भारतीयों को प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात अंग्रेजों द्वारा स्वराज्य प्रदाय करने का आश्वासन दिया गया था, किन्तु स्वराज्य की जगह दमन करने वाले कानून दिये गये तो उनके असन्तोष का ज्वालामुखी फूटने लगा । ऐसी स्थिति में गाँधीजी के विचारों में परिवर्तन होना स्वाभाविक था । भारतीय जनता को असहयोग आंदोलन के पक्ष में लाने और इसके सिद्धान्तों से अवगत कराने के लिए भाषणों तथा ‘यंग इण्डिया’ नामक पत्रिका
में अपने लेखों द्वारा प्रचार करना प्रारंभ कर दिया ।
असहयोग आंदोलन के कारण
असहयोग आंदोलन के कारण प्रमुख कारण थे।
युद्धोत्तर भारत में असन्तोष
प्रथम विश्व युद्ध के समय भारतीय जनता ने ब्रिटिश सरकार को पूर्ण सहयोग दिया था । ब्रिटेन ने यह युद्ध स्वतन्त्रता और प्रजातन्त्र की रक्षा के नाम पर लड़ा था । ब्रिटिश विजय में भारतीय सैनिकों का महत्वपूर्ण योगदान था । भारतीयों को विश्वास था कि युद्ध की समाप्ति पर ब्रिटेन भारत को दिये गये वचनों का पालन करेगा, परन्तु भारत को स्वशासन के नाम पर ‘मॉण्ट फोर्ड’ सुधार दिये गये जिससे देश को सन्तोष नहीं हुआ।
विदेशी घटनाओंं की प्रतिक्रिया
विश्व युद्ध के कारण यूरोप के तीन देशों- जर्मनी, आस्ट्रिया और रूस के निरंकुश शासन की समाप्ति हो गई । रूसी क्रान्ति के परिणामस्वरूप वहां साम्यवादी शासन व्यवस्था स्थापित हुई । रूस की साम्यवादी सरकार ने एशिया के अनेक प्रदेशों को स्वतंत्र कर दिया । भारतीय जनता की चेतना पर इन घटनाओं का प्रभाव पड़ा और वे राष्ट्रीय संघर्ष हेतु सक्रिय होने लगे ।
‘माण्ड-फोर्ड’ सुधारों से असन्तोष
1919 ई. में ‘मॉण्टेग्यू-चेम्सफोर्र्ड’ सुधार योजना जनता की स्वराज्य की मांग को संतुष्ट करने की दिशा में सर्वथा निष्फल रहीं । युद्ध के समय सरकार ने भारत को उत्तरदायी शासन देने का वादा किया था, परन्तु इस समय योजना में उत्तरदायी शासन तो दूर, सिक्खों को भी मुसलमानों के समान पृथक निर्वाचन का अधिकार दे दिया गया । इससे जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति असन्तोष फैला ।
मूल्य -वृद्धि
युद्ध के दौरान भारत सरकार को बहुत अधिक खर्च करना पड़ा । उस पर अत्यधिक कर्जभार हो गया । परिणामस्वरूप देश में मुद्रा-स्फीति हो गई ।
अकाल और प्लेग
1917 ई. में अनावृष्टि के कारण देश में अकाल एवं प्लेग फैल गया । हजारों व्यक्ति अकाल के ग्रास बन गये । सरकार की ओर से जनता का दुःख दूर करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया, इससे जनता में असन्तोष बढ़ता ही गया ।
रोलट एक्ट
देश में उठने वाले जन-असन्तोष से निपटने के लिए 18 मार्च, 1919 ई को रोलटे एक्ट नामक काला कानून पास किया गया, जिसके अनुसार, ‘‘शासन को किसी भी व्यक्ति को संदिग्ध घोषित कर, बिना दोषी सिद्ध किये, जेल में बन्द करने का अधिकार दिया गया ।’’ इस प्रकार सरकार को पर्याप्त दमनकारी अधिकार मिल गये और भारतीयों की स्वतन्त्रता निरर्थक एवं महत्वहीन हो गयी ।
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड
सरकार द्वारा किये जाने वाले दमन-चक्र के विरोध में 13 अप्रैल, 1919 ई. को अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया । इस शान्तिपूर्ण सभा पर अमानुषिक रूप से गोलियों की वर्षा की गई । लगभग एक हजार स्त्री, पुरूष और बच्चे मारे गये तथा दो हजार व्यक्ति घायल हुए, परन्तु इस आतंक के बावजूद भी राष्ट्रीय आंदोलन का दमन नहीं हो सका ।
खिलाफत आंदोलन
प्रथम महायुद्ध में टर्की अंग्रेजों के विरूद्ध लडा़ । महायुद्ध के पश्चात विजेता राष्ट्रों ने टर्की में खलीफा का पद समाप्त कर कई टुकड़ों में विभाजित कर दिया। भारतीय मुसलमान टर्की के खलीफा को अपना धर्म गुरु मानते थे । अत: अंग्रेजों के इस कृत्य से उनमें बहुत रोष फैला । उस रोष को प्रकट करने के लिए मुहम्मद अली और शौकत अली नाम के दो भाइयों ने खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व किया । कांग्रेस ने इस आंदोलन का समर्थन किया इससे देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता की भावना फैल गई ।
वस्तुत: इस आंदोलन के साथ मुस्लिम जनता पूर्ण रूप से राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े ।
असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम
असहयोग आंदोलन के प्रमुख कार्यक्रम थे।
- सरकारी उपाधियों व अवैतनिक पदों का त्याग कर दिया जाये तथा जिला व म्यूनिसिपल वार्डों के मनोनीत सदस्य अपने पदों से त्याग-पत्र दे दें ।
- सरकारी दरबारों, स्वागत समारोहों व सरकारी अफसरों के सम्मान में आयोजित कार्यक्रमों में भाग न लें ।
- सरकारी तथा सरकार के सहायता पाने वाले स्कूलों व कालेजों का बहिष्कार किया जाये और राष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की जाये ।
- सरकारी अदालतों का बहिष्कार तथा पंचायतों द्वारा मुकदमों का निपटारा किया जाये।
- नई कौंसिलों के चुनावों का बहिष्कार किया जाये ।
- विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाये तथा स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग और उसका प्रसार किया जाये ।
- फौजी, क्लर्क व मजदूरी करने वाले लोग विदेशों में नौकरी के लिए भर्ती न हों ।
असहयोग आंदोलन का प्रसार
सत्य और अहिंसा पर आधारित इस आंदोलन में देखते ही देखते लाखों व्यक्ति सम्मिलित हो गये । सर्वप्रथम गाँधीजी ने पदवी ‘कैसै र-ए-हिन्द’, महाकवि रविन्द्रनाथ टैगारे ने भी अपनी ‘नाइट’ की पदवी सरकार का े वापस कर दी । इस आंदोलन में जनता ने कानूनों को भंग किया। शान्तिपूर्ण प्रदर्शन किये, न्यायालयों का बहिष्कार किया, हड़तालें कीं, शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार किया गया, शराब और विदेशी वस्तुओं की बिक्री-स्थलों पर धरने दिये गये, किसानों ने सरकार को कर नहीं दिया तथा व्यापार ठप्प कर दिये गये ।
विधान-मण्डलों के चुनावों में लगभग दो तिहाई मतदाताओं ने मतदान नहीं किया । जामिया-मिलिया और काशी-विद्यापीठ जैसी शिक्षा-संस्थाएं स्थापित की गई । अनेक भारतीयों ने सरकारी नौकरियां छोड़ दीं । विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई ।
गाँधीजी के आव्हान पर जनता ने लाठी प्रहार और गोलियों की बौछार बर्दाश्त की । 17 नवम्बर 1921 ई. को ब्रिटेन के राजकुमार प्रिन्स ऑफ वेल्स के भारत आने पर उसका देश भर में हड़तालों और प्रदर्शनों से स्वागत किया गया । अनेक स्थानों पर पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई । सरकार का दमन चक्र चलता रहा । वर्ष के अंत तक गाँधीजी को छोड़कर देश के सभी प्रमुख नेता बन्दी बना लिये गये । लगभग 30,000 व्यक्ति जेलों में बन्द थे ।
जिस समय असहयोग आंदोलन पूरे वेग से चला रहा था और सरकारी दमन चक्र भी जोरों से चल रहा था, उसी समय दिसम्बर, 1921 ई. में कांग्रेस का वार्षिक सम्मेलन अहमदाबाद में हुआ। हकीम अजमल खाँ के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपना आंदोलन उस समय तक चालू रखने का निश्चय किया, जब तक पंजाब और खिलाफत की शिकायतें दूर न हों और स्वराज्य की प्राप्ति न हो ।
चौरी-चौरा काण्ड और आंदोलन का स्थगन
ऐसे समय में जबकि आंदोलन अपनी पूर्ण गति से चल रहा था, कि अचानक सारा दृश्य बदल गया । 5 फरवरी 1922 ई. को गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा गांव में कांग्रेस का जुलूस निकल रहा था । लुजूस में सम्मिलित कुछ लोगों के साथ पुलिस ने दुर्व्यवहार किया । पर जनता उत्तेजित हो गयी और थाने में आग लगा दी जिसमें थानेदार सहित 29 पुलिस के सिपाही जल कर मर गये । गाँधीजी अहिंसात्मक आंदोलन में विश्वास करते थे । अत: उन्होंने तत्काल आंदोलन को स्थगित कर दिया । इससे गाँधीजी की बड़ी आलोचना हइुर् ।
मोतीलाल नेहरू के अनुसार, किसी एक स्थान के पाप के कारण सारे देश को दण्ड देना उचित नहीं था । ब्रिटिश सरकार ने परिस्थिति का लाभ उठाकर गाँधीजी को गिरफ्तार कर छ’ वर्ष के कारावास का दण्ड दिया ।
असहयोग आंदोलन का प्रभाव
आंदोलन ने देश की राजनीति पर दूरगामी प्रभाव दिखाये । इससे जन-साधारण में राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ असहयोग आंदोलन के प्रभाव -
- कूपलैण्ड के अनुसार, ‘‘गाँधीजी ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक क्रान्तिकारी आंदोलन और एक जन आंदोलन के रूप में परिणित कर दिया ।’’
- यह अपने ढंग का अनूठा प्रयोग था । संसार के इतिहास में एक शक्तिशाली देश के विरूद्ध जनता द्वारा पहली बार व्यापक स्तर पर अहिंसात्मक आंदोलन चलाया गया ।
- ब्रिटिश साम्राज्य का गर्व चूर-चूर हो गया । जनशक्ति के आगे सरकार की सम्पूर्ण शक्ति तुच्छ हो गयी । यह स्पष्ट हो गया कि साम्राज्य से लड़कर ही स्वराज्य प्राप्त किया जा सकता है । इसने भारतीयों में आत्मसम्मान तथा निर्भीकता की भावना उत्पन्न की ।
- हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित हुई । देश-भर में एक सी विचारधारा व राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार हुआ व विभिन्न सम्प्रदायों और प्रान्तों के लोग कांग्रेस के झण्डे के नीचे आ गये ।
- लोगों ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रति लगाव की प्रवृत्ति जागृत हुई । फलतः कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन मिला ।
- ब्रिटिश मानस पर भी इसका प्रभाव पड़ा । साम्राज्यवादियों को लगा कि उनकी शक्ति अजेय नहीं है । अंग्रेजों को अपनी सरकार के औचित्य पर सन्देह होने लगा । अंग्रेज नवयुवक भारत में सेवा के लिये आने से कतराने लगे ।
- राष्ट्रवाद के प्रसार के साथ-साथ राष्ट्रीय शिक्षा, स्वदेशी वस्त्र, स्वदेशी संस्थाओं एवं हिन्दी की लोकप्रियता में वृद्धि हुई ।
असहयोग आंदोलन की समाप्ति
असहयोग आंदोलन की समाप्ति प्रमुख कारण थे। अहिंसा के पुजारी गांधीजी भला ऐसी हिंसा कैसे बर्दाश्त करते, उन्होंने 12 फरवरी 1922 को असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। गांधीजी के इस फैसले से देश स्तब्ध रह गया। जवाहर लाल नेहरू ने कहा - ‘ऐसे समय में जब हम सभी मोर्चों पर आगे बढ़ रहे थे, आंदोलन स्थगित नहीं करना चाहिए था।’ चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू एवं सुभाषचन्द्र बोस ने भी गांधीजी के इस फैसले की आलोचना की। गांधीजी की अलोकप्रियता का लाभ उठाकर ब्रिटिश सरकार ने 10 मार्च 1922 को गांधीजी को गिरफ्तार कर 6 वर्ष के लिए जेल भेज दिया। गांधीजी की बीमारी के कारण उन्हें समय पूर्व 5 फरवरी 1924 को रिहा कर दिया गया।
असहयोग आंदोलन के परिणाम
सन् 1922 में जिस ढंग से इस आन्दोलन को स्थगित किया गया उससे इसमें निहित कई दुर्बलताएँ प्रकट हुईं -
- इस आन्दोलन की सबसे बडी दुर्बलता राजनीति में धर्म का प्रवेश था जिसके दूरगामी परिणाम अच्छे नहीं हुए ।
- गाँधी जी ने हिन्दू-मुस्लिम सहयोग की स्थापना के लिए ऐसा किया था लेकिन यह बाद में तनाव के रूप में ही सामने आया।
- आन्दोलन के प्रसार और प्रगति ने जिन आशाओं को जन्म दिया उनमें से किसी के भी पूरे हुए बिना आन्दोलन स्थगित होने से मनोवैज्ञानिक प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा ।
संदर्भ -
- भट्टाचार्य, प्रभात कुमार: गाँधी दर्शन, काॅलेज बुक डिपो जयपुर 1972-73
- गाँधी, एम. के.: गाँधी जी की आत्मकथा, अनु. पोद्दार, महावीर प्रसाद 1994
- गाँधी, एम. के.: माई एक्सपेरिमेन्ट विद ट्रूथ, वाल्यूम प्प् अहमदाबाद
- चिन्तामणि, वी. वाई.: भारतीय राजनीति के अस्सी वर्ष, 1940
- पट्टाभिसीतारमैया: काँग्रेस का इतिहास वाॅल्यूम II