भारत में असमानता की हकीकत
संजय चक्रवर्ती Updated Fri, 12 Oct 2018 06:55 PM IST
असमानता
एक बार फिर मीडिया और ट्विटर पर भारत में असमानता के स्तर पर जुबानी जंग छिड़ी हुई है, जिसमें यह भी कहा जा रहा है कि क्या यह बढ़ रही है। इस समय इस बहस को हवा दी है जेम्स क्रैबट्री की पुस्तक द बिलेनियर राज ने। ऐसा ही पिछले साल तब हुआ था, जब ल्यूक चांसल और थॉमस पिकेटी ने इंडियन इनकम इनेक्विलिटी, 1922-2015 : फ्रॉम ब्रिटिश राज टू बिलेनियर राज, नामक शोध प्रकाशित किया था। इस विषय पर दोनों का योगदान ठोस है, जो एक बात पर सहमत हैं कि एक अति समृद्ध वर्ग के उदय के कारण भारत में आर्थिक असमानता बहुत अधिक है और बढ़ रही है। नतीजतन भारत में आय में असमानता उच्चतम स्तर पर है। लगभग इसी तरह के निष्कर्ष क्रेडिट सुइस और ऑक्सफेम की संपत्ति पर नियमित रिपोर्टों से निकाले जा सकते हैं।
मगर कुछ बुद्धिजीवी ऐसे हैं, जो इससे इन्कार करते हैं। इनमें मोंटेक सिंह अहलुवालिया, जगदीश भगवती और सुरजीत भल्ला जैसे प्रभावशाली लोग भी शामिल हैं। इन्कार आम तौर पर दो रूपों में किया जाता है। पहला, ध्यान भटकाने के रूप में कि भारत में असमानता अहम नहीं है, इसके बजाय गरीबी पर संतुष्टि से संबंधित सर्वे पर ध्यान दें और मीडिया द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश की जा रही चीजों पर ध्यान न दें। संक्षेप में, असमानता को न देखें, कुछ और देखें। दूसरा, पद्धति को लेकर टालमटोल का रवैया। जो लोग बढ़ती असमानता की बात करते हैं, उनके आकलन के तरीके में खोट निकाली जाती है। उचित विधियों का उपयोग करने का तर्क दिया जाता है और दिखाया जा सकता है कि भारत में असमानता कम है और धीरे-धीरे बढ़ रही है।
इस मुद्दे के विस्तार को देखते हुए, मैं यहां पद्धतिगत आलोचना के एक पहलू पर ध्यान केंद्रित करूंगा। मेरा मानना है कि भारत में असमानता की हकीकत जानना असंभव है (कि कितनी असमानता है और यह बढ़ रही है या नहीं), क्योंकि इसे मापने के लिए आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं और शायद लंबे समय तक उपलब्ध नहीं होंगे। मेरा मतलब है कि आय पर कोई सरकारी आंकड़ा नहीं है और संपत्ति पर अपर्याप्त आंकड़ा है। सबसे विश्वसनीय आंकड़ा यदि दुनिया में सर्वाधिक नहीं, तो बहुत अधिक और बढ़ती असमानता दिखाता है। यहां तक कि ज्यादा तर्कसंगत गणना भी भारत में आय और संपत्ति असमानता को कम करके दर्शाती है।
असमानता के वास्तविक स्तर को हमारे नहीं जानने का मुख्य कारण यह है कि भारत में आय/संपत्ति वितरण का ऊपरी हिस्सा बिल्कुल रहस्यमय है। जैसा कि मैंने नीचे बताया है, सर्वे का आंकड़ा बेकार है। सर्वेक्षक समृद्ध या अति समृद्ध लोगों के घरों या अपार्टमेंट में जाकर उनसे उनकी आय या संपत्ति के बारे में पूछने में सक्षम नहीं होते हैं। यहां तक कि अगर किसी चमत्कार से कोई सर्वेक्षक ऐसा करने में सफल रहे, तो यह उम्मीद करने का कोई कारण नहीं है कि उन्हें सच बताया जाएगा। इसलिए सर्वेक्षण आंकड़े के आधार पर असमानता पर सभी तर्क बेकार हैं, यह एक डुबकी लगाकर सागर की गहराई मापने जैसा है। कर के आंकड़े कुछ जानकारियां देते हैं, लेकिन वे आबादी के एक छोटे हिस्से को कवर करते हैं और कुख्यात रूप से वे 'चुप्पी साधने' की ओर उन्मुख होते हैं। चूंकि किसी भी समाज में असमानता का विस्तार ऊपरी हिस्से की चोरी से प्रेरित होता है, तथ्य यह है कि इस पर भरोसेमंद जानकारी कम है, जिसका मतलब है कि भारत में असमानता की सच्चाई के बारे में हम अंधेरे में हैं।
हम जिन आंकड़ों पर लड़ते हैं, उसकी सीमाओं के कुछ उदाहरणों पर विचार करें। सबसे पहली बात है कि भारत सरकार आय का आंकड़ा संग्रहीत नहीं करती है। वह खर्च का आंकड़ा जुटाती है। 2011-12 के चरण में (ताजा उपलब्ध आंकड़ा) एनएसएसओ के सैंपल में सबसे अधिक खर्च करने वाला समूह शीर्ष पांच फीसदी शहरी भारतीय था। इस सर्वाधिक खर्च करने वाले समूह का औसत खर्च प्रति वर्ष 1,23,000 रुपये था, जो 2,300 डॉलर से भी कम है। यह साफ तौर पर बेतुका है। आय का एकमात्र भरोसेमंद राष्ट्रव्यापी आंकड़ा भारत मानव विकास सर्वे (आईएचडीएस) द्वारा एकत्रित आंकड़े को माना जाता है। आईएचडीएस के 2004-05 के सर्वे में करीब 43,000 परिवारों में से उच्च आय वाले व्यक्ति की सालाना आय 22 लाख रुपये से कम थी, जो अभी के हिसाब से 48,000 डॉलर होती है। यह भी विश्वसनीय नहीं है। ऐसा लगता है कि आईएचडीएस सर्वे में शीर्ष एक से दो फीसदी कमाई करने वालों को छोड़ दिया गया। एनएसएसओ सर्वे में और भी ज्यादा लोगों को छोड़ा गया, संभवतः शीर्ष पांच फीसदी को पूरी तरह से। संपत्ति से संबंधित आंकड़ा उतना ही समस्याग्रस्त है। वह एनएसएसओ के अखिल भारतीय ऋण और निवेश सर्वे (एआईडीआईएस) से आता है। बड़ी समस्या यह है कि एआईडीआईएस जमीन का मूल्य कैसे निर्धारित करता है, जो उनकी गणना के अनुसार 85 फीसदी संपत्ति बनाता है। लेकिन हम यहां उसकी चर्चा नहीं करते हैं, बल्कि इस तथ्य पर ध्यान देते हैं कि भारत की आधिकारिक संपदा सर्वेक्षण में भारत के समृद्धों पर कोई जानकारी नहीं है। मसलन, पिछले दशक में जब भारतीय शेयर बाजार में तेजी आई, एआईडीआईएस के आंकड़े दिखाते हैं कि शेयर का वजन वास्तव में कुल संपत्ति का 0.13 फीसदी (एक फीसदी का दसवां हिस्सा) तक नीचे चला गया। यह सीधे तौर पर विश्वसनीय नहीं है।
यदि कुल आबादी की आय और संपत्ति अज्ञात है, तो अनिवार्य रूप से इसकी उप-आबादी (धर्म, जाति और जनजाति) की आय और संपत्ति भी अज्ञात है। इसका अर्थ है कि दशकों की सामाजिक नीति और आरक्षण पर संघर्ष उनके भौतिक प्रभावों के अल्प या शून्य जानकारी पर आधारित है। सर्वोत्तम उपलब्ध सबूत त्रुटिपूर्ण है, क्योंकि ऊपरी हिस्से के बारे में कोई जानकारी नहीं है, पर उस त्रुटिपूर्ण सूचना से भी पता चलता है कि अगड़ी और पिछड़ी जातियों के बीच खाई बहुत चौड़ी है और बढ़ती जा रही है। असमानता के बारे में अभी जो जानकारी है, उसका इस्तेमाल जटिल हो सकता है। असमानता संबंधी उचित जानकारी मौजूद नहीं है। असमानता संबंधी उपयोग योग्य जानकारी के अभाव में सभी पक्षों को मनमाने दावे करने का हक मिल जाता है। तथ्यों का नहीं होना उनके लिए सुविधाजनक है, क्योंकि तथ्यों की कमी उन्हें लक्षित वर्ग को अपील करने की अनुमति देती है। असमानता पर अज्ञानता सभी के लिए राजनीतिक परमानंद है।
-लेखक टेंपल यूनिवर्सिटी, फिलाडेल्फिया में प्रोफेसर हैं।