक्षण के लिए आवश्यक है।

प्रत्येक व्यक्ति के सामाजिक सुरक्षा के अधिकार को जिसके अंतर्गत सामाजिक बीमा भी है, मान्यता देते हैं।

कुटुंब को, जो समाज की नैसर्गिक और प्राथमिक इकाई है, यथासंभव व्यापक संरक्षण और सहायता, विवाह के इच्छुक पक्षकारों की स्वतंत्र सम्मति से ही विवाह।

प्रत्येक व्यक्ति के स्वयं अपने लिए, अपने कुटुंब के लिए, पर्याप्त जीवन स्तर के, जिसके अंतर्गत पर्याप्त भोजन, वस्त्र और आवास है और जीवन की दशाओं के निरतंर सुधार के अधिकार को मान्यता।

प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार है कि वह उच्चतम प्राप्त स्तर के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का आनन्द ले।

प्रत्येक व्यक्ति का शिक्षा के अधिकार को मान्यता।

प्रत्येक व्यक्ति के, सांस्कृतिक जीवन में भाग लेने, वैज्ञानिक प्रगति और उसके उपयोजन के फायदों का उपभोग करने,

किसी ऐसे वैज्ञानिक, साहित्यिक या कलाकृति के, जिसका वह रचयिता है, परिणामस्वरुप होने वाले नैतिक और मौलिक हितों के सरंक्षण से फायदा उठाने के अधिकार को मान्यता देने,

प्रसंविदा में राज्यों पर भी यह बाध्यता डाली गई है कि वे प्रसंविदा के अनुसरण के लिए किये गए कार्यों की रिपोर्ट दें।

प्रसंविदा में कहा गया है-

इस प्रसंविदा के पक्षकार राज्य पक्षकार के इस भाग के अनुरूप उन उपायों पर जो उन्होंने किए हैं और इसमें मान्यता दिए गये अधिकारों के पालन कराने के विषय में  की गयी प्रगति पर प्रतिवेदन प्रस्तुत करने का वचन देते हैं।

सभी प्रतिवेदन संयुक्त राष्ट्र के महासचिव को प्रस्तुत किए जाएंगे और वह उनकी प्रतियाँ उस प्रसंविदा के उपबन्धों के अनुसार विचार के लिए आर्थिक और सामाजिक परिषद को भेजेगा।

अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक अधिकारों पर प्रसंविदा का वैकल्पिक प्रोटोकॉल

अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक अधिकारों पर प्रसंविदा में दिए गये अधिकारों के अतिक्रमण के संबंध में अंतर्राष्ट्रीय सार पर संसूचना देने का प्रावधान कराता है।

इसका आमुख कहता है

इस प्रोटोकॉल के पक्षकार राज्य

यह विचार करके कि  अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक अधिकारों पर प्रसंविदा के प्रयोजनों की सिद्धधि और उसके उपबन्धों के कार्यान्वयन को अग्रसर करने  के लिए यह समुचित  होगा कि प्रसंविदा के भाग 4 में स्थापित मानव अधिकार समिति को प्रसंविदा में उपवर्णित अधिकारों में से किसी अधिकार के अतिक्रमण से व्याथित व्यक्तियों से, इस प्रोटोकॉल में यथा उपबंधित संसूचनाएं ग्रहण करने के लिए समर्थ बनाया जाए।

निम्नलिखित करार करते हैं-

करार की आधारभूत बातें प्रथम दो अनुच्छेदों के कही गयी हैं जो निम्नलिखित हैं-

प्रसंविदा का पक्षकार ऐसा राज्य जो इस प्रोटोकॉल का पक्षकार बन जाता है प्रसंविदा में उपवर्णित अधिकारों में से किसी अधिकार का उस पक्षकार राज्य द्वारा अतिक्रमण किये जाने के कारण व्यथित होने का दावा करने वाले ऐसे व्यक्तियों से जो उसकी अधिकारिता के अधीन, संसूचनाएं प्राप्त करने और उनपर विचार करने की समिति की सक्षमता को मान्यता देता है। समिति ऐसी कोई संसूचनाएं प्राप्त नहीं करेगी जो प्रसंविदा के ऐसे पक्षकार के बारे में है जो वर्तमान प्राटोकॉल का सदस्य नहीं है।

उक्त उपबन्ध के अधीन रहते हुए, ऐसे व्यक्ति जो यह दावा करते हैं कि प्रसंविदा के परिगणित उनके अधिकारों में से किसी अधिकार का अतिक्रमण हुआ है और जिन्होंने सभी उपलब्ध देशीय उपचारों को निषेध कर लिया है, समिति  को विचार के लिए एक लिखित संसूचनाएं प्रस्तुत कर सकेंगे।

अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनैतिक अधिकारों पर प्रसंविदा का द्वितीय वैकल्पिक प्राटोकॉल, जिसका उद्देश्य मृत्युदंड का उत्सादन है।

इस प्राटोकॉल  के आमुख में कहा गया है

वर्तमान में प्राटोकॉल के पक्षकार राज्य,

यह विश्वास करके कि मृत्युदंड के उत्सादन से मानव गरिमा, और मानव अधिकारों के प्रगामी विकास की अभिवृद्धि होगी,

विश्व मानव अधिकार सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद3, जो 10 दिसंबर 1948 को अंगीकार किया गया है, और अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनितिक अधिकार प्रसंविदा, जो 16 दिसंबर, 1966 को अंगीकार की गयी है, के अनुच्छेद 6 का स्मरण करके,

यह नोट करके कि अंतर्राष्ट्रीय सिविल और राजनितिक अधिकार प्रसंविदा के अनुच्छेद 6 में मृत्युदंड के उत्सादन के लिए निर्देश ऐसे दृढ़ शब्दों में किया गया है कि मृत्युदंड का उत्सादन निश्चय ही अतिवांछनीय है,

इस बात से आश्वस्त होकर कि मृत्युदंड के उत्सादन के लिए सभी उपायों से, जीवन के अधिकार के उपभोग में प्रगति हुई है,

मृत्युदंड के उत्सादन के बाबत अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धता को कार्यान्वित करने की इच्छा  रखकर, निम्नांकित करार करते है-

करार में अन्य बातों के साथ मुख्य बात निम्न है-

वर्तमान प्राटोकॉल के पक्षकार को किसी भी राज्य की अधिकारिता के भीतर मृत्युदंड  नहीं दिया जाएगा।

प्रत्येक पक्षकार राज्य, अपनी अधिकारिता के भीतर मृत्युदंड के उत्सादन के लिए सभी आवश्यक उपाय करेगा।

मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा और प्रसंविदाओं में अंतर है। घोषणा विधिक रूप से प्रवर्तनीय प्रपत्र या लिखत नहीं ही, तथापि, प्रसंविदाएं इन अधिकारों के बार में एक विधिक बाध्यता डालती है और अपने अतिक्रमण की शिकायत को निपटने के लिए मशीनरी का प्रावधान करती है।

ऊपर कथित मानव अधिकारों के दस्तावेजों के अतिरिक्त अन्य बहुत से अभिसमय तथा प्रस्ताव अदि हैं जो क्रमशः बढ़ते हुए मानव अधिकार के  क्षेत्र के बारे में हैं। उनकी संख्या संप्रति सात दर्जन के आसपास है। (स्थानभाव से उन सभी का उल्लेख करना यहाँ संभव नहीं है)

मानव अधिकारों के अतिक्रमण के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कतिपय उपचारों के भी प्रावधान किये गये हैं। अब मानवाधिकार आयोग मानव अधिकारों के मानकों को लागू करने  में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगा है। इसने सदस्य राज्यों द्वारा मानव अधिकारों के अतिक्रमण के मामलों के देखने के लिए एक प्रक्रिया स्थापित की है। इसे मानव अधिकारों के संरक्षण की समस्या के पर्यवेक्षण के लिए स्थायी मशीनरी के निकटतम पहुंच माना जाता है।

आयोग स्वप्रेरणा से अथवा महासभा अथवा आर्थिक और सामाजिक परिषद के निवेदन पर मानव अधिकारों की स्थिति का अध्ययन करता है और सिफारिशें करता है। आयोग आर्थिक और समनाजिक परिषदं के प्रत्येक सत्र पर एक रिपोर्ट देता है। मानव अधिकारों के अतिक्रमण की जाँच में इसने एक सक्रिय भूमिका अदा की है। यह मानव अधिकारों पर ईयर बुक (वार्षिकी) भी प्रकशित करता है।

महिलाओं की हैसियत पर एक आयोग है। इसमें अधिकारों के लिए मानक तैयार करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यह अपने संकल्प अंगीकार करता है और ई.सी. ओ. एस. सी. द्वारा अंगीकार किये जाने के लिए प्रस्ताव के मसविदा की सिफारिश करता है। यह कौंसिल के प्रत्येक सत्र पर, एक रिपोर्ट भेजता है। एक उप आयोग है जो विभेद निवारण और अल्पसंख्यक संरक्षण आयोग कहलाता है। इसे विभेद के निवारण और सामाजिक, राष्ट्रीय और भाषाई अल्पसंख्यकों के संरक्षण का काम सौपा गया है। यह मानव अधिकार आयोग के प्रत्येक सत्र पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत करता है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्य अनेक निकाय भी हैं जो मानव अधिकारों को लागू करें की भूमिका अदा कर रहे हैं। सिविल और राजनितिक अधिकार अभिसमय (सी.सी.पी.आस) को मॉनिटर और लागू करने के लिए मानव अधिकारों को प्रभावी करने के लिए अपने द्वारा किये गये अध्युपाय पर मानव अधिकार समिति को एक आवधिक रिपोर्ट प्रस्तुत करे। राष्ट्रीय रिपोर्टों पर विचार करने के पश्चात समिति अपनी टिप्पणी भेजती है।

आर्थिक, सामजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर एक विशेषज्ञ समिति है जो सी.ई.एस.सी. आर के अधीन अधिकारों के लागू किये जाने का पर्यवेक्षण करती है। संयुक्त राष्ट्र के अन्य अभिसमय हैं जिसमें मानव अधिकारों के प्रवर्तन के लिए मशीनरी का प्रावधान है। अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन (आई.एल.ओ) का संविधान यह अपेक्षा करता है कि सदस्य राज्य आई.एल.ओ.) का संविधान यह अपेक्षा करता है कि सदस्य राज्य आई.एल.ओ. के अभिसमय को प्रभावी करने के लिए अपने द्वारा अपनाए गये अध्युपायों पर प्रतिवर्ष वार्षिक रिपोर्ट दें।

कुछ क्षेत्रीय अभिसमय भी है, नामतः

1)  मानव अधिकारों की संरक्षण के लिए यूरोपीय अभिसमय 1950.

2)  मानवाधिकारों पर अमरीकी अभिसमय 1969

3)  मानव अधिकारों एवं लोगों के अधिकारों पर अफ्रीकी चाटेर 1981

ये अभिसमय अपने-अपने क्षेत्रों में मानव अधिकारों के संरक्षण को सुनिश्चित करने के लिए कार्य करते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर अनेक गैर-सरकारी संस्थाएं (एन.जी.ओं) भी हैं जो मानव अधिकारों के उल्लंघन रिपोर्ट जारी किया करती है। कुछ ऐसे एन.जी.ओं) हैं रेडक्रास की अंतर्राष्ट्रीय समिति विधिशात्रियों का अंतर्राष्ट्रीय आयोग, एमनेस्टी इंटरनेशनल ये आवधिक रूप से अपनी रिपोर्ट जारी किया करते हैं जो अन्य बातों के साथ यह दिखाती हैं कि इन क्षेत्रों या देशों में मानव अधिकार के अतिक्रमण हो रहे है उनकी रिपोर्ट ऐसे अतिक्रमण की ओर विश्व का ध्यान आकृष्ट करती है और राष्ट्रीय सरकारों उसका भारी असर होता है।

हाल के वर्षों में विश्व निकाय ने मानव अधिकारों और उनके संरक्षण और उन्नयन के लिए राय तैयार करने और उसके बारे में अधिक जागरूकता उत्पना करने के लिए बहुत से कदम उठाए हैं।

संयुक्त राष्ट्र ने एक नवीन अंतर्राष्ट्रीय मानव व्यवस्था की स्थापना के लिए कदम उठाए हैं जिसका उद्देश्य निर्धरता, निरक्षरता, आंतकवाद, शरणार्थी समस्याओं एवं अन्य मुद्दों के समाधान का आधार प्रस्तुत करना है।

1981 में महासभा ने अन्य के साथ उन व्यक्तियों को जो दासता के शिकार हैं और इस चलन जिनके अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए एक स्वैच्छिक कोष की स्थापना के लिए संकल्प अंगीकार किया है।

मानव अधिकारों पर एक विश्व सम्मेलन वियना में 1993 में हुआ था। इसमें दो भागों वाली वियना घोषणा में छः भागों की कार्यवाही का एक कार्यक्रम अंगीकार क्या गया। सम्मेलन में अन्य बातों के साथ अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकारों, प्रपत्रों और उनके मॉनिटर करने के तन्त्र को सशक्त बनाने के लिए कल्पित विनिर्दिष्ट अध्युपायों को अपनाने के लिए कहा गया।

यह उललेखनीय है कि विश्व संस्था मानव अधिकारों के अतिक्रमण के निवारण में अब तक बहुत प्रभावी साबित नहीं हुई है। मानव अधिकारों के उन्नयन और पालन के लिए संयुक्त राष्ट्र द्वारा उठाए गये बहुविध कदमों के बावजूद भी उसका अतिक्रमण और उसे नकारना अब भी कायम है। राजनैतिक हत्याएं, धार्मिक पीड़न, जाति संहार सिविलि युद्ध क्रमशः बढ़ता हुआ आतंकवाद इत्यादि विश्व के वहुत भागों में बहुलता से चल रहे हैं।

ऐसी बहुत सी बातें हैं जो मानव अधिकार के प्रवर्तन को रोकने के लिए उत्तरदायी हैं। मानव अधिकार के विश्वजनीन आधार पर एक रूप मानक नहीं हो, न ही कदाचित, इस रूप में वे विरचित किए जा सकते है। मानव अधिकारों के पालन में संप्रभुता की संकल्पना के भी बाधा है। विश्व के बहुत से भागों में विद्यमान राजनितिक स्थिति मानव अधिकारों के संरक्षण पर गंभीर रूप से प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली हैं।

यह उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र के प्रयोजन के रूप में मानव अधिकारों का संरक्षण एवं  उन्नयन उसके अन्य प्रयोजनों पर आश्रित है। मानव अधिकार के उन्नयन के विषय में प्रगति को संयुक्त राष्ट्र के इन प्रयोजनों की सिद्धि पर ही बढ़ाया जा सकता है। यदि शांति को कायम रखा जा सकता ही, अंतर्राष्ट्रीय स्थिरता को बढ़ाया जा सकता है, राष्ट्रों को अपन भाग्य का आप निर्माण करने दिया जाता है, राष्ट्रों के आर्थिक और सामाजिक विकास में वे सहायता करते अहि, जिनके पास अधिक हैं तब प्रत्येक मानव प्राणी के अधिकार की फलने-फूलने का अवसर होगा, और संयुक्त राष्ट्र इन अधिकारों को बढ़ाने की प्रक्रिया को गति देने में, इन अधिकारों को महत्वपूर्ण बनाने में एक भूमिका अदा का सकता है।

लेखन : विजय नारायण मणि त्रिपाठी

स्रोत: मानव अधिकार आयोग, भारत सरकार

मानव अधिकारों की अवधारणा क्या है?

मानव अधिकार विश्व भर में मान्य व्यक्तियों के वे अधिकार हैं जो उनके पूर्ण शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए अत्यावश्यक हैं इन अधिकारों का उदभव मानव की अंतर्निहित गरिमा से हुआ है। विश्व निकाय ने 1948 में मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा को अंगीकार और उदघोषित किया।

मानवाधिकार और कर्तव्य क्या है?

मानवाधिकार मनुष्य के वे मूलभूत सार्वभौमिक अधिकार हैं जिनसे मनुष्य को नस्ल, जाति, राष्ट्रीयता, धर्म, लिंग आदि किसी भी दूसरे कारक के आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता। सभी व्यक्तियों को गरिमा और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतंत्रता और समानता प्राप्त है।

मानव अधिकार क्या है मानव अधिकार के प्रकारों का वर्णन कीजिए?

मानव अधिकार सबके अर्थात स्त्री, पुरूष, बच्चे एवं वृद्ध लोगों के अधिकार है, और सब को समान रूप से प्राप्त है। इन अधिकारों का हनन जाति, धर्म, भाषा, लिंग-भेद के आधार पर नहीं किया जा सकता है। यह सभी अधिकार जन्मजात अधिकार हैं।

अधिकार से आप क्या समझते हैं किन्हीं दो अधिकारों का वर्णन कीजिए?

इन अधिकारों में व्यक्ति के जीवन, दैहिक स्वतंत्रता, सुरक्षा एवं स्वाधीनता, दासता से मुक्ति, स्वैच्छिक गिरफ्तारी एवं नजरबंद से मुक्ति, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायाधिकरण के सामने सुनवाई का अधिकार, अपराध प्रमाणित न होने तक निरपराध माने जाने का अधिकार, आवागमन एवं आवास की स्वतंत्रता, किसी देश की राष्ट्रीयता प्राप्त करने का ...

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