डॉ रघुवीर का नाम किस क्षेत्र में उल्लेख ने है - do raghuveer ka naam kis kshetr mein ullekh ne hai

रघुवीर सहाय - कविता में समाज और समाज में कविता की चिंता

डॉ. व्यास मणि त्रिपाठी

जीवन की समग्रता का बोध, मूल्यों के लिए प्रतिबद्धता और संघर्ष, आस्था और करूणा, परम्परा और प्रयोग, सहजता और संश्लिष्टता को कविता में संभव करने वाले रघुवीर सहाय अन्तर्विरोधों के सामंजस्य के कवि हैं। उनकी एक निश्चित विचारधारा है लेकिन उसके घेरे में सीमित रहना उनके कवि-स्वभाव के विपरीत है। वस्तुओं के बीच अंतर्सबंध और द्वन्द्वात्मक चेतना के साथ जीवन की संपूर्णता की तलाश उनकी प्रवृति है। इसीलिए जीवन के प्रति अटूट आस्था का स्वर उनकी जीवन की संपूर्णता की तलाश उनकी प्रवृति है। इसीलिए जीवन के प्रति अटूट आस्था का स्वर उनकी कविताओं में सर्वाधिक मुखरित है। वे जीवन के प्रति जितना सचेत हैं उतना ही कविता के प्रति। उनके यहाँ यह सवाल भी है कि ‘रचना क्यों की जाय?’ और समाधान भी कि ‘‘मैं मौन रहूँ तो पता नहीं किस अनीति की स्वीकृति दे बैठूं।’’ यही कारण है कि वे कविता की चिन्ता लेकर समाज क निकट जाते हैं और समाज की चिन्ता के साथ कविता के निकट आते हैं। इसी संदर्भ में डॉ. परमानन्द श्रीवास्वत का कहना है कि रघुवीर सहाय के यहाँ कविता की चिंता तथा समाज की चिंता परस्पर पर्याय हैं- ‘‘कविता की चिंता तथा समाज की चिंता वहाँ इस हद तक एक-दूसरे के लिए पर्याय हो चली है कि उन्हें रूपवादी या कलावादी कहकर अलग करना मुश्किल है। यह जरूर है कि रघुवीर सहाय की समाज-चिंता के अपने रूप हैं, उसे अनुभव करने या जाँचने की अपनी कसौटी है, उसे व्यक्त करने के अपने ढंग हैं, कभी बहुत सीधे और कभी बेहद जटिल। समाज से संपृक्ति और स्थूल सामाजिकता से अलगाव दोनों रघुवीर सहाय को एक साथ कवि-कर्म के हित में जरूरी लगते हैं।’’ (शब्द और मनुष्य, पृष्ठ १०५)। समाज का अपना आत्म-बल और अपनी स्वतः स्फूर्त पहल का सभी क्षेत्रों में लगातार छीजना रघुवीर सहाय की चिंता का कारण है। इससे भी चिन्तनीय यह है कि सर्जनात्मक शब्द की जगह विज्ञापन देने की प्रवृति ही नहीं, आग्रह भी जोर पकड रहा है-
‘‘हम लिखते हैं कि
उसकी स्मृतियों में फिलहाल
एक चीख और गिडगिडाहट की
हिंसा है
उसकी आँखों में कल की छीना-झपटी और भागमभाग
का पैबंद इतिहास
उसके भीतर शब्द रहित भय और जख्मी आग है
यह तो हम लिखते हैं पर उस व्यक्ति में हैं जो शब्द वे हम जानते नहीं
जो शब्द हम जानते हैं उसकी अभिव्यक्ति नहीं, विज्ञापन हमारा है।’’
-लोग भूल गये हैं
रघुवीर सहाय की सामाजिक चिंता का अधिक स्पष्ट रूप उनके काव्य संग्रह ‘आत्म हत्या के विरूद्ध’ में द्रष्टव्य है लेकिन उनके अन्य संग्रहों में भी समाज के शोषित, पीडित, उपेक्षित, वंचित के प्रति सहानुभूति और उनके उन्नयन के लिए चिंता, व्याकुलता तथा आक्रोश दर्शनीय है। सामाजिक प्रश्नाकुलताओं, विसंगतियों, विद्रूपताओं, विडंम्बनाओं तथा पीडाओं ने रघुवीर सहाय के रचनाकार को मनुष्यता के पक्ष मे ंखडे होने के लिए विवश किया है। गैर-रोमांटिक भाव-बोध की सार्थक कविता रचने की संकल्पात्मक अनुभूति यहीं से पैदा हुई और इस प्रक्रिया में यदि कवि अपने को अकेला पाता है तो कोई आश्चर्य भी नहीं है-उनका एक कवि-वक्तव्य यहाँ
दृष्टव्य है ः
‘‘कितना अच्छा था छायावादी
एक दुख लेकर एक गान देता था
कितना कुशल था प्रगतिवादी
हर दुःख का कारण वह पहचान लेता था
कितना महान था गीतकार
जो दुख के मारे अपनी जान देता था
कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में
जहाँ सदा मरता है एक और मतदाता।’’
समाजवादी विचार-आन्दोलन के आजीवन कवि-योद्धा रहे रघुवीर सहाय को राममनोहर लोहिया, नरेन्द्र देव, जय प्रकाश नारायण से दिशा-दृष्टि मिली। माक्र्सवाद ने प्रभावित किया लेकिन इस संबंध में उनका स्पष्ट कथन है कि ‘‘माक्र्सवाद को कविता पर गिलाफ की तरह चढाया नहीं जा सकता। उसके लिए मध्यवर्गीय, धोखा खाते रहने वाले ढुलमूल यकीन को अपनी बौद्धिक चेतना को जागरूक रखना पडेगा और बराबर जागरूक रहकर एक दृष्टिकोण बनाना होगा। यह दृष्टिकोण सामाजिक, वास्तविक, साम्यवादी और इसलिए सही तथा स्वस्थ होगा।’’ रघुवीर सहाय की दृष्टि में कोई धुंधलका नहीं था। उनका दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट था। उनमें सच कहने की ताकत थी। न्याय, स्वतंत्रता और मानवीय गरिमा से संपृक्त व्यक्तियों और संबंधों की सामाजिक दुनिया बनाने की उनकी आकांक्षा थी। इसीलिए सामाजिक-राजनैतिक वास्तविकता से उपजे प्रश्न उनके लिए महत्वपूर्ण रहे हैं। काल्पनिक अद्वितीयता में बहकना उनका स्वभाव नहीं रहा है। यह कवि-वक्तव्य उनके इसी दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है- ‘‘कोशिश तो यही रही है कि सामाजिक यथार्थ के प्रति अधिक जागरूक रहा जाये और वैज्ञानिक तरीके से समाज को समझा जाये। भाषा को भी अधिक साधारण बोलचाल की भाषा के निकट लाने की कोशिश रही है। बहरहाल इस तरह की कोशिशें विचार-वस्तु के दिल और दिमाग में उतरने के तरीके पर निर्भर करेंगी। विचार-वस्तु का कविता में खून की तरह दौडते रहना कविता को जीवन और शक्ति देना है और बेहद संवेदनशील कवि हैं जो अपने समय और समाज की वास्तविकताओं को पूरी तल्लीनता के साथ प्रकट करते हैं। ‘यथार्थ’ से अभिप्राय है जीवन की सच्चाइयों का गहरा साक्षात्कार। व्यक्ति एवं परिवेश के संबंधों की गरमाहट तथा ठंडेपन की यथातथ्य प्रस्तुति। ‘तार सप्तक’ की रचनाओं को आधार बनाकर रघुवीर सहाय की विशिष्टताओं पर प्रकाश डालते हुए नंदकिशोर नवल ने लिखा हैं, जिसमें ग्रामीण जीवन, शहरी जीवन, प्यार-मुहब्बत, प्रकृति-सौन्दर्य, आत्म-चिंतन आदि तमाम चीजों के प्रति आकर्षण है। उनका आत्म-चिंतन अस्तित्ववादियों का आत्मान्वेषण नहीं है, यह याद रखने योग्य बात है, क्योंकि यह वह महत्वपूर्ण बिन्दु है जिस पर वे कुंवर नारायण और सर्वेश्वर जैसे कवियों से अलग होते हैं और आगे चलकर नई कविता का विकास यथार्थवाद की दिशा में करते हैं।’’ (समकालीन काव्य-यात्रा, पृष्ठ ८४)। कहना न होगा कि रघुवीर सहाय ने उन विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है जो उनके देखे-सुने और भोगे हुए अनुभवों पर आद्धृत रहे हैं।
सामाजिक चिन्ता के साथ-साथ कविता की चिंता करने वाले रघुवीर सहाय यह मानते हैं कि ‘‘समाज मेरे रचने का साधन भी है, क्षेत्र भी, उसका उपभोक्ता भी है। उसका मालिक भी-सब कुछ है, लेकिन उसका रचयिता नहीं है, रचता मैं ही हूँ।’’ इस रचे हुए में ही समाज का असली चेहरा उजागर होता है। लोकतंत्रीय ढांचे की विफलता और विसंगतियों के चित्र उभरते हैं। मरता हुआ समाज और सिकुडता हुआ देश चिन्ता के विषय बनते हैं-
‘‘यह समाज मर रहा है इसका मरना पहचानो मंत्री
देश ही सब कुछ है धरती का क्षेत्रफल सब कुछ है
सिकुड कर सिंहासन, भर रह जाए तो भी वह सब कुछ है
राजा ने अपने मन में कहा जो राजा प्रजा की दुर्बलता नहीं पहचानता
वह अपने देश को नहीं बचा सकता प्रजा के हाथों से।’’
मानवीय-संवेदना के धरातल पर जीवन-संदर्भों से जुडकर आम आदमी तक पहुँचना रघुवीर सहाय की कविता का काम्य है इसीलिए वहाँ कविता के माध्यम भाषा, शब्द और शिल्प आदि उपकरणों के बारे में लगातार चिन्ता का होना स्वाभाविक है। कवि को यह मालूम है कि सामान्य जन तक पहुँचकर ही कविता विश्वसनीयता प्राप्त करती है तथा उन्हीं की भाषा कवियों को विचार देती है- ‘‘तब उसे बिना बतलाए कविता कैसे हो जब भाषा कवि को लोगों से ही लेनी है वे लोग तो नहीं लिखते कविता भाषा में उनकी भाषा जो है, विचार दे जाती है।’’ (लोग भूल गये हैं, मुआवजा, पृष्ठ ६४)। ये विचार कवि को विसंगतियों तथा विडम्बनाओं से लडने की ताकत देते हैं। ‘जन’ को पीडा से उबारने के लिए चौतरफा लडाई की प्रेरणा देते हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में संघर्ष के निमित जो भी विकल्प हैं उनका उल्लेख करते हुए रघुवीर सहाय लिखते हैं- ‘‘सबसे मुश्किल और एक ही सही रास्ता है कि मैं सब सेनाओं से लडूँ-किसी में ढाल सहित, किसी में निष्कवच होकर-मगर अपने को अन्त में मरने सिर्फ अपने मोर्चे पर दूँ-अपने, भाषा के, शिल्प के, और उस दो तरफा जिम्मेदारी के मोर्चें पर-जिसे साहित्य कहते हैं।’’ जाहिर है भाषा और संवेदना एकाकार होकर रचना को अधिक सार्थक बनाते हैं। साहित्य के मोर्चे पर तभी सफलता मिल सकती है जब भाषा की पहुँच आम आदमी तक हो। इसके लिए रघुवीर सहाय को रूढिग्रस्त बदहाली के कारण नये संवदेन को पकडने में अक्षम काव्य-भाषा छोड नई काव्य-भाषा का आविष्कार करना पडा। उनका कहना था कि ‘भाषा को मंदिर में बंद मत करो। उसे बोलो। ताकि जिन्दगी का नया अर्थ-सन्दर्भ प्रकट हो सके।’ डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव का मानना है कि- ‘‘भाषा में जितनी अधिक या भाषा के जरिये जितनी अधिक तोड फोड की जा सके, वह कविता के हित में भी है और कविता और समाज के रिश्तों की जाँच-परख के हित में भी।’’ (शब्द और मनुष्य, पृष्ठ १०७)। रघुवीर सहाय उस शब्द की तलाश करते हैं जो वहाँ पहुँच सके जहाँ उसकी पहुँच जरूरी है-
‘‘शब्द अब भी चाहता हूँ
पर वह कि जो जाये वहाँ वहाँ होता हुआ
तुम तक पहुँच
चीजों के आर-पार दो अर्थ मिलकर सिर्फ
एक स्वच्छन्द अर्थ दे
मुझे दे। देता रहा है जैसे छन्द, केवल छन्द
घुमड-घुमडकर भाषा का भास देता हुआ
मुझको उठाकर निःशब्द दे देता हुआ।’’
व्यक्ति और परिवेश पर केन्द्रित रघुवीर सहाय की दृष्टि से होकर जो कुछ गुजरा वही उनकी सर्जनात्मकता में रोजमर्रा की दुनिया के साथ कविता के रूप में प्रकट हुआ है। इस अर्थ में उनकी कविता जीवन-यथार्थ की कविता है। मुक्तिबोध ने यह अनुभव किया था- ‘‘हमारे बहुत से कवि और कथाकार मारे डर के उस वास्तव को नहीं लिखते हैं, जिसे वे भोग रहे हैं, क्योकि वे उस वास्वत में उड जाना और उडते रहना चाहते हैं। अनुभव-वास्तव का आज जितना निरादर है, उतना पहले कभी नहीं था।’’ (एक साहित्यिक की डायरी)। संभव है-इस कथन ने रघुवीर सहाय को ‘जीवन-वास्तव’ के अंकन के लिए उकसाया हो और उन्हने आजीवन इस पथ पर चलने के लिए संकल्प कर लिया हो। उन्होंने मानव-मानव के बीच दूरियाँ देखी थीं। दुःख, संताप और कष्ट देखा था गरीबों की गरीबी और अमीरों की अमीरी देखी थी। हिंसा, लूट, बलात्कार और अक्षम्य अपराधों की घटनाएँ देखी थीं। इनसे कवि का हृदय दुःखी और विचलित हुआ होगा। ‘आह से गान उपजने’ की बात प्रसिद्ध है। रघुवीर सहाय ने स्वयं स्वीकार किया है- ‘‘हम दुनिया में जितना कष्ट देखते हैं, लोगों की व्यथा का जितना अनुभव करते हैं, सब हमारी चेतना में निमज्जित होता जाता है, अपनी अनुभव की शक्ति को हम पुष्ट होता हुआ पाते हैं।’’ (लिखने का कारण, पृष्ठ ४६)। जाहिर है शोषित, दलित, वंचित, उपेक्षित, अपमानित मानवता के प्रति सच्ची सहानुभूति मात्र शाब्दिक नहीं हुआ करती। पीडित मनुष्यता के दुख दर्द, कष्ट और अपमान को अपनी रगों में अनुभव करने के बाद ही रचना संभव होती है। ‘‘लोग भूल गए हैं’’ संग्रह में ‘दुर्भिक्ष’ कविता के माध्यम से कवि पूछता है- ‘देश के आदमी कब मनुष्य बन पाएंगे।’ मनुष्य को मनुष्य के रूप में देखने की रघुवीर सहाय की अभिलाषा उन्हें मानवतावादी बनाती है।
विमर्श में हिस्सेदारी के बिना भी रघुवीर सहाय ने स्त्री को अपनी कविता में पर्याप्त स्थान दिया है। उन्होंने प्रेम की जो कसौटी गढी है वह किसी भी स्त्री के लिए सम्मान जनक है और पुरुष के लिए प्रतिस्पर्धा योग्य। रघुवीर सहाय स्त्री को स्त्री की भाँति पुरुष की संपूर्ण वासना के साथ प्यार भी करते हैं- ‘‘ओठों पर ओठ दहकते हों, आँखों पर आँखें मुद जाएं, भुजबंधन कसता जाए, यह आतुर तन उस तन में धँसता जाए, थक जाएं, थक जाएं तेरे कुच मेरे सीने पर धक-धक करके, फडकें, फिर रह जाएं गुंफित जंघाएं, हो जाए वह क्षण जीवन-मरण विशाल सखी।’’ (आत्म हत्या के विरूद्ध, पृष्ठ १३)। यहाँ यह ध्यातत्य है कि प्रेम उनके यहाँ निजी आकांक्षाओं की तृप्ति का साधन भर नहीं है बल्कि एक उदात्त भावना का नाम है- ‘‘पुष्प की पहचान लेने, तोड बंधन वासना के, जब तुम्हारी शरण आ, सार्थक हुआ था जन्म मेरा।’’ वे स्त्रियों के लिए महज करूणा, सहानुभूति और संवेदना तक ही अपने को सीमित नहीं रखते बल्कि उन्हें सशक्त बनाने के लिए चिन्तित और परेशान भी दिखाई देते हैं। उनकी ‘फर्क’ कविता समाज में स्त्री की दशा को बडा ही मार्मिक बनाती है- ‘‘अठारह वर्ष की लडकी से यह कहना कि, तुम बेवकूफ हो, उसे रिझाना है, पर अडतीस साल की औरत से यही कहना, उसे दुत्कारना है। पर तुम यही कहते रह हो, स्त्री की उम्र इस तरह, इज्जत से शुरू करके अपमान की ओर बढने को बाध्य है।’’ (रचनावली, खण्ड-एक, पृष्ठ ३६३)। समकालीन कवि जहाँ ‘जीभ और जांघ के चालू भूगोल से’ गुजरते हुए जवान स्त्रियों को देखकर आँखों में कुत्ते भौंकने की बात करते थे, वहीं रघुवीर सहाय के मन में युवा-स्त्री के प्रति अपार श्रद्धा और आदर का भाव है-‘‘तब मैंने देखा कि उसको इतने करीब से पाकर यह क्या हुआ इतना अजब दर्द वह नफरत नहीं था, वासना नहीं था/ वह जो था अंत में आदर था/वह था उसका सीना आँखों के सामने /उसकी अकेली असहाय/ और गैर बराबर औरत /का वह सर्वस्व था और मेरे बहुत पास।’’ (लोग भूल गए हैं, औरत का सीना, पृष्ठ ४६)। ‘किले में औरत’, ‘बडी’ हो रही है लडकी’, ‘उसका निर्जन’, ‘बैंक में लडकियाँ’ आदि स्त्री के शोषण, अत्याचार और दुख को संवेदनात्मक गहराई के साथ प्रकट करने वाली कविताएँ हैं। अभावग्रस्त किसान-मजदूर की व्यथा से भरा स्त्री का यह सघन दुःख मर्माहत करने वाला है-
‘‘औरत बांधे हुए उरोज
पोटली के अन्दर है भूख
आसमानी चट्टानी बोझ
ढो रही है पत्थर की पीठ
लाल मिट्टी लकडी ललछौर
दांत मट मैले इकटक दीठ
कटोरे के पेंदे में भात
गोद में लेकर बैठा बाप
फर्श पर रखकर अपना पुत्र
खा रहा है उसको चुपचाप।’’
रघुवीर सहाय की कविता में स्त्री और बच्चे बार-बार आते हैं। इसका कारण बताते हुए उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में कहा था।-‘‘जिस तरह के मानसिक आध्यत्मिक जुल्म का दर्द मैं देखता हूँ, वह सबसे ज्यादा औरतों और बच्चों पर ही होता है, कम से कम उनके जीवन में प्रकट दिखाई देता है।’’ इसीलिए वे अत्याचार और अन्याय के समक्ष स्त्री की विवशता के कारणों की तलाश के साथ ही उसकी स्वाभाविक क्षमता का उसे एहसास भी कराते हैं ताकि वह संघर्ष-पथ पर अग्रसर हो सके। उनकी कविता में संघर्ष का अर्थ हर समय संघर्ष का सिलसिलेवार बयान नहीं र्है। कई बार वह संघर्ष लगता भी नहीं है लेकिन उसकी सफलता इस बात में है कि शब्दों की मितव्यययिता में बडी व्यथा संप्रेषित हो जाती है। यह व्यथा-कथा प्रतिरोध की ऊर्जा भरने का कार्य करती है। साहस जगाने का दायित्व निभाती है। यदि ऐसा न हो तो स्थिति बडी भयावह होगी-
‘‘वह बडी होगी
डरी और दुबकी रहेगी
और मैं न होऊँगा
वे किताबें वे उम्मीदें न होंगी
जो उसके बचपन में थीं
कविता न होगी साहस न होगा
एक और ही युग होगा जिसमें ताकत ही ताकत होगी
और चीख न होगी।’’
जिन्दगी को भीतर से जाने और समझे बिना कविता का फलक व्यापक और विराट नहीं हो सकता। रघुवीर सहाय की प्रतिभा जिन स्रोतों से परिचालित होती है उसमें आंतरिक यथार्थ का केन्द्रीय धरातल है तो ऐतिहासिक संदर्भों का लेखा-जोखा भी है। युग की जटिलता को सर्जनात्मक रूप में प्रकट करने के लिए ये मददगार की भूमिका निभाते हैं। सच कहने की ताकत भी यहीं से आती है। ‘नाम कहां तक याद रखूँ, लोगों को उनकी तोंद से जानता हूँ, कहने वाला कवि ही समाज में व्याप्त संवेदन हीनता को कविता का विषय बना सकता है। ‘चिपचिपाई’ तथा ‘पपडियाई’ दुनिया की कलई और लिजलिजों की पोल खोल सकता है-
‘‘खौंखियाते हैं, किकियाते हैं, घुन्नाते हैं
चुल्लू में उल्लू हो जाते हैं
भिनभिनाते हैं कुडकुडाते हैं
झाँय-झाँय करते हैं रिरियाते हैं
गरजते हैं घिघियाते हैं
ठीक वक्त पर चीं बोल जाते हैं
सभी लुजलुजे हैं, थुल-थुल हैं, लिब-लिब हैं
पिल-पिल हैं
सबमें पोल हैं, सबमें झोल हैं।’’
रघुवीर सहाय की राजनैतिक चेतना कलात्मक अन्तर्दृष्टि से एकात्म होकर समकालीन कविता में अपना विशिष्ट स्थान बनाती है। उनकी सर्जनात्मकता को राजनैतिक और सामाजिक टकराव से जो पोषण प्राप्त हुआ उससे कविता में एक नई तरह की आस्वादनशीलता पैदा हुई। उसमें किसी राजनैतिक घोषणा-पत्र का प्रचार नहीं था बल्कि राजनीति के अंधड से मनुष्यता को बचाने की छटपटाहट थी। इसके लिए कवि के सामने यह प्रश्न था कि उसे ‘राजनीति मात्र’ का विरोध करना चाहिए अथवा ‘राजनीति विशेष’ का। संतों को भले सीकरी से कुछ लेना-देना नहीं रहा हो लेकिन वर्तमान का भयावह सच यह है कि राजनीति से बचकर कवि कर्म संभव ही नहीं है। राजनीति चाहे साहित्यिक दलबन्दी की हो अथवा सत्ता और जनता के बीच के घमासानों की, रचनाकार तटस्थ नहीं रह सकता। रघुवीर सहाय की ‘नेता क्षमा करें’, ‘आत्म हत्या के विरूद्ध’, ‘लोकतंत्रीय मृत्यु’, ‘एक अधेड भारतीयआत्मा’, ‘कोई एक और मतदाता’ शीर्षक कविताएँ राजनैतिक यथार्थ और व्यंग्य प्रधान हैं। समाजवाद के नाम पर छल, धोखा, झूठ और मक्कारी राजनीति का सबसे घिनौना खेल है। जनता अपने ही सपनों को खोकर पडी रहती है और मंत्री का नाटक चलता रहता है-‘‘पूछेगा संसद में भोलाभला मंत्री/मामला बताओ हम कार्रवाई करेंगे/हाय-हाय करता हुआ हाँ-हाँ करता हुआ हें-हें करता हुआ/दल का दल/पाप छिपा रखने के लिए एकजुट होगा/जितना बडा दल होगा उतना ही खाएगा देश को।’’ नेता जिनसे देश के नेतृत्व की अपेक्षा थी वे अपनी तिजोरी भरने में लगे हैं। जनतंत्र पर मंडराता संकट देख रघुवीर सहाय की ये काव्य-पंक्तियाँ याद आती हैं-‘‘निर्धन जनता का शोषण है/कहकर आप हँसे/लोकतंत्र का अन्तिम क्षण है/कहकर आप हँसे।’’ यहां हँसी नहीं है। भयानक चिंता की बेचेनी है। आजादी के सपनों का टूटना है।
आल्हा छंद में लिखी गईं रघुवीर सहाय की निम्नलिखित काव्य-पंक्तियाँ जनता और जनार्दन, शोषक और शोषित, मंत्री और आम आदमी के बीच की दूरी का सजीव चित्र प्रस्तुत करती है-
‘‘इतने बडे-बडे कमरे थे जिनमें सौ सौ लोग समायँ
बार-बार जूते खडकाते वर्दीधारी आवैं जाँय
घर के भीतर बैठे गृहमंत्री जी दूध मिठाई खाँय
बाहर बैठे हुए सबेरे से मिलने वाले, जमुहाँय
मुंशी आया आगे-आगे पीछे दर्शन दीन्ह
किया किसी को अनदेखा तो लिया किसी को तुरतै चीन्ह।’’
रघुवीर सहाय की कविता मनुष्यता के पक्ष में एक सार्थक बयान बनने में विश्वास रखती है। इसकी सिद्धि के लिए वह समाज, राजनीति और धर्म में व्याप्त विसंगतियों तथा विडम्बनाओं को उभारती है। वह आदर्श का ढिंढोरा नहीं पीटती बल्कि जीवन-जगत के यथार्थ का साक्षात्कार कराते हुए आदर्श स्थिति के निर्माण का प्रयत्न करती है। वह समाज के उन्नयन की चिन्ता के साथ यह अपेक्षा रखती है कि समाज में भी कविता की चिंता बनी रहे। ?
जे.जी. १६७, टाइप-४ जंगलीघाट, पोर्ट ब्लेयर, अण्डमान-७४४१०३
मो. ९४३४२८६१८९

Toplist

नवीनतम लेख

टैग