इस कहानी ने समाज की विसंगतियों पर व्यंग्य किया है बताइए कैसे? - is kahaanee ne samaaj kee visangatiyon par vyangy kiya hai bataie kaise?

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निबन्धात्मक प्रश्न

(प्रत्येक 5 अंक)

प्रश्न 1. जैसे वायु की लहरें कटी हुई पतंग को सहसा भूमि पर नहीं गिर जाने देती, उसी तरह खास परिस्थितियों में हमारी पोशाक हमें झुक सकने से रोके रहती है। आशय स्पष्ट करिए।
उत्तरः आशय-पतंग डोर से बंँधी होती है। डोर के हिसाब से उसे नियंत्रित किया जाता है। जब डोर से पतंग अलग हो जाती है, तब वह हवा के झोंकों के सहारे तैरती हुई उड़ती है। डोर के अलग हो जाने के बाद भी हवा के कारण अचानक ही धरती पर नहीं आ जाती है। समाज में व्यक्ति अपने परिवार और आर्थिक स्तर की डोर से बँधा होता है। वह इन्हें से नियंत्रित होता है। जब अपनी पढ़ाई-लिखाई और संवेदना के विकास के साथ व्यक्ति इन डोरों से अलग तो हो जाता है फिर भी समाज की हवा यानि पोशाक आदि बाहरी प्रभावों के कारण वह तत्काल आम आदमी या गरीब आदमी से जुड़ नहीं पाता है। लखेक भी झुककर यानि हर तरह से गरीब वर्ग के साथ मिलना-जुलना चाहता है, लेकिन उसकी पोशाक इस विचार और व्यवहार में बाधक बनती है।

प्रश्न 2. वृद्धा का बाजार में खरबूजे बेचना, वहाँ खड़े लोगों को बेहयाई क्यों लगी?
उत्तरः हमारी सामाजिक मान्यता है कि घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर तेरह दिन का शोक मनाया जाता है। इन दिनों सूतक माना जाता है। इन वर्जित दिनों के दौरान ही बेटे की मृत्यु के अगले दिन ही बुढ़िया मजबूर होकर खरबूजे बेचने को चली गयी। तो जात-पात, ऊँच-नीच की भावनाओं वाले लोगों को बुढ़िया की मजबूरी उसकी बेहयाई लगी। वे उस पर व्यंग्य करने लगे और तरह-तरह की बातें करने लगे।

प्रश्न 3. ज़िंदा आदमी नंगा रह सकता है, परन्तु मुर्दे को नंगा कैसे विदा किया जाए आशय स्पष्ट कीजिए
उत्तरः कथन द्वारा समाज में व्याप्त अंध-विश्वास व कुरीतियों पर प्रहार किया गया है। समाज में जीवित व्यक्ति की कद्र नहीं होती पर मृतक को नए कपड़े पहनाकर ही विदा किया जाता है। व्यक्ति चाहे जीवन भर अभावग्रस्त रहे परन्तु किसी के मरने पर अंतिम संस्कार में रीति रिवाजों का पालन करने के लिए बाध्य होना पड़ता है। भले ही वह यह भार उठाने में सक्षम हो या नहीं, चाहे इसके लिए घर की स्त्रियों को अपने गहने ही क्यों न बेचने पड़ें।

प्रश्न 4. पाठ के आधार पर बताइए कि शोक के समय धनी और निर्धन की दशा में क्या अंतर होता है
उत्तरः शोक के समय धनी और निर्धर दोनों ही दुःख में डूब जाते हैं। दोनों को इसकी अनुभूति भी समान होती है। फिर भी दोनों के दुःख की अभिव्यक्ति में पर्याप्त अन्तर होता है। गरीब व्यक्ति अधिक समय तक शोक नहीं मना सकता क्योंकि उसके पास कोई एकत्र धन नहीं है जिसे वह दुःख के समय खर्च कर गुजारा चला सके। उसे तो अपना परिवार पालने के लिए रोजी-रोजगार की तलाश में जाना ही पड़ता है। जबकि अमीर व्यक्ति के पास सब सुख-सुविधाएँ होती हैं, सेवा करने वाले मौजूद होते हैं उसे कोई चिन्ता या मजबूरी नहीं होती अतः उन दोनों की दशा में बहुत अंतर होता है।

प्रश्न 5. इस कहानी में लेखक ने हमारी किन कुरीतियों और कुसंस्कारों की ओर संकेत किया है?
उत्तरः लेखक ने इस कहानी में समाज की कुछ कुरीतियों की ओर संकेत किया है। जैसे-यदि किसी के यहाँ मृत्यु का सूतक (पातक) हो तो उसे काम नहीं करना चाहिए। उसके हाथ से चीज भी नहीं खरीदनी चाहिए क्योंकि उसके स्पर्श से वस्तु दूषित हो जाती है, और खाने वाले का ईमान-धर्म नष्ट हो जाता है।
लेखक ने समाज के इस कुसंस्कार का भी संकेत किया है कि झाड़-फूँक करने वाले ओझा को पूजा के नाम पर बहुत दान-दक्षिणा दे दी जाती है, भले ही घर में कुछ भी शेष न रहे।
इसी प्रकार हाथ के गहने तक बेचकर मुर्दे के लिए कफन खरीदना पडे़ इसे भी लखेक कुरीति मानता है वेसै गरीब विवश लोगों के प्रति घृणा की भावना और उन्हें नीच या कमीना कहना स्वयं में एक बहुत बड़ा कुसंस्कार है। इसका संकेत भी लेखक ने दिया है।

प्रश्न 6. बुढ़िया के दुःख तथा संभ्रांत महिला के दुःख में क्या अंतर है?
अथवा
पुत्र-वियोगिनी बुढ़िया माँ और संभ्रांत महिला के दुःखों की तुलना कीजिए।
अथवा
भगवाना की माँ और संभ्रांत महिला के दुःखों की तुलना कीजिए।
उत्तरः भगवाना की माँ अत्यंत गरीब एवं मेहनतकश महिला है। रोज कमाने और रोज खाने वाली भगवाना की माँ का परिवार आर्थिक तंगी के दौर से निरंतर गुजरता रहता है। उसके बेटे भगवाना की आकस्मिक मौत ने उसे पूरी तरह हिलाकर रख दिया। अंधविश्वास के कारण आधुनिक चिकित्सा के अभाव ने उसके बेटे भगवाना की जान ले ली, लेकिन इकलौते बेटे की मृत्यु से जड़-सी बन चुकी भगवाना की माँ के सामने और भी दायित्व खड़े थे।
घर में अनाज का दाना नहीं होने से भूख से बिलबिलाते बच्चे एवं बुखार से तपती बहू की जान की परवाह उसे ही करनी थी। इसलिए उसके पास अपने इकलौते बेटे की मृत्यु का दुःख मनाने का अवसर नहीं है। वह अंदर से कलपती है, लेकिन उसे स्वयं पर नियंत्रण रखकर घर की जिम्मेदारी निभानी है।
दूसरी तरफ अपने बेटे की मृत्यु के बाद एक संभ्रांत महिला महीनों तक बिस्तर पकड़े रहती है। बेटे की मृत्यु ने उसे शोक संतप्त कर दिया है और वह अपने होश को सँभाल नहीं पा रही है, उसकी तीमारदारी में दो-दो डाॅक्टर लगे हुए हैं। ध्यान देने की बात यह है कि हर माँ का दिल अपने बेटे के प्रति पे्रेम एवं ममता लिए एक जैसा ही होता है, लेकिन इससे ज्यादा कड़वी सच्चाई यह भी है कि समय एवं परिस्थिति मनुष्य को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना सिखा देती है। संभ्रांत महिला के सामने भगवाना की माँ की तरह अपने परिवार का पेट पालने की जिम्मेदारी नहीं है। उसके घर में भूख से बिलबिलाते बच्चे एवं बुखार से तपती बहू नहीं है और वह घर की जिम्मेदारी उठाने वाली एकमात्र सदस्या नहीं है। इसलिए उसे अपना दुःख मनाने का अवसर प्राप्त हो जाता है, जिसका भगवाना की माँ के पास घोर अभाव है।

प्रश्न 7. यशपाल जी की कहानी ‘दुःख का अधिकार’ में दुख मनाने का अधिकार सबको क्यों नहीं है
अथवा
‘दुःख मनाने का भी एक अधिकार होता है।’ टिप्पणी कीजिए।
उत्तरः दुःख मनाने का अधिकर केवल अमीर व्यक्तियों को है। गरीब आदमी दुःखी होकर भी दुःख मनाने का अवसर नहीं पाता क्योंकि उसे विवशतः मजदूरी करनी पड़ती है। दुःखों को सहन करना पड़ जाता है।
व्याख्यात्मक हल:
दुःख की अनुभूति समाज का प्रत्येक वर्ग करता है परन्तु दुःख मनाने का अधिकार सबको नहीं है वह केवल सम्पन्न वर्ग को ही  प्राप्त है क्योंकि उसके पास शोक मनाने के लिए सहूलियत भी है और समय भी। गरीब वर्ग की विवशता न तो उन्हें दुःख मनाने की सुविधा प्रदान करती है न अधिकार। वे तो अपने परिवार के पालन पोषण के लिए रोजी-रोटी की उलझन में ही उलझे रहते हैं। अतः दुःख मनाने का भी एक अधिकार होता है।

प्रश्न 8. ‘दुःख का अधिकार’ कहानी से स्पष्ट होता है कि ‘पैसे की कमी और अभाव आदमी को दुःख मनाने का अवसर भी नहीं देते’-कैसे और क्यों? 
उत्तरः कहानी में खरबूजे बेचने वाली के बेटे की मृत्यु हो जाती है। किन्तु पैसे की कमी, बच्चों का भूख से बिलबिलाना, बहू का तेज बुखार से पीड़ित होना देख बुढ़िया अपने शोक को भूलकर खरबूजे बेचने के लिए विवश हो जाती है। वह बाजार में मुँह छिपाए, सिर को घुटनों पर रखे फफक-फफक कर रोती है। इस तरह पुत्र शोक से पीड़ित माँ को अभावों ने दुःख मनाने की फुर्सत भी नहीं दी।

प्रश्न 9. शोक करने, गम मनाने के लिए भी सहूलियत चाहिए और....दुःखी होने का भी एक अधिकार होता है। लेखक ने ऐसा क्यों कहा? पाठ ‘दुःख का अधिकार’ के आधार पर स्पष्ट कीजिए।
अथवा
आशय स्पष्ट कीजिए-शोक करने, गम मनाने के लिए भी सहूलियत चाहिए और....दुखी होने का भी एक अधिकार होता है।

उत्तरः लेखक के अनुसार दुःखी होने का भी एक अधिकार होता है। उसका इस तरह से कहना उचित ही है। बुढ़िया और संभ्रात महिला का दुःख समान है। दोनों के पुत्र की मृत्यु हुई है परंतु बुढ़िया की बहू तेज बुखार से पीड़ित है। बच्चे भूख से बिलख रहे हैं और पैसों की कमी है। इन सब कारणों से उसे शोक करने, गम मनाने का भी अवसर नहीं मिला और वह अपने बेटे की मृत्यु के दूसरे दिन ही अपने शोक को भूलकर खरबूजे बेचने चल दी। जबकि संभ्रात महिला को उसके बेटे की मृत्यु के बाद दुःख मनाने के लिए सभी सहूलियत मिली। शोक संतप्त होने पर वह अपने होश नहीं संभाल पा रही थी। इसलिए दो-दो डाक्टर उसकी तीमारदारी में लगे हुए थे। वह महीनों बिस्तर पर पड़ी रहती है, क्योंकि उसके सामने परिवार का पेट पालने की जिम्मेदारी नहीं थी।
यहाँ हम समझ सकते हैं कि हर माँ के दिल में अपने बेटे के प्रति प्रेम, ममता समान होती है, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण गरीब बुढ़िया को शोकग्रस्त होने के बावजूद भी दुःखी होने का अधिकार नहीं मिल पाया, जबकि संभ्रात महिला को अपनी सहूलियतों के कारण दुःख मनाने का अधिकार मिल गया। कड़वी सच्चाई यह है कि समय और परिस्थिति के अनुसार मनुष्य को अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना ही पड़ता है।

प्रश्न 10. इस पाठ का शीर्षक ‘दुःख का अधिकार’ कहाँ तक सार्थक है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तरः
इस पा. का शीर्षक ‘दुःख का अधिकार’ सटीक एवं सार्थक है। लेखक यह कहना चाहता है कि यद्यपि दुःख प्रकट करना हर व्यक्ति का अधिकार है। परन्तु हर कोई ऐसा कर नहीं सकता। एक ओर सम्पन्न महिला है और उस पर कोई जिम्मेदारी नहीं है। उसके पास पुत्र-शोक मनाने के लिए डाॅक्टर हैं, सेवा-कर्मी हैं, साधन हैं, धन है, समय है। परन्तु गरीब लोग अभागे हैं, वे चाहे तो भी शोक प्रकट करने के लिए आराम से दो आँसू नह° बहा सकते। उनके सामने खड़ी भूख, गरीबी और बीमारी नंगा नाच करने लगती है। अतः दुःख प्रकट करने का अधिकार गरीबों को नहीं है।

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