कवयित्री के अनुसार साहिब कौन है परमात्मा पति मालिक राजा? - kavayitree ke anusaar saahib kaun hai paramaatma pati maalik raaja?

ललद्यद के वाख कविता की व्याख्या

ललद्यद के वाख कविता की व्याख्या : कवयित्री ने इस तथ्य की ओर संकेत किया है कि मानव ब्रह्म की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के बाह्याडंबर रचते हैं। भूखे रह कर व्रत करते हैं पर इससे उन में संयमी बनने और अपने शरीर पर नियंत्रण प्राप्त करने का अहंकार मन में आ जाता है।

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ललद्यद के वाख कविता की व्याख्या

निम्नलिखित काव्यांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए-

रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।

रस्सी कच्चे धागे की, खींच रही मैं नाव।

जाने कब सुन मेरी पुकार, करें देव भवसागर पार।

पानी टपके कच्चे सकोरे, व्यर्थ प्रयास हो रहे मेरे।

जी में उठती रह-रह हूक, घर जाने की चाह है घेरे॥

 

(क) ‘रस्सी कच्चे धागे की‘ तथा ‘नाव‘ में निहित अर्थ स्पष्ट कीजिए।

(ख) कवयित्री के हृदय से बार-बार हूक क्यों उत्पन्न होती है?

(ग) कवयित्री किस ‘घर‘ में जाना चाहती है?

(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।

(ङ) पानी टपकने से क्या तात्पर्य है?

(च) कवयित्री का घर कहाँ स्थित है?

(छ) ‘कच्चे सकोरे‘ से क्या आशय है?

उत्तर-(क) कवयित्री ने ‘रस्सी कच्चे धागे की’ से कमज़ोर और नाशवान सहारे रूपी साँसों को प्रकट किया है जो हर समय चल तो रही हैं पर पता नहीं कब तक वे चलेंगी। ‘नाव’ से जीवन रूपी नौका को प्रकट किया गया है।

(ख) कवयित्री हर क्षण एक ही प्रार्थना करती है कि वह परमात्मा की शरण प्राप्त कर इस जीवन को त्याग दे पर ऐसा हो नहीं रहा। इसी कारण उस के हृदय से बार-बार हूक उत्पन्न होती है।

(ग) कवयित्री परमात्मा के पास जाना चाहती है। यह संसार तो उसका घर नहीं है। उसका घर तो वह है जहाँ परमात्मा है।

(घ) कवयित्री ने अपने रहस्यवादी वाख में परमात्मा की शरण प्राप्त करने की कामना की है। वह भवसागर को पार कर जाना चाहती है पर ऐसा संभव नहीं हो पा रहा। प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग सहज रूप से किया गया है। कश्मीरी से अनूदित वाख में तत्सम शब्दावली की अधिकता है। लयात्मकता का गुण विद्यमान है। शांत रस और प्रसाद गुण ने कथन को सरसता प्रदान की है। पुनरुक्ति, प्रकाश, रूपक, और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग सराहनीय है।

(ङ) ‘पानी टपकने’ से तात्पर्य धीरे-धीरे समय का व्यतीत होना है। प्राणी जान भी नहीं पाता और उसकी आयु समाप्त हो जाती है।

(च) कवयित्री का घर परमात्मा के पास है। वही परमधाम है और उसे वहीं जाना है।

(छ) ‘कच्चे सकोरे’ से तात्पर्य मानवीय शरीर से है जो स्वाभाविक रूप से कमजोर है और निश्चित रूप से नष्ट हो जाने वाला है।

खा-खा कर कुछ पाएगा नहीं

खा-खा कर कुछ पाएगा नहीं

न खाकर बनेगा अहंकारी,

सम खा तभी होगा समभावी

खुलेगी साँकल बंद द्वार की।

 

(क) कवयित्री ने ‘न खाकर बनेगा अहंकारी‘ कह कर किस तथ्य की ओर संकेत किया है?

(ख) ‘सम खा‘ से क्या तात्पर्य है?

(ग) कवयित्री किस द्वार के बंद होने की बात कहती है?

(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।

(ङ) ‘खा-खा कर‘ कुछ प्राप्ति क्यों नहीं हो पाती?

(च) मनुष्य अहंकारी क्यों बनता है?

(छ) कवयित्री क्या प्रेरणा देना चाहती है?

(ज) ‘समभावी‘ किसे कहा जाता है?

उत्तर-(क) कवयित्री ने इस तथ्य की ओर संकेत किया है कि मानव ब्रह्म की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के बाह्याडंबर रचते हैं। भूखे रह कर व्रत करते हैं पर इससे उन में संयमी बनने और अपने शरीर पर नियंत्रण प्राप्त करने का अहंकार मन में आ जाता है।

(ख) ‘सम खा’ से तात्पर्य मन का शमन करने से है। इससे अंत: करण और बाह्य-इंद्रियों के निग्रह का संबंध है।

(ग) कवयित्री मानव मन के मुक्त न होने तथा उस की चेतना के संकुचित होने को ‘द्वार के बंद होने से’ संबोधित करती है।

(घ) संत ललद्यद जीवन में बाह्याडंबरों को महत्त्व न देकर समभावी बनने का आग्रह करती है। उपदेशात्मकता की प्रधानता है। कश्मीरी से अनूदित वाख में संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है। पुनरुक्ति प्रकाश, रूपक और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग किया गया है। लाक्षणिकता ने कथन को गहनता प्रदान की है। प्रसाद गुण और शांत रस की प्रधानता है। प्रतीकात्मकता ने कथन को गंभीरता प्रदान की है।

(ङ) ‘खा-खा कर’ कुछ प्राप्त नहीं हो पाता। यह भोग-विलास का प्रतीक है। जीवात्मा जितनी भोग-विलास में लिप्त होती जाती है उतनी ही परमात्मा से दूर होती जाती है। वह ईश्वर की ओर अपना मन लगा ही नहीं पाता और ईश्वर को पाए बिना वह कुछ नहीं पाता।

(च) इंद्रियों पर संयम रखने और तपस्या का जीवन जीने से मनुष्य स्वयं को महात्मा और त्यागी मानने लगता है और इससे वह अहंकारी बनता है।

(छ) कवयित्री प्रेरणा देना चाहती है कि मानव को अपने जीवन में सहजता बनाए रखनी चाहिए। संयम का भाव श्रेष्ठ होता है और इसी से वह ईश्वर की ओर उन्मुख हो सकता है।

(ज) समभावी वह है जो भोग और त्याग के बीच के रास्ते पर आगे बढ़े।

आई सीधी राह से, गई न सीधी राह,

आई सीधी राह से, गई न सीधी राह,

सुषुम-संत पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह।

जेब टटोली कौड़ी न पाई।

माझी को दें, क्या उतराई?

 

(क) ‘गई न सीधी राह‘ से क्या तात्पर्य है?

(ख) ‘माझी‘ और ‘उतराई‘ क्या है?

(ग) कवयित्री को जेब टटोलने पर कौड़ी भी क्यों न मिली?

(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।

(ङ) मनुष्य मन ही मन भयभीत क्यों हो जाता है?

(च) ‘सुषुम-सेतु‘ क्या है?

(छ) कवयित्री का दिन कैसे व्यतीत हो गया?

उत्तर-(क) ‘गई न सीधी राह’ से तात्पर्य है कि संसार के मायात्मक बंधनों ने मुझे अपने बस में कर लिया और मैं चाहकर भी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए भक्ति मार्ग पर नहीं बढ़ी। मैंने सद्कर्म नहीं किया और दुनियादारी में उलझी रही।

(ख) ‘माझी’ ईश्वर है; गुरु है जिसने इस संसार में जीवन दिया था और जीने की राह दिखाई थी। ‘उतराई’ सद्कर्म रूपी मेहनताना है जो संसार को त्यागते समय मुझे माझी रूपी ईश्वर को देना होगा।

(ग) कवयित्री ने माना है कि उसने कभी आत्मालोचन नहीं किया ; सद्कर्म नहीं किए। केवल मोह-माया के संसार में उलझी रही इसलिए अब उसके पास कुछ भी ऐसा नहीं है जो उसकी मुक्ति का आधार बन सके।

(घ) संत कवयित्री ने स्वीकार किया है कि वह जीवन भर मोह-माया में उलझकर परमात्मा तत्व को नहीं पा सकी। उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया जो उसे भक्ति मार्ग में उच्चता प्रदान करा सकता। वह तो सांसारिक छल-छद्मों की राह पर ही चलती रही। प्रतीकात्मकता ने कवयित्री के कथन को गहनता प्रदान की है। अनुप्रास और स्वरमैत्री ने कथन को सरसता दी है। लाक्षणिकता के प्रयोग ने वाणी को गहनता-गंभीरता से प्रकट किया है। ‘सुषुम-सेतु’ संतों के द्वारा प्रयुक्त विशिष्ट शब्द है।

(ङ) परमात्मा जब मानव को धरती पर भेजता है तो वह साफ़-स्वच्छ मन का होता है पर दुनियादारी उसे बिगाड़ देती है। वह सद्कर्मों से दूर हो जाता है जिस कारण वह अपने मन ही मन भयभीत होता है कि परमात्मा के पास वापस जाने पर वहाँ क्या बताएगा? भवसागर से पार जाने के लिए सद्कर्म ही सहायक होते हैं।

(च) हठयोगी सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से कुंडलिनी जागृत कर परमात्मा को पाने की योग साधना करते ‘सुषुमसेतु’ सुषुम्ना नाड़ी की साधना को कहते हैं।

(छ) कवयित्री ने अपना दिन (जागृत अवस्था) व्यर्थ की हठयोग-साधना में व्यतीत कर दिया।

 

थल-थल में बसता है शिव ही

 

थल-थल में बसता है शिव ही,

भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां।

ज्ञानी है तो स्वयं को जान,

वही हैं साहिब से पहचान॥

 

(क) कवयित्री के द्वारा परमात्मा के लिए ‘शिव‘ प्रयुक्त किए जाने का मूल आधार क्या है?

(ख) भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां‘ में निहित अर्थ स्पष्ट कीजिए।

(ग) ईश्वर वास्तव में कहाँ है?

(घ) वाख में निहित काव्य-सौंदर्य को प्रतिपादित कीजिए।

(ङ) ईश्वर की पहचान कैसे हो सकती है?

(च) कवयित्री सांप्रदायिक भेद-भाव को दूर किस प्रकार करती है?

(छ) ज्ञानी को क्या जानने की प्रेरणा दी गई है?

(ज) कवयित्री ईश्वर के विषय में क्या मानती थी?

 

उत्तर-(क) कवयित्री शैव मत से संबंधित शैवयोगिनी थी। उस के चिंतन का आधार शैव-दर्शन था इसलिए उसने परमात्मा के लिए ‘शिव’ प्रयुक्त किया है।

(ख) परमात्मा सभी के लिए एक ही है। चाहे हिंदू हों या मुसलमान। उनके लिए परमात्मा के स्वरूप के प्रति कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। उपदेशात्मक स्वर में यही स्पष्ट किया गया है कि धर्म के नाम पर परमात्मा के प्रति आस्था नहीं बदलनी चाहिए।

(ग) ईश्वर वास्तव में संसार के कण-कण में समाया हुआ है। वह तो हर प्राणी के शरीर के भीतर भी है इसलिए उसे कहीं बाहर ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं है। उसे तो अपने भीतर से ही पाने की कोशिश की जानी चाहिए।

(घ) कवयित्री ने भेदभाव का विरोध तथा ईश्वर की सर्वव्यापकता का बोध कराने का प्रयास उपदेशात्मक स्वर में किया है और माना है कि ईश्वर संसार के कण-कण में विद्यमान है। उसे पाने के लिए आत्मज्ञान की आवश्यकता है। पुनरुक्ति प्रकाश और अनुप्रास अलंकारों का सहज प्रयोग किया गया है। अभिधा शब्द शक्ति ने कथन को सरलता-सरसता प्रदान की है। शांत रस और प्रसाद गुण विद्यमान हैं। अनुदित अवतरण में तत्सम शब्दावली का प्रयोग अधिक है।

(ङ) ईश्वर की पहचान अपनी आत्मा को पहचानने से संभव हो सकती है। आत्मज्ञान ही उसकी प्राप्ति का एकमात्र रास्ता है।

(च) कवयित्री सांप्रदायिक भेद-भाव को सर्वकल्याण के भाव से करती है। हिंदू-मुसलमान दोनों शिव-आराधना से आपसी दूरियाँ मिटा सकते हैं।

(छ) कवयित्री के द्वारा व्यक्ति को अपने आप को पहचानने की प्रेरणा दी गई है। अपने भीतर स्थित आत्मा को पहचानने के पश्चात् ही ईश्वर को पाया जा सकता है।

(ज) संत कवयित्री ललद्यद ने शैव-दर्शन के आधार पर चिंतन किया था। वह मानती है कि परमात्मा शिव रूप में संसार के कण-कण में विद्यमान है।

वाख (अभ्यास के प्रश्न)

प्रश्न 1. रस्सी यहाँ किसके लिए प्रयुक्त हुआ है और वह कैसी है?

यहाँ कवयित्री ने रस्सी शब्द का प्रयोग कमजोर एवं नष्ट होने वाले सहारो के लिए किया है  यह रस्सी बड़ी कमजोर है जो कभी भी टूट सकती है। इस रस्सी पर किसी भी प्रकार का विश्वास नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 2. कवयित्री द्वारा मुक्ति के लिए किए जाने वाले प्रयास व्यर्थ क्यों हो रहे हैं?

कवयित्री साँस रूपी रस्सी से जीवन रूपी नौका को भवसागर से पार ले जाना चाहती है लेकिन उसके शरीर रूपी कच्चे सकोरे से जीवन रूपी पानी टपकता ही जा रहा है। जिससे मुक्ति पाने के लिए किए जा रहे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हो रहे हैं क्योंकि मनुष्य मोह माया में फंस कर रह गया है।

प्रश्न 3. कवयित्री के ‘घर जाने की चाह’ से क्या तात्पर्य है?

कवयित्री के ‘घर जाने की चाह’ से तात्पर्य है कि वह वास्तविक घर जाना चाहती है जहाँ ईश्वर का निवास है। जीवात्मा उस ईश्वर से अलग होकर इस धरती पर जन्म लेती है या मानव शरीर धारण करती है और नश्वर शरीर को त्यागने के बाद ईश्वर के पास चली जाती है। कवयित्री भी उसे ईश्वर के पास जाना चाहती है जहाँ से वह आई है।

प्रश्न 4. भाव स्पष्ट कीजिए-(क). जेब टटोली कौड़ी ने पाई।

(क) इन पंक्तियों से कवयित्री का आशय है कि जैसे दिन खत्म होकर संध्या आ जाती है; वैसे ही उनका जीवन भी खत्म हो गया है और उसकी भी संध्या आ चुकी है। अब जब उन्होंने अपने पूरे जीवन का लेखा-जोखा देखा तो पाया कि उनके पास तो कुछ भी नहीं है। वे तो बिल्कुल दरिद्र है क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में कोई पुण्य या परोपकार किया ही नहीं है। लेखिका को इस बात की चिंता है कि जब प्रभु उनके जीवन की नैया को पार लगाएंगे, तब उनसे किराए के रूप में उनके पुणे व सुकर्म मांगें जाएंगे और उनके पास तो कुछ भी नहीं है क्योंकि उन्होंने अपना पूरा जीवन तो बेफिजूल की हठ में व नश्वर वस्तुओं को पाने की भागदौड़ में ही व्यर्थ गवां दिया है।

(ख). खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं,न खाकर बनेगा अहंकारी।

(ख) अगर सिर्फ भोग ही किया जाए तो जीवन में कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता और अगर पूर्ण त्याग कर दिया जाए, तब भी व्यक्ति पर इसका विपरीत असर पड़ेगा और वह संपूर्ण त्याग करने से अहंकारी बन जाएगा; इसलिए ये दोनों ही रास्ते सही नहीं है और व्यक्ति को अपने नाश से बचने के लिए और प्रभु प्राप्ति के लिए संतुलन बनाए रखना चाहिए।

प्रश्न 5. बंद द्वार की साँकल खोलने के लिए ललद्यत ने क्या उपाय सुझाया है?

कवयित्री ललद्यद का कहना है कि मनुष्य को अपने मन का नियंत्रण करना चाहिए। जब मनुष्य तन मन से ईश्वर को प्राप्त कर लेता है तब उसके मन की शक्ति व्यापक हो जाती है। इस स्थिति पर पहुँचकर ही आत्मा के द्वार पर लगी हुई अहंकार और अज्ञान की साँकल खुल जाती है।

प्रश्न 6. ईश्वर प्राप्ति के लिए बहुत से साधक हठयोग जैसी कठिन साधना भी करते हैं, लेकिन उससे भी लक्ष्य प्राप्ति नहीं होती। यह भाव किन पंक्तियों में व्यक्त होता है?

आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।

सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!

जेब टटोली, कोड़ी ने पाई।

मांझी को दूं, क्या उतराई?

प्रश्न 7. ज्ञानी से कवयित्री का क्या अभिप्राय है ?

जो बाह्य आडंबर को त्यागकर सच्चे मन से अपनी आत्मा को खोजने का प्रयास नहीं करता है ऐसा व्यक्ति कभी भी माया में फंस सकता है। जो जात-पात के भेदभाव को त्यागकर सद्गुणों में लीन रहता है ऐसा व्यक्ति कवयित्री के अनुसार ज्ञानी है।

Class 9 Hindi – Chapter 10 Vaakh (वाख) Important Questions

प्रश्न 1. ‘ललद्यद ने संकीर्ण मतभेदों के घेरों को कभी स्वीकार नहीं किया‘-इस कथन को स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-ललद्यद की शैवधर्म में आस्था थी पर उसने संकीर्ण मतवादों के घेरों को कभी स्वीकार नहीं किया था। उसने जो कहा वह सार्वभौम महत्त्व रखता था। किसी धर्म या संप्रदाय विशेष को अन्य धर्मों या संप्रदायों से श्रेष्ठ मानने की भावना का उस ने खुल कर विरोध किया। वह उदात्त विचारों वाली उदार संत थी। उस के अनुसार ब्रह्म को चाहे जिस नाम से पुकारो-वह ब्रह्म ही रहता है। सच्चा संत वही है जो प्रेम और सेवा भाव से सारी मानव जाति के कष्टों को दूर करे तथा ईश्वर को मतभेद से दूर होकर स्वीकार करे।

प्रश्न 2. ललयद के क्रांतिवादी व्यक्तित्व पर टिप्पणी कीजिए।

उत्तर-ललयद में विभिन्न धर्मों के विचारों को समन्वित करने की अद्भुत शक्ति थी। वह धार्मिक रूढ़ियों, अंधविश्वासों, रीति-रिवाजों पर कड़ा प्रहार करती थी। धर्म के नाम पर ठगने वाले लोग उसकी चोट से तिलमिला उठते थे। वह मानती थी कि धार्मिक बाह्याडंबरों का धर्म और ईश्वर से कोई संबंध नहीं है। तीर्थ यात्राओं और शरीर को कष्ट देकर की जाने वाली तपस्याओं से ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती। बाहरी पूजा एक ढकोसला मात्र है। वह देवी- देवताओं के लिए पशु-बलि देना सहन नहीं करती थी।

प्रश्न 3. कवयित्री किस ‘घर‘ में जाना चाहती है? उसके हृदय में बार–बार हूक क्यों पैदा हो रही है?

उत्तर-कवयित्री परमात्मा के पास जाना चाहती है। उसे लगता है कि यह संसार उसका असली घर नहीं है। उसका असली घर तो वह है जहाँ परमात्मा निवास करते हैं। इसीलिए उसके हृदय में बार-बार यहीं हूक पैदा होती है कि वह परमात्मा की शरण प्राप्त करे। इस जीवन को त्याग दे, पर ऐसा संभव नहीं हो रहा है। वह इसके लिए निरंतर प्रयास कर रही है। अपनी असफलता पर उसका हृदय विचलित हो रहा है।

प्रश्न 4. ‘पानी टपके कच्चे सकोरे‘ से क्या आशय है?

उत्तर–पानी टपके कच्चे सकोरे से कवयित्री का आशय यह है कि मानवीय शरीर धीरे-धीरे कच्चे सकोरे की तरह कमज़ोर हो रहा है और एक दिन वह नष्ट हो जाएगा। जिस प्रकार कच्चे सकोरे से धीरे-धीरे पानी टपकने से वह नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार उसका शरीर भी धीरे-धीरे अपनी निश्चित आयु को प्राप्त हो कमज़ोर हो रहा है। यह प्राकृतिक नियम है और प्राणी को यह पता भी नहीं चलता है कि उसकी आयु समाप्त हो जाती है।

प्रश्न 5. कवयित्री ने ‘न खाकर बनेगा अहंकारी‘ कहकर किस तथ्य की ओर संकेत किया है?

उत्तर-‘न खाकर बनेगा अहंकारी’ में कवयित्री ने इस बात की ओर संकेत किया है कि मानव परमात्मा को प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के बाह्य आडंबर करता है। भूखे रह कर व्रत करता है परंतु उसे वह स्वयं को संयमी और शरीर पर नियंत्रण रखने वाला मान लेता है। इससे उसके मन में अहंकार उत्पन्न हो जाता है। वह स्वयं को योगी पुरुष मान लेता है।

प्रश्न 6. ‘खा–खा कर‘ कुछ प्राप्ति क्यों नहीं हो पाती?

उत्तर-मनुष्य को लगातार खान का जीवन जितना अधिक भोग-विलास में डूबता जाता है, उतना ही भगवान से दूर हो जाता है। उसका मन ईश्वर की भक्ति में नहीं लगता है और ईश्वर की प्राप्ति के बिना इस दुनिया से पार हो संभव नहीं है। इसलिए खा-खाकर भी कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है।

प्रश्न 7. कवयित्री क्या प्रेरणा देना चाहती है?

उत्तर-कवयित्री मनुष्य को यह प्रेरणा देना चाहती है कि बाहरी आडंबरों से कुछ भी संभव नहीं है। मानव को अपने जीवन में सहजता बनाए रखनी चाहिए। संयम का भाव श्रेष्ठ होता है। और इसी से वह परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।

प्रश्न 8. ‘गई न सीधी राह‘ से क्या तात्पर्य है?

उत्तर -‘गई न सीधी राह’ से कवयित्री का तात्पर्य है कि परमात्मा ने उसे जब संसार में भेजा था तो वह सीधी राह पर चल रही थी परंतु संसार के मायात्मक बंधनों ने उसे अपने बस में कर लिया और वह चाहकर भी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए भक्ति मार्ग पर नहीं बढ़ सकी। दुनियादारी में उलझ कर सद्कर्म नहीं किया।

प्रश्न 9. मनुष्य मन ही मन भयभीत क्यों हो जाता है?

उत्तर-परमात्मा जब मनुष्य को धरती पर भेजता है, उसका मन साफ होता है उसे दुनियादारी से कोई मतलब नहीं होता है परंतु धीरे-धीरे वह संसार के मोह-माया के बंधनों में उलझ जाता है। वह सद्कर्मों से दूर हो जाने पर मन ही मन भयभीत होता है कि अब उसका समय पूरा होने वाला है, उसे परमात्मा के पास वापिस जाना है, परमात्मा जब उसके कर्मों का लेखा-जोखा देखेगा, वह क्या बताएगा। भव सागर से पार जाने के लिए मनुष्य के सद्कर्म ही उसके काम आते हैं। यही सोच मनुष्य को मन ही मन भयभीत करती रहती है।

प्रश्न 10. ईश्वर वास्तव में कहाँ है? उसकी पहचान कैसे हो सकती है?

उत्तर-ईश्वर वास्तव में संसार के कण-कण में समाया हुआ है। वह तो प्रत्येक मनुष्य के भीतर है इसलिए उसे कहीं बाहर ढूँढ़ने की आवश्यकता नहीं है। उसे तो अपने भीतर से ही पाने की कोशिश की जानी चाहिए।  ईश्वर के सच्चे स्वरूप की पहचान अपनी आत्मा को पहचानने से संभव हो सकती है। आत्मज्ञान ही उसकी प्राप्ति का एकमात्र रास्ता है।

प्रश्न 11. ‘भेद न कर क्या हिंदू–मुसलमां‘ में निहित अर्थ स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-‘भेद न कर क्या हिंदू-मुसलमां’ इस पंक्ति में कवयित्री यह कहना चाहती है कि सभी के लिए परमात्मा एक है। चाहे हिंदू हो या मुसलमान उनके लिए परमात्मा के स्वरूप के प्रति कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। कवयित्री ने अपनी वाणी से यह स्पष्ट किया है कि धर्म के नाम पर परमात्मा के प्रति आस्था नहीं बदलनी चाहिए।

कवयित्री के अनुसार ईश्वर को कौन पहचान सकता है?

उत्तर कवयित्री का 'घर जाने की चाह' से तात्पर्य है - ईश्वर या परमात्मा से मिलन। इसका अर्थ यह है कि कवयित्री इस सांसारिक माया जाल से मुक्ति चाहती है अर्थात् परमात्मा से मिलन और मोक्ष की प्राप्ति चाहती है। 4 भाव स्पष्ट कीजिए (क) जेब टटोली कौड़ी न पाई । (ख) खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं, न खाकर बनेगा अहंकारी ।

कवयित्री ने परमात्मा के लिए कौन से शब्द का प्रयोग किया है?

Answer: यहाँ रस्सी से कवयित्री का तात्पर्य स्वयं के इस नाशवान शरीर से है। उनके अनुसार यह शरीर सदा साथ नहीं रहता। यह कच्चे धागे की भाँति है जो कभी भी साथ छोड़ देता है और इसी कच्चे धागे से वह जीवन नैया पार करने की कोशिश कर रही है।

कवयित्री के अनुसार साहिब कौन है?

Answer: कवयित्री परमात्मा को साहब मानती है, जो भवसागर से पार करने में समर्थ हैं। वह साहब को पहचानने का यह उपाय बताती है कि मनुष्य को आत्मज्ञानी होना चाहिए।

कवयित्री ने सर्वत्र के लिए कौन सा शब्द प्रयोग किया है A थल थल B जल थल C स्थल थल D नभ थल?

उत्तरः पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार।