हिन्दी में रीतिकाल के आगमन की पृष्ठभूमि पर निबंध लिखिए। - hindee mein reetikaal ke aagaman kee prshthabhoomi par nibandh likhie.

रीतिकाल की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि

  • रीतिकाल की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
    • रीतिकाल की राजनीतिक परिस्थिति
    • रीतिकाल की सामाजिक परिस्थिति
    • रीतिकाल की सांस्कृतिक परिस्थिति
      • रीतिकाल की साहित्यिक परिस्थितियाँ

भाषा साहित्य के निर्माण में युगीन वातावरण का विशेष योगदान होता है। प्रत्येक युग का वातावरण राजनीति, समाज, संस्कृति और कला के मूल्यों द्वारा निर्मित होता है, इसलिए युग विशेष के साहित्य के अध्ययन के लिए तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का ज्ञान होना आवश्यक है। रीतिकाल की पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में विभिन्न परिस्थितियों का विवरण निम्नलिखित है

रीतिकाल की राजनीतिक परिस्थिति

  • राजनीतिक दृष्टि से काल मुगलों के शासन के वैभव के चरमोत्कर्ष और उसके बाद उत्तरोतर काल के हृास, पतन और विनाश का काल था। शाहजहाँ के शासनकाल में मुगल वैभव अपनी चरम सीमा पर था। राजदरबारों में वैभव, भव्यता और अलंकरण प्रमुख था। राजा और सामन्त मनोरंजन के लिए गुणीजनों, कवियों और कलाकारों को प्रश्रय देते थे। जहाँगीर ने अपने शासनकाल में राज्य का विस्तार किया था, उसे शाहजहाँ ने दक्षिण भारत तक विस्तृत कर दिया।
  • शाहजहाँ के बाद औरगंजेब ने जब सता सँभाली तो धार्मिक उपद्रव शुरू हो गए, परिणामस्वरूप उसका शासनकाल इन्हीं उपद्रवों में समाप्त हो गया। इसके पश्चात् उतरवर्ती मुगल शासन प्रारम्भ हुआ। यह शासन धीरे-धीरे कमजोर होता गया और मुगलों पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
  • अवध के विलासी शासकों का अन्त भी मुगल साम्राज्य के समान कारुणिक रहा। राजस्थान में भी विलास और बहुपत्नी प्रथा इतनी बढ गई थी कि औरगंजेब के बाद राजपुरुष कुचक्रों, षड्यन्त्रों और आन्तरिक कलह के शिकार होकर पतनोन्मुख हो गए। बिहारी के काव्य में वर्णित मुगलकालीन वैभव, विलास का समर्थन हाॅकिन्स ने अपने यात्रा वृतान्त में किया है।

रीतिकाल की सामाजिक परिस्थिति

  • सामाजिक दृष्टि से इस काल को आदि से अन्त तक घोर अधःपतन का काल कहना चाहिए। इस काल में सामान्तवाद का बोलबाला था, जिस कारण सामन्तशाही का जनसामान्य पर भी पङ रहा था। सामाजिक व्यवस्था का केन्द्रबिन्दु बादशाह था। इस वर्ग के श्रमजीवी कृषक, सेठ-साहूकार, व्यापारी आदि सभी शोषित थे।
  • यहाँ जनसाधारण की चिकित्सा का प्रबन्ध भी नहीं था। ऐसी दयनीय दशा में लोग भाग्यवादी या नैतिक मूल्यों से रहित थे। कार्य सिद्धि के लिए उत्कोच (घूस) लेना-देना साधारण बात थी, जिस कारण विलासिता की प्रवृति बढ गई और नारी मात्र ’भोग्या’ बनकर रह गई थी। कन्याओं का अपहरण अभिजात्य वर्ग के लोगों के लिए साधारण बात थी, इसलिए अल्पायु में ही लङकियों का विवाह कर दिया जाता था। यहाँ बहु विवाह की प्रथा भी प्रचलित थी तथा अभिजात्य संस्कृति और नैतिक मूल्यों का हृास हो गया था।

रीतिकाल की सांस्कृतिक परिस्थिति

  • सामाजिक परिस्थिति के समान सांस्कृतिक परिस्थिति भी अत्यन्त दयनीय थी। अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ की उदारवादी नीति भी औरगंजेब के शासनकाल में समाप्त हो गई थी। औरगंजेब की कट्टरता के कारण धार्मिक कार्य व्यापार भी नहीं हो पा रहा था।
  • अन्धविश्वास इतना बढ गया था कि हिन्दू मन्दिरों में तथा मुसलमान पीरों के तकिए पर जाकर मनोरथ सिद्ध करते थे। जनता के अन्धविश्वास का लाभ पुजारी और मौलवी उठाते थे। रामलीलाओं और रामचरितमानस के पाठ का प्रभाव केवल मनोविनोद तक ही सीमित था।

रीतिकाल की साहित्यिक परिस्थितियाँ

  • साहित्य और कला की दृष्टि से यह काल अत्यन्त समृद्ध रहा है। इस काल के कवि साधारण परिवार से होते थे, परन्तु उन्हें सही वृति (जीविका) मिल जाती थी एवं उनकी गणना प्रतिष्ठित लोगों में होती थी।
  • कवियों का उचित सम्मान एवं प्रतिष्ठा कला को प्रोत्साहित करने के लिए होता था। वे चमत्कारपूर्ण काव्य रचना करने को कवि-कर्म की सफलता मानते थे, जिस कारण उनका काव्य श्रृंगार के संकुचित क्षेत्र में ही सिमटकर रह गया था।

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रीतिकाल: परिचय एवं पहचान

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में उत्तर मध्यकाल को ‘रीतिकाल’ नाम दिया। इस नामकरण के पीछे ‘रीतिग्रंथों की परंपरा है। इसके पूर्व मिश्र बंधुओं ने इस काल को ‘अलंकृत काल’ कहा था। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे श्रृंगार काल’ कहा। वे ‘हिन्दी साहित्य का अतीत’ के दूसरे भाग में इस कालखंड का विवेचन रीतिबद, रीतिसिद और रीतिमुक्त की कोटियों में करते हैं। वे रीति को विशुद्ध ‘साहित्यिक प्रवृत्ति’ मानते हैं। इसे ‘भारतव्यापिनी’ मानते हुए वे लिखते हैं कि यह प्रवृत्ति देशी भाषा’ में साहित्य का उद्भव होने के समय से ही सर्वत्र दिखाई देती है। आचार्य मिश्र दवारा इस कात्र को “श्रृंगार काल’ कहने के पीछे मंशा यही थी कि रीति की संकीर्ण सीमा में घनानंद, ठाकुर, बोधा आदि नहीं आ पाते।

आधुनिक युग ने साहित्य को सामाजिक अन्तर्वस्तु के रूप में देखा। साहित्य को सामाजिक उत्पाद के रूप में मान लेने के कारण इसकी परख भी इसी कसौटी पर की गई। इसी क्रम में हिन्दी के बड़े आलरोचक एवं साहित्येतिहासकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जब रीतिकाल पर इष्टिपात किया तो श्रृंगारिकता, दरबारी वृत्ति, काव्यांग-निरूपण इत्यादि उन्हें मनोनुकूल नहीं लगे। वास्तव में वे ‘ब्लोकमंगलवाद’ के राजमार्ग पर खड़े थे वहाँ से रीतिकाल पगडंडी भर प्रतीत हुआ। अतएव किंचित्‌ वेदना के साथ वे स्पष्ट करते हैं कि हिन्दी साहित्य के इतिहास का यह विचित्र संयोग है, जब हिन्दी संस्कृत साहित्यशास्त्र की उद्रणी बनकर रह गई। संस्कृत में तो कवि और आचार्य दोनों अलग-अलग थे। लेकिन हिन्दी में दोनों एक ही थे। आचार्य शुक्त्र के अनुसार हिन्दी में “इस एकीकरण का प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा।” रीतिकाल की इस कमजोरी का उल्लेख करने के बावजूद वे इसकी शक्ति की ओर भी संकेत करते हैं। उन्होंने बताया कि हिन्दी के रीति ग्रंथकार ‘भावुक, सहदय और निपुण कवि थे। उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगों का शास्त्रीय पद्तति पर निरूपण करना। अतः उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषतः श्रृंगार रस) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यंत प्रचुर परिमाण में प्रस्तुत हुए।”

भक्ति से रीतिकाल में रूपान्तरण

रीतिकाल के पहले का युग भक्ति का है। यह सही है कि भक्ति और श्रृंगार की विभाजक रेखा सूक्ष्म है। भक्ति काल में कई बार भक्ति की अनुभूति की सघनता को अभिव्यक्त करने के लिए दाम्पत्य प्रतीकों का सहारा लिया जाता था। कबीर ‘हरि मोरा पिउ, मैं हरि की बहुरिया’ लिखते हैं तो मर्यादावादी तुअलसीदास को आदर्श भक्ति के लिए ‘कामिहिं नारि पिआरि जिमि’ की उपमा ही जँची। सूरदास, मीराबाई आदि की रचनाओं में भक्ति एवं श्रृंगार का साहचर्य बना हुआ है। रीतिकाल में आकर राधा और कृष्ण का चरित्रांकन धर्म और अध्यात्म के अनुभूतिबोध के दायरे से थोड़ा खिसक जाता है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ठीक ही लिखा है कि इधर भक्ति का वेग कम पड़ा, उधर श्रृंगार की धारा वेगवती हुई। ……….. रचना की लोकस्वीकृति के संबंध में (रीतिकालीन कवि) अपने मन को भक्ति की आड़ में फुसला लेते थे- आगे के सुकबि रीझिहँँ तो कविताई नतु राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है।” उनके अनुसार रीतिकाल की कड़ी भक्तिकाल की कड़ी के गर्भ से आगे घूमती हुई बढ़ी है।

इहलौकिक जीवन-दृष्टि का अभ्युदय

रीतिकात् के अभ्युदय के संदर्भ में यह कहा जा सकता है ‘प्रेम और भक्ति की संपृक्‍त अनुभूति में से भक्ति क्रमशः क्षीण पड़ती गयी और प्रेम का श्रृंगारिक रूप केन्द्र में आ गया।” डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी इसे साहित्य में ऐहिकता के अभ्युदय के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार ‘रीतिकाल में कविता अधिकांशतः धर्म से वित्नन होकर ऐहिक रूप में विकसित होती है। रीतिकालीन कवि के लिए धर्म और दर्शन की प्रेरणा सार्थक नहीं रह गई, और एक माने में वह अधिक मानवीय कविता का ड्ष्टा है, जिसका पूरा रूप आधुनिक काल में आकर खुलता है।”

रीतिकालीन साहित्य में अभिव्यक्त इहलौकिकता को उस युग की सामाजिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है। सर्वविदित है कि इस काल के अधिकांश कवि दरबारी थे। दरबार को भक्ति, अध्यात्म अथवा दर्शन नहीं, मनोरंजन चाहिए। इस युग में देशी नरेश, नवाब, शाह या दीवान कवियों के आश्रयदाता होते थे। आश्रयदाताओं की अभिरुचि के अनुरूप हिन्दी या संस्कृत में श्रृंगारपरक मुक्तक रचनाएं की जाती थीं। इसी के सापेक्ष फारसी के कवि हुस्न और इश्क के शेर पढ़ा करते थे। कहा जा सकता है कि रीतिकाल के कवियों की कविता ‘स्वान्तः सुखाय’ न बनकर आश्रयदाता सामन्तों और राजाओं की भोगवृत्ति को उत्तेजित करने का साधन बन गयी।” राजदरबारों की स्थिति यह थी कि एक तरफ फारसी का शायर शेर और गज़ल पढ़ता था, तो दूसरी ओर रीतिकाल के हिन्दी के कवि “कवित्त सवैया या दोहा भनते थे।”

इहलौकिक जीवन-दृष्टि के कारण इस युग में श्रृंगार प्रधान रचनाएँ अधिक मित्रती हैं। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है कि “प्रेम की विकृति के साहचर्य में परकीया प्रेम को विशेष उत्तेजना प्राप्त हुई।” इसके पीछे कारण यह था कि “हिन्दी साहित्य को उस समय जिस साहित्य से प्रतिदवन्द्‌विता करनी पड़ी, उसमें परकीया प्रेम का बाहुल्‍य था।” स्पष्टतः यह प्रतिद्वन्दविता उस युग में फारसी बोलने वाले समाज से थी।

‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास’ में डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है कि ‘रीतिकाल में रसिकता और शास्त्रीयता का योग हुआ है, जो उस युग के एकान्त, प्रशमित-से वातावरण के अनुकूल है। त्रगता है जैसे सारा साहित्यिक परिदृश्य यहाँ अचल हो गया हो। रीतिकाव्य की बनावट में इसीलिए ऐतिहासिक सामाजिक दवन्दव नहीं दिखाई देते।” लेकिन सच्चाई यह है कि राजनीति एवं समाज के स्तर पर इस युग में कई दवन्दव थे। इस दवन्दव क कई धाराएँ भी थीं। ढेर सारे कहे-कनकहे प्रसंगों के जरिए इस काल का सामाजिक एवं ऐतिहासिक अनुभव झांकता दिख जाता है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिसे डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी प्रशमित-सा वातावरण कह रहे हैं, उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यह है कि यह मुगलों के शासन के प्रभाव एवं वैभव के चरमोत्कर्ष का युग था। जहाँगीर और शाहजहाँ के शासन का कई इष्टियों से विस्तार हुआ। मुगल साम्राज्य को मजबूती तो अकबर के ही शासनकाल में मिल चुकी थी। इसे बरकरार रखते हुए जहाँगीर एवं शाहजहाँ ने साम्राज्य का विस्तार किया। राजपूत राजाओं की तरफ से अब साम्राज्य को कोई खतरा नहीं था। राजकोष भरा-पूरा था। ताजमहल एवं मयूर सिंहासन जैसी अनेक उपलब्धियां मुगल्न साम्राज्य हासिल कर चुका था। लेकिन औरंगजेब के सत्तारूढ़ होने तथा उसकी कट्ठपंथी नीतियों के कारण मुगल साम्राज्य का पतन होने लगता है। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के लिए हुई लड़ाइयों ने मुगल साम्राज्य को पतन के गर्त में डाल दिया।

वैसे यह बात विशेष रूप से ध्यान देने की है कि रीतिकालीन साहित्य की रचनाभूमि दिल्‍ली न होकर उसकी परिधि में है। मुगल साम्राज्य के कमजोर पड़ने और छोटे-छोटे राजाओं एवं नवाबों के स्वतंत्र होने के बीच गहरा नाता है। अवध, बुंदेलखंड तथा राजस्थान के क्षेत्रीय क्षत्रप स्वतंत्र हुए और इन्होंने रीतिकालीन साहित्य को आश्रय दिया। जैसे दिल्‍ली दरबार गालिब को ‘वजीफाख्वार’ बना देता था, और तंज मैं ही सही वे शाह को दुआ देते थे, ठीक उसी तर्ज पर क्षेत्रीय क्षत्रप भी कवियों को आश्रय देते थे। राजकवि हो जाना किसी कवि के लिए गौरव की बात थी। रीतिकालीन कवि “ठाकुर का कहना है- ‘ठाकुर सो कवि भावत मोंहि जो राज दरबार में बड़प्पन पावे” लेकिन इससे सिर्फ कवि ही नहीं राज दरबार भी गौरवान्वित एवं रससिक्‍्त होता था। ‘भूपसों लसत कवि, कवि सों ल्रसत भूप; भूप और कवि से त्सत सभा की गरूआनो है।’

सामाजिक पृष्ठभूमि

रीतिकालीन समाज ठहरा और ठिठका हुआ समाज था। विकास की गति विलासिता के भंवरजाल में फँसकर रह गयी थी। विलासिता के कारण राजाओं और नवाबों द्वारा राजस्व अधिक वसूल्ला जाता था। इस युग में सामंतों, ब्रगान वसूलने के ठेकेदारों तथा कर्मचारियों का अत्याचार जनता को सहना पड़ता था। जमींदार एवं सामंतों की धन लिप्सा पर कोई लगाम नहीं था। प्रतिदवन्दवी सेनाओं के आक्रमण और प्रत्याक्रमण के अलावा अनेक घुमन्तू दुस्साहसिक लुटेरों के दवारा जनजीवन को बिल्कुल असहाय बना दिया गया था।

इस युग का समाज भी जड़ एवं बदमूल था। वर्ण व्यवस्था एवं जाति व्यवस्था अब भी अपनी पूरी जकड़ एवं पकड़ बनाये हुए थी। अक्तिकाल की समतामूलक चेतना और संदेश का समाज के स्तर पर प्रसार नहीं हो सका। सामंती समाज का स्तरीकरण हिन्दू तथा मुसलमान दोनों में व्याप्त था। मुसलमान जाति के अलावा प्रजाति एवं हैसियत के अनुरूप बँटे हुए थे। मुसलमानों में शरीफ और अज़ल्राफ जैसा विभाजन था।

पारिवारिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक ही थी। पुरुष ही स्वामी था। स्त्रियों की दशा दीन-हीन थी। उनको सम्पत्ति का अधिकार नहीं था। उनका दायरा भी घर की चारदीवारी तक ही सीमित था। जिस रूप में रीतिकाल का साहित्य उन्हें प्रस्तुत करता है, वे उसी रूप में थीं। वे भोग्या थीं, बेजुबान थीं तथा मनोरंजन एवं शोभा-प्रदर्शन की वस्तु थी। वे एक खूबसूरत बटेर थीं, जिनका युग के कवि एवं साहित्यशास्त्री मनोनुकूल श्रेणीकरण करते थे। नायिका भेद इसी श्रेणीकरण का नमूना नहीं तो और क्या है? शंखिनी, पद्मिनी, चित्रिणी, हस्तिनी, मुग्धा, विप्रल्नब्धा, प्रोषितपतिका जैसी अनेक श्रेणियां बनाई गयीं। इस युग के साहित्य में स्त्री उपस्थित तो है किन्तु वह चित्रकृति की तरह खामोश एवं जड़ है। हरमों और रनिवासों में स्थित स्त्री समान्तों एवं नवाबों के लिए मनोरंजन का साधन थी। उसकी व्यक्तिगत पहचान कुछ नहीं थी। वह जो कुछ भी थी, पुरुष सामन्‍त की व्याख्या और पहचान की मोहताज थी। अहिल्याबाई होल्कर जैसी सुदृढ़ स्त्रियां इस युग में कम थीं। ध्यातव्य है कि अहिल्याबाई होल्कर ने इन्दौर पर तीस वर्षों तक (1766-1796) सफल शासन किया।

यह सही है कि रीतिकाल् में स्त्री के श्रृंगरपरक रूप का बहुत ही सुन्दर एवं मार्मिक चित्रण किया गया। परकीया प्रेम का वर्णन भी बहुत हुआ। लेकिन यह सब स्त्री को मुक्त कर देने वाले प्रेम का उद्घोष नहीं था। ‘पावक झर-सी’ झमकने वाली स्त्री के लिए रोशनी और आजादी के लिए अब भी झरोखे’ ही थे। खुला दवार और मैदान उसकी कल्पना में दूर-दूर तक नहीं थे। नायिकाओं का ऐन्द्रिक एवं मांसल वर्णन पुरुष के नजरिए से ही था। बाल विवाह, दहेज प्रथा, सती प्रथा जैसी कुरीतियां स्त्री के दमन और उत्पीड़न की स्थितियों को जस की तस बनाये हुए थीं।

सुखद एवं आश्वस्तिप्रद बात यह है कि इस काल में हिन्दुओं और मुसलमानों के रिश्ते मैत्रीपूर्ण थे। साम्प्रदायिक विद्वेष कम होने से सहयोग एवं सम्मिलन की स्थितियां बनने लगी थीं। इतिहासकार डॉ. सतीश चन्द्र के अनुसार हिन्दुस्तानी संगीत, आध्यात्मिकता से परिपूरित फारसी कविता तथा रीतिकालीन हिन्दी कविता इसी सम्मिलन एवं सहयोग की उपज है। इस युग में साम्प्रदायिक सद्भाव का उदाहरण यह है कि सैयद भाइयों में से एक अब्दुला खान बसन्‍त और होली का त्योहार मनाता था। सिराजुद्दोला और मीर जाफर होली का त्योहार मनाते थे। दौलत राव सिन्धिया और उनके कर्मचारी मुहर्रम के जुलूस में शामिल होते थे। दिल्‍ली दरबार में दुर्गा पूजा का आयोजन होता था। हिन्दू और मुसलमान का यह सम्मिलन भाषा एवं साहित्य के क्षेत्र में दिखता है। रीतिकालीन कविता में अनेक ऐसे स्थल्न हैं जहाँ फारसी एवं उर्दू कविता का प्रभाव देखा जा सकता है। फारसी एवं उर्दू कविता में कई भारतीय काव्यरूदियों एवं प्रयोगों को देखा जा सकता है। स्वयं उर्दू की काव्यपरंपरा में भारतीय जीवन शैली को आत्मसात्‌ करने के कई उदाहरण मिलते हैं। इसे रेखांकित करना विषयान्तर न होगा कि रहीम तथा रसखान जैसे कवियों की परंपरा आगे बढ़ती है। रहीम की राम एवं गंगास्तुति तथा रसखान की कृष्ण भक्ति के अलावा जीवन शैली को आत्मसात्‌ करने के कई उदाहरण मिलते हैं। यह जिक्र करना जरूरी है कि उर्दू कवि मीर तकी मीर होली के त्योहार में अपनी तबियत रंगीन कर बैठे थे। मीर दिल्‍ली से लखनऊ आये और नवाब आसफुद्दौत्ा को होली खेलते देखकर स्वयं होलीमय हो गये-

“होली खेलें आसफुद्दी्मा वजीर

रंग सौबत से अजीब है खुदोपीर

दिल्‍ली छोड़कर आये दूसरे शायर सआदत यार खाँ रंगीन’ भी लखनऊ की होली में रंगे हुए थे-

भर के पिचकारियों में रंगीन रंग

नाजनी ने खिलायी होली संग

इस प्रकार देश की दोनों परंपराओं के बीच मैत्री एवं सद्भाव का वातावरण बन रहा था।

नये शोध-अध्ययनों से यह बात उभर कर सामने आयी है कि रीतिकालीन साहित्य देशज परंपरा के पुनर्वास का साहित्य भी है। इसे उस युग में फारसी साहित्य-परंपरा के वर्चस्व के आलोक में समझना चाहिए। संस्कृत साहित्य शास्त्र की ओर लौटकर उसकी पुनर्प्रस्तुति यों ही नहीं है। इसे केन्द्रीय मुगल राजसत्ता के सापेक्ष देशी राजे रजवाड़ों की देशज परंपरा का उदघोष ही कहना होगा। कहा जा सकता है कि रीतिकाल के कवि एवं उनके आश्रयदाता राजागण साहित्य में अतीत का पुनर्वास चाहते थे। काव्यांग-निरुपण के अलावा ‘अमरुक शतक’, “गाहा सतसई’ ‘आर्या सतसई’ आदि से कविता के लिए उपजीव्य ले आना, शायद इसी का प्रतिफल है। रीतिकाल् की मुक्तक बहुलता भी इस बात को साबित करती है। असल में केन्द्रीय मुगल सत्ता तथा देशी राजे-रजवाड़ों के बीच का संबंध स्वामित्व और अधीनता तक ही सीमित नहीं था उसमें सहमति के साथ-साथ असहमति की परतें भी थीं। ब्रज में लिखे गये रीतिकालीन साहित्य को फारसी वर्चस्व के सापेक्ष देशज भाषा द्वारा पहचान जताने के लिए उपक्रम के तौर पर भी देखा जा सकता है। वैसे रीतिकाल मुक्तकों की बहुलता के पीछे बड़ा सामाजिक कारण उसका पाठक वर्ग था। रीतिकालीन साहित्य के संबोध्य समूह वातावरण के अनुरूप मुक्तक रचनाएं ही उचित थीं। यह चुना हुआ गुलदस्ता था, जो सभा और समाजों के ल्रिए अधिक उपयुक्त था।

रीतिकालीन कविता पर आरोप है कि वह समाज-विच्युत साहित्य है। उसका जन-परिसर दरबार तक ही सीमित है। लेकिन आश्चर्य यह भी है कि रीतिकालीन कविता के प्रति समाज में बहुत आकर्षण था। बिहारी और देव के आकर्षण से सभी परिचित हैं। इसके पीछे एक बड़ा कारण रीतिकालीन कविता की श्रृंगारिकता तो है ही, एक अन्य कारण इस कविता का दो-रुखा चरित्र भी है जिसमें एक तरफ राधा-कृष्ण हैं तो दूसरी तरफ सामान्य प्रेमी-प्रेमिका हैं। देवत्व एवं मनुष्यत्व के सन्धिस्थल्न का काव्य होने के कारण रीतिकालीन कविता को एक बड़ा पाठक वर्ग मिला। लोक और परलोक-दोनों के अर्थश्लेष के कारण कविता को विस्तार एवं गहराई मिली।

रीतिकालीन कविता के प्रति लोगों के आकर्षण का दूसरा बड़ा कारण मुक्तक बहुल्रता है। मुक्तकों में गृहस्थ जीवन का अंकन किया गया है। आश्रयदाता राजाओं, नवाबों और सामन्तों के यहाँ इसकी रचना भत्ने हुई हो, लेकिन इसकी नायिकाएं राजा-रानियां तथा राजकुमारियां नहीं हैं। सामान्य जन इसके नायक हैं। थोड़ा आगे बढ़कर नायक-नायिका के रूप में कृष्ण-राधा या गोप-गोपी हैं। शासक-वर्ग के प्रेमानुभव नहीं हैं। इस काल की कविताओं में प्रेम और सौन्दर्य का चित्रण जन सामान्य से संबद्ध है। यही सब कारण है, जिससे रीतिकाल की सामाजिक ग्राहयता अधिक बन सकी है।

रीतिकालीन साहित्य में अभिव्यक्त आधुनिक समाजैतिहासिक सन्दर्भ

दरअसल्र देखा जाए तो रीतिकाल में आकर कविता इहलौंकिक स्वरूप ग्रहण करते हुए अपने समय एवं समाज के मनुष्यों के जीवन से रू-ब-रू होती है। रीतिकाल की दहलीज पर अवस्थित कवि केशवदास ‘जहॉँगीर जस-चन्द्रिका’ लिखते हैं। ‘वीरसिंह देव चरित’ में अकबर के दौर के सुप्रसिद्ध सलीम के विद्रोह की चर्चा है। इसका जिक्र रीतिकाल के अध्येता विद्धान चन्द्रबली पाण्डेय करते हैं। अब कोई परल्रोक नहीं हैं। कविता पूरे उद्घोष के साथ लौकिक है। राधा, कन्हाई सुमिरन’ अब बहाना मात्र है। भक्ति अब वास्तविक नहीं है, बहाना मात्र है।

मुगल शासन-काल में प्रजा पर दुहरा शासन चल्रता था। एक तो स्वयं मुगल्र सम्राटों का, दूसरे उनके दवारा नियुक्त विभिन्‍न प्रांताधिपतियों का। दुहरे शासन से जनता की जो दुर्गति हो रही थी, उससे असंतुष्ट बिहारी ने उस नीति की निन्‍दा की-

दुसह दुराज प्रजानु कौ, क्‍यों न बढ़े दुख-दंदु।

अधिक अंधेरो जग करतु , मित्रि मावस रवि चंदु।।(357)

यही नहीं मुगल शासन और प्रांताधिपति अपने अधिकारों का दुरुपयोग भी करते थे। मुगल साम्राज्य प्रशासन की दृष्टि से प्रांतों के छोटे-छोटे अधिकारियों को सुपुर्द कर दिया गया था। ये अधिकारी राजा के ही हितैषी थे। इस स्थिति का संकेत बिहारी ने मुग्धा नायिका का रूपक बॉधकर इस प्रकार दिया है-

अपने अंग के जानि कै, जोवन नृपति प्रबीन।

स्तन, मन, नैन, नितंब कौ, बड़ौ इजाफा कीन।।(220)

इस शासन व्यवस्था में प्रजा हित प्रमुख नहीं था। इस युग में राजा का हितैषी होना प्रमुख था। राजा के हितैषी अयोग्य व्यक्तियों को सम्मान मिल जाता था लेकिन योग्य व्यक्ति वंचित रह जाते थे। चाटुकारिता की सामाजिक संस्कृति उस युग में भी प्रबल थी। इस स्थिति पर व्यंग्यात्मक लहजे में टिप्पणी करते हए बिहारी कहते हैं-

मरतु प्यास पिंजरा पर्या, सुआ समै, के फेर।

आदर दै, दै बोलियतु बाइस बल्नि के बेर।। 

चाटुकारिता के कारण ही लोग काम को साधन के लिए अपने से बड़े की तलाश करते थे- 

कैसे छोटे नरनु तैं, सरत बड़नु के काम।। 

मढ्यो दमायो जातु क्‍यों, कहुं चूहे के चाम।।

यह राजनीतिक निरंकुशता का युग था। कवि अक्सर इस पर चुप ही रहते थे लेकिन “आप को न चाहे ताके बाप को न चाहिए’ तथा ‘अली कली ही सौं बंध्यों” जैसी पंक्तियों में राज-समाज की आलोचना भी दिखती है।

रीतिकाल का विस्तार शाहजहाँ के काल्न से लेकर अंग्रेजों के आगमन तक है। इहलौकिक साहित्य होने के कारण रीतिकालीन कवि सिर्फ दरबार की रंगीनियों तक ही नहीं डूबा रहा। कुछ कवि ऐसे भी थे, जो आने वाले दुर्दिन की आहटें भी सुन रहे थे। रीतिकाल के आखिरी महत्त्वपूर्ण कवि पद्माकर इसकी आहटें भी सुन रहे थे। उन्होंने पूरी वेदना के साथ ग्वालियर नरेश सिंधिया को बहुत ही मार्मिक पत्र लिखकर यह बताया था कि फिरंगी धीरे-धीरे पूरे देश में अपने पैर पसार रहे हैं और इस समय देश अपनी मुक्ति के लिए उनकी अगुवाई चाहता है-

मीनागढ़, बंबई, सुमंद, मंदराज, बंग

बंदर को बंद कर, बंदर बसाओगे।

कहै पद्माकर कसक काश्मीर हू को

पिंजर सों धेरि कालिंजर, छुड़ाओगे।

दिल्‍ली दहपट्टि, पटना हू को झपटि कर

कब॒हूँ लत्ता कल्रकत्ता की उड़ाओगे।।

प्रकारानतर से वे फिरंगियों के राज में हो रहे पाप और अधर्म का उल्लेख कर रहे थे। बाबा दीनदयाल गिरि नामक रीतिकालीन कवि इसी कारण स्वाधीनता की महत्ता बता रहे हैं-

पराधीनता दुख महा, सुखी जगत स्वाधीन।

सुखी रमत सुक बन बिसय, कनक पींजरा दीन।।

इस प्रकार ‘रीतिकाल् के कवि अपने समय के इतिहास से दो तरह से जुड़े हुए थे। पहल्ला तो यह कि सीधे उनका काल मुगल्रकाल था, उससे जुड़े हुए थे, और दूसरे आने वाली आफत अंग्रेजी राज की आपत्तियों विपत्तियों को पहचानते थे।”

 निष्कर्ष

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि रीतिकालीन साहित्य एक संश्लिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया की उपज है। रीतिकाल में काव्यांग निरूपण, श्रृंगारिकता, मुक्तकों की बहुलता- इन सबके पीछे उस युग की सामाजिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखा जा सकता है। इसके अलावा भ्रक्तिकाल के धर्म एवं अध्यात्म-प्रधान युग के रूपान्तरण की प्रक्रिया के पीछे भी सामाजिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ही है। रीतिकाल्र में हिन्दी कविता मठों एवं मन्दिरों से निकलती है, तो दरबारों रनिवासों और हरमों में प्रविष्ट होती है, लेकिन इसमें विचित्र बात यह है कि राधा-कन्हाई का दामन नहीं छूट पाया। उन्हें भी ‘अपनी-सी’ बना देने में रीतिकालीन कवि को महारत हासिल था। वैसे इतना अवश्य है कि अपनी प्रदत्त सामाजिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में रीतिकाल के कवियों ने कविता को नई प्रौढ़ता दी।

रीतिकाल की पृष्ठभूमि क्या है?

यह युग मुक्तक-रचना का युग रहा। मुख्यतया कवित्त, सवैये और दोहे इस युग में लिखे गए। कवि राजाश्रित होते थे इसलिए इस युग की कविता अधिकतर दरबारी रही जिसके फलस्वरूप इसमें चमत्कारपूर्ण व्यंजना की विशेष मात्रा तो मिलती है परंतु कविता साधारण जनता से विमुख भी हो गई। रीतिकाल के अधिकांश कवि दरबारी थे।

रीतिकाल क्या है इसकी प्रवृत्तियां लिखिए?

रीतिकालीन काव्य की प्रमुख धाराएं एवं प्रवृत्तियाँ रीतिकालीन काव्य को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त कर सकते हैं-रीतिबद्ध काव्य-धारा और रीतिमुक्त Scanned with CamScanner Page 5 69 रीतिकाल : उत्तर मध्यकाल काव्य-धारा। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लक्षणबद्ध काव्य-रचना करने वाले कवियों को रीतिग्रंथकार कवि कहा है ।

रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्ति कौन सी है?

रीति काल के अधिकांश कवियों की सर्व प्रमुख विशेषता लक्षण ग्रन्थों का निर्माण है। इनमें काव्य विवेचना अधिक है। संस्कृत के लक्षण ग्रन्थकार आचार्यों का अनुकरण करते हुए इन्होंने अपनी रचनाओं को लक्षण ग्रन्थों अथवा रीति ग्रन्थों के रूप में प्रस्तुत किया।

रीतिकालीन कविता का मुख्य लक्षण क्या था?

रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध, रीतिमुक्त । रीतिबद्ध श्रेणी में उन आचार्य कवियों को रखा गया जिन्होंने लक्षण ग्रंथों की रचना की। इस श्रेणी के कवियों में चिंतामणि, महाराज जसवंत सिंह, मतिराम, कुलपति मिश्र, देव, भिखारीदास आदि आते हैं। बिहारी को विद्वान रीतिसिद्ध कवि मानते हैं और घनानंद, बोधा, ठाकुर आदि रीतिमुक्त कवियों में आते हैं।

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